Wednesday, December 11, 2024
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एक फौजी का संस्मरण, वो सियाचिन है खाला का घर नहीं

Ravivani 28


बोरवैल में गिरे बच्चे के बचाव के किस्से आजकल अक्सर टी वी, अखबार में देखने को मिलते हैं। उसमें कितना समय, प्रयास और मशीनरी लगती है सबने देखा है। अब आप रेस्क्यू आपरेशन सोचें-50 डिग्री सेंटीगे्रड में, अंधेरे और गोला गोली की जद में, 17000 फिट पर कम आॅक्सीजन और बर्फ में। जहां आपके पास कोई भारी भरकम मशीनरी भी ना हो। दिन में आप काम न कर सकते हों और आग रोशनी रात में आप जला न सकते हों। मैंने भी क्रीवास में जाकर समझने की कोशिश की कि शायद कोई तरकीब हाथ लगा जाए। हाथ नहीं लगी। मैं बाहर आ गया।

डॉ. मेजर हिमांशु |

ग्लेशियर ऊंचे पहाड़ों पर जमी हुई नदियां हैं बर्फ की। वहां बर्फ चट्टान जैसी भी है और रूई जैसी भी। इस बर्फ के नीचे पहाडं हैं, दरारें भी। गहरी बहुत ही गहरी अंतहीन दरारें, मुंह खोले। ये चुपचाप घात लगाए निगलने को तैयार दरारें या क्रीवास किसी बर्फानी ाूफान या हिमस्खलन से भी ज्यादा खतरनाक शिकारी हंै। ये झांसा देती हैं शिकार को ऊपर से बर्फ की चादर ओढ कर। वो फंसा और घप्प। सियाचीन भारतीय फौज का काशी प्रयाग है। मुझे भी मत्था टेकने का अवसर मिला कारगिल युद्ध की समाप्ति के तुरन्त बाद। जब मैं सियाचीन जा रहा था, देश में कारगिल युद्ध के कारण देशभक्ति की बयार बह रही थी। फौजी की अर्थी पर हजारों लोग यूं ही इकठ्ठा हो जा रहे थे। बडेÞ बडेÞ नेता खड़े मिलते थे। सियाचीन ग्लेशियर में जितनी जान की हानि दुश्मन से युद्ध में नहीं होती उससे कहीं ज्यादा दुर्गम जलवायु के कारण होती है। देवादि देव महादेव की तपो भूमि के अतिक्रमण और प्रदूषण की सजा भी कठोर ही होगी।

फौजी फर्ज से बंधा है और मौत समय से तय जगह पर बुला ही लेती है सबको। उसे भी बुला ही लिया, 14 साल बाद फिर। अमूमन फौजी का एक ही बार मौका आता है सर्विस में ग्लेशियर कार्यकाल का। वो एडवांसड माऊंटेनियरिंग क्वालीफाईड था और 14 साल पहले सियाचीन कार्यकाल के दौरान एैवलान्च हादसे के शिकार ग्रुप में से इकलौता बचा था। यह दूसरा कार्यकाल था। अब सूबेदार थे फौज में। सियाचीन के दुर्गम इलाके के लिए वो ही सबसे अधिक प्रशिक्षित, अनुभवी और दक्ष थे वहां।

अपनी वरिष्ठता, अनुभव और दक्षता के कारण ही वो सबसे दुर्गम पोस्ट के कमांडर बने। दिन की रोशनी में तो उस पोस्ट पर आवागमन संभव ही नहीं था। स्नो स्कूटर भी पोस्ट से पहले एक प्वाइंट तक ही जाता था। आप खां साहब की राइफल की गोली की जद में थे वहां। वो सियाचीन है खाला का घर नहीं। जवान महाराष्ट्र और उत्तरी कनार्टक के थे। कंपनी कमाण्डर चौथी पीढी के जंगजू फौजी। उनका कमांड कंट्रोल अच्छा था और हमारी पोस्ट पर बमबारी भी। पोस्ट पर सौ दिन में चार बार अपना राम नाम सत्य होने की नौबत आई। बमबारी में कुछ दिन पहले ही हमारे चार जवान घायल और दो शहीद हुए थे। मैंने ही कागज तैयार कर दस्तख्त किए। सूबेदार साहब ने कहा, ‘डॉ. साहब यहां आप सबसे काम के व्यक्ति है पर कागजों पर आपके दस्तख्त की जरूरत ईश्वर न करे किसी को पड़े!’

उस दिन भी खासी बमबारी हुई और टेलीफोन की तारें कट गर्इं। हल्की बर्फ भी गिरी थी। बमबारी से नई पुरानी क्रीवास या दरारें खुल जाती हैं और बर्फबारी उन पर चादर सी डाल उन्हें और खतरनाक बना देती है। बमबारी एैवलान्च भी लाती है। फौजी कहावत है, ‘आप चीन से लड़ो, पाकिस्तान से लड़ो, मौसम से मत लड़ो।’ मौसम से यारी और सावधानी ही सियाचीन में जिंदा रहने की चाबी है। बाकी भाग्य है। उस दिन सूबेदार साहब का भाग्य ने ही साथ छोड़ा कि वो सावधानी में चूके।

सूबेदार साहब टेलीफोन लाईन रिपेयर पार्टी के साथ थे। लाइन पार्टी में सब सिखलाए तरीके से एक रस्सी से बंध कर चलते हैं। कोई गिरे तो बाकी सम्हाल ले। लाइन पार्टी रस्सी कैराबिनर बांध कर ही चल रही थी उस दिन भी। सूबेदार साहब ने कुछ जांचने या पेशाब करने के लिए रस्सी कैराबिनर से निकाल दी और रास्ते से दो चार कदम ही चले होंगे कि कच्ची नई बर्फ से ढकी और शायद बमबारी के कारण खुली नई क्रीवास में समा गए। दरार ‘ट’ आकार की थी और खासी गहरी भी। वो एकदम 20-25 फिट नीचे गिरे और दो दीवारों में फंस कर अटक गए। नीचे घुप्प अंधेरा। सब सकते में।

रेस्क्यू आपरेशन तुरंत शुरू हुआ। शाम थी। धुंधला हो चुका था। डॉक्टर की जरूरत हो सकती थी। मैं तुरंत पोस्ट की ओर रवाना हुआ। आधा रास्ता स्नो स्कूटर से आधा पैदल था। पहंचा तो अंधेरा हो चुका था। तापमान ऊपर ही-35 डिग्री सेंटीग्रेड था, क्रीवास में क्या रहा होगा सोच सकते हैं। खान साहब की गोली गोला की जद में थे सो आग रोशनी कर नहीं सकते थे। सोलर लैम्प बहुत काम आए। दो घंटे के लगातार प्रयासों में कोई खास कामयाबी नहीं मिली थी। कंपनी कमांडर एक अलग पोस्ट पर थे। वहां से तुरंत चले। सूबेदार साहब जिंदा थे उनकी आवाज सुनाई दी थी धीमी ही सही। नीचे बर्फ की दीवार काली या गहरी हरी थी चट्टान से भी सख्त। घुटन, अंधेरा, ठंड और आॅक्सीजन की कमी अलग। सूबेदार साहब बहादुर आदमी थे। बताते हैं धीमी आवाज में उनकी हिम्मत न हारने और कोशिश करते रहने की बात सुनायी दी थी।

बोरवैल में गिरे बच्चे के बचाव के किस्से आजकल अक्सर टी वी, अखबार में देखने को मिलते हैं। उसमें कितना समय, प्रयास और मशीनरी लगती है सबने देखा है। अब आप रेस्क्यू आपरेशन सोचें-50 डिग्री सेंटीगे्रड में, अंधेरे और गोला गोली की जद में, 17000 फिट पर कम आॅक्सीजन और बर्फ में। जहां आपके पास कोई भारी भरकम मशीनरी भी ना हो। दिन में आप काम न कर सकते हों और आग रोशनी रात में आप जला न सकते हों। मैंने भी क्रीवास में जाकर समझने की कोशिश की कि शायद कोई तरकीब हाथ लगा जाए। हाथ नहीं लगी। मैं बाहर आ गया। सूबेदार साहब अपने शरीर के वजन और गर्मी के कारण आध एक फिट नीचे खिसक चुके थे और ऊपर बर्फ जम रही थी। यह खतरनाक था। सौभाग्य से उनकी स्लिंग या जैकेट में हुक फंसाने में कामयाबी मिली। उनका नीचे खिसकना रूका।

तभी बिग्रेड कमांडर साहब का जानकारी के लिए फोन आया और मैं रस्सी कैराबिनर से निकाल फोन आॅपरेटर की ओर चला। पांच छ: कदम चला होऊंगा कि मैं भी क्रीवास में अंदर। हालांकि मैं ऊपर ही अटक गया। कंधे में थोड़ी चोट लगी पर फुटबाल का खिलाडी होना काम आया। मैं लटका हुआ था हाथ और टांग फंसा कर, ‘क्रैम्पोन’ के दांत बर्फ की दीवार में गड़ा दिए थे। दस्ताना उतर गया था। हाथ बर्फ पर था और सुन्न पड़ रहा था। ऊपर मचे हड़कंप की आवाज सुनाई दे रही थी। मुझे लगा हड़बड़ाहट में कोई मुझ पर ही न गिर पडे।Þ मैं चिल्लाया, ‘मैं ठीक हूं।’ शायद मोटी गाली देकर कहा था और धीरे-धीरे ही मेरी तरफ आने की हिदायत दी। डबल स्लिंग डबल हुक हो गयी तो स्थिति ताबे में आई। मिनट में मैं बाहर था और हाथ सुन्न। कंधे में तेज दर्द था। मैंने शोल्डर स्ट्रैप साथी की मदद से खुद बांधा और हाथ रखा गुनगने पानी में।

थोड़ी ही देर में कंपनी कमांडर भी पहुंच गए। वो अनुभवी और दक्ष थे, आगे बढ़कर काम करने वाले। कोशिशों में दम दुगना हो गया। पर रात और ठंड बढती जा रही थी। कामयाबी दूर-दूर तक नहीं दिख पा रही थी। सूबेदार साहब की कोई भी आवाज सुने घंटों बीत चुके थे। स्थितियां सर्वथा प्रतिकूल थीं बस नैतिकता और संकट में साथी का दर्द हमें वहां रोके था। खुले में अन्य साथियों को भी ठंड या किसी दुर्घटना का खतरा था। गोली बारी का भी। बचाव कारवाई को 6-7 घंटे हो चुके थे। नीचे सूबेदार साहब का जिंदा होना भी मुश्किल था। बिना निश्चित या कामयाब हुए वहां से हटने की गवाही दिल दे नहीं रहा था। ऊपर रोशनी और हमारी आवाजें ही उनका नीचे, ठंड अंधरे में सहारा हों तो? यह दुविधा अनिर्णय आध एक घंटा और चला। जवान भी असहज होने लगे थे। साथी को बचा न पाना और एैसी दर्दनाक स्थिति में छोड़ना डरावना ख्याल है। ख्याल उस हालात में हटने से पहले बंदूक के इस्तेमाल का भी आया। इन हालात में राईफल की गोली दया ही थी। ख्याल सबको आया पर चर्चा भी न कर पाया कोई इस पर। फौजी कानून, अनुशासन, संकोच जाने किस किस वजह से। भारी मन से हमारे पांव वापस चले। हम अपनी कोशिशों की हार से दुखी थे और दुख से हारे। आंखें सबकी नम थी।
एक हफ्ते बाद अपना कार्यकाल समाप्त कर मैं पोस्ट से नीचे उतरा। सूबेदार साहब का शरीर क्रीवास से निकालने के प्रयास जारी थे। बेस में कार्रवाई खत्म कर कुछ दिन बाद मैं चंडीगढ पहुंचा। कारगिल युद्ध खत्म हुए कई महीने हो चुके थे। देश में सब सामान्य हो चुका था। एक मराठी जेसीओ साहब आए मिलने पहुंचे मुझे ढूंढते। एक बॉडी को महाराष्ट्र ट्रेन से पहुंचाने के तालमेल में कुछ दिक्कत आ रही थी। सूबेदार साहब का ही शरीर था। मिट्टी के दर्शन लिखे थे। कुछ सामान्य से कागज थे। मैंने दस्तखत कर दिए।


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