Thursday, March 28, 2024
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कामयाबी का अमृत कलश

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MANMOHAN HARSH 1टोक्यो में सवा अरब से अधिक देशवासियों का प्रतिनिधित्व करते हुए भारत के सवा सौ से अधिक ‘खेल रत्न’ ओलम्पिक के सवा सदी के इतिहास में सात पदकों की ऐतिहासिक उपलिब्ध के साथ ‘कामयाबी का अमृत कलश’ भी अपनी रगों में संजोकर लाए हैं। स्वर्णिम सितारे नीरज चोपड़ा ने चुनौतियों की छाती पर अपनी प्रतिभा का भाला गाड़कर अद्वितीय प्रदर्शन किया है। ओलम्पिक हॉकी में भारत के रिकार्ड आठ स्वर्ण पदक और बीजिंग में 2008 के खेलों में देश के लिए व्यक्तिगत गोल्ड मैडल पर पहली बार निशाना साधने की शूटर अभिनव बिंद्रा की सफलताओं के बाद नीरज चोपड़ा का यह करिश्मा खेल प्रेमियों को ‘सोने पे सुहागा’ वाला एहसास दे रहा है।
टोक्यो ओलम्पिक के पहले ही रोज मीरा बाई चानू ने भारत्तोलन में अपना जलवा बिखेर हम सबकी चांदी कर दी थी। ओलम्पिक के आगाज पर मीरा बाई की चांदी और समापन पर नीरज की सोने की सौगात के बीच भारतभूमि की मल्लयुद्ध और मिट्टी के अखाड़ों की परम्पराओं को ओलम्पिक मैट पर ‘माटी के लाल’ रवि कुमार दहिया ने रजत और बजरंग पूनियां ने कांस्य पदक से नई ऊंचाइयां दी हैं। भारतीय शटल को अपने कॅरिअर में सात समुंदर पार चुनौतियों के हर मुकाम पर सातवें आसमां पर स्थापित करने को प्रतिबद्ध पीवी सिंधू ने रियो ओलम्पिक के रजत के बाद इस बार फिर कांस्य जीत तिरंगे का मान बढ़ाया है।
टोक्यो से मिली दीगर खुशखबरियों में जहां पुरुष हॉकी टीम 41 वर्षों के अंतराल के बाद ओलम्पिक पदक जीतकर अपने सुनहरे दौर की वापसी का दमभर रही है, वहीं लवलीना बोरगोहेन ने मैरीकॉम के नक्षेकदम चलकर कांस्य पदक से महिला मुक्केबाजी भारत का रूतबा बरकरार रखा है। इन सात पदकीय सफलताओं के इत्तर महिला हॉकी टीम की पहली बार सेमीफाइनल में एंट्री, गोल्फ में अदिति अशोक को  चौथा स्थान, डिस्क्स थ्रो में अपने पहले ओलम्पिक में ही फाइनल में पहुंचने वाली कमलप्रीत की छठी पोजिशन तथा घुड़सवारी फाइनल में फआद मिर्जा की धमक भी काबिलेगौर प्रदर्शन है। इसके अलावा टेबिल टेनिस, एथलेटिक्स, तीरंदाजी, मुक्केबाजी, कुश्ती और अन्य स्पर्धाओं में भारतीय खिलाड़ी पदक भले ही नहीं जीत पाए हो, मगर मुकम्मल तौर पर सभी का प्रदर्शन खेलों में भारत के नवनिर्माण की तस्वीर में नए रंग भरने वाला रहा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।
अटलांटा में 1996 के ओलम्पिक में टेनिस में लिएंडर पेस ने कांस्य पदक जीतकर ओलम्पिक से हमारे दल के खाली हाथ लौटने के अभिशाप को सदा-सदा के लिए धो दिया था। उसके बाद सिडनी, एथेंस, बीजिंग, लंदन और रियो होते हुए टोक्यो तक भारत ओलम्पिक में अपने प्रभुत्व को स्थापित करने की बड़ी मंजिल की ओर निरंतर उड़ान भर रहा है। ओलम्पिक में गत दो दशकों में भारतीय खिलाड़ि़यों की अलग-अलग खेलों में व्यक्तिगत स्तर सफलताओं के बाद अब टोक्यो में हमारी हॉकी टीम को भी जीत की संजीवनी मिल गई है। ओलम्पिक में भारतीय हॉकी के स्वर्णिम काल में तो केवल पुरुषों ने लंबे समय तक दुनिया पर राज किया, मगर अब महिला टीम भी उसके साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए एक तरह से ओलम्पिक हॉकी के सर्वोच्च शिखर पर भारतीय चुनौती को पूर्णता प्रदान करने को बेताब है।
टोक्यो के बाद खेलों में दुनिया के अक्स पर भावी भारत की एक बुलंद तस्वीर का एहसास खेल के जानकारों और करोड़ों खेलप्रेमियों के दिलोदिमाग पर गहराने लगा है। आने वाले वक्त में यह एहसास और ख्वाब हकीकत में तब्दील हो तथा अंतराष्ट्रीय मंच पर हमारे खिलाड़ियों की सफलताएं देश को खेलों की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर करे, इसके लिए टोक्यो सहित विगत कई ओलम्पिक खेलों से जनित सच्चाई को ठीक तरह से पचाने और परोटने की आवश्यकता है।
देश में ‘खेलों’ को महज ‘खेल’ समझकर दरकिनार कर दिए जाने के दिन अब लद चुके हैं। भारत की रगों में युवा और जांबाज खिलाड़ियों के भागीरथी प्रयासों से आकार लेती नव खेल संस्कृति हम सभी से खेलों के प्रति अपने नजरिए और सोच में स्थाई बदलाव की अरदास कर रही है। खेलों में केवल और केवल स्वर्ण, रजत और कांस्य के रंगों वाली पदकीय सफलताओं से परे जाकर भी खिलाड़ियों की अथक मेहनत, समर्पण और हौसलों से पैदा होने वाले सच की हर स्तर पर सामूहिक स्वीकारोक्ति को हमें अपनी आदत बनाना होगा।
ओलम्पिक खेलों के आयोजन के वक्त देश में ज्यादातर लोग पदक जीतने की उपलब्धियों से ही अपना सरोकार रखते हैं। केवल कुछ दिनों के लिए पदक जीतने वालों को सिर आंखों पर बैठा लेने का खेल खेला जाता है। वहीं पदकों की होड़ से चूक जाने या फिर इस दौड़ में पिछड़ जाने वालों को चलताऊ किस्म की टिप्पणियों के साथ कोसने का ‘खेला’ करने से हम कभी बाज नहीं आते। ओलम्पिक में जब हमारी हॉकी में तूती बोलती थी, तो ओलम्पिक खेलों में प्रतिनिधित्व के नाम पर हमारे लिए यहीं एहसास सब कुछ था, दीगर खेलों में ओलम्पिक के दर पर दस्तक देने की हूक का प्राय: अभाव देखा गया।
हॉकी की उपलब्धियों के अलावा मेलबोर्न में 1956 में भारतीय फुटबॉल टीम को चौथा स्थान तथ इसके बाद म्यूनिख में 1972 में उड़न सिख मिल्खा सिंह और लॉस एंजिल्स 1984 में उड़नपरी पीटी ऊशा के ‘पदक की मंजिल तक पहुंचकर फिसले कदम’ वाले कुछ व्यक्तिगत प्रयास और श्रेष्ठता वाली यादगार कहानियों को छोड़ दिया जाए तो ओलम्पिक में खेलों के कैनवास में भारत दुनिया में आबादी के लिहाज से दूसरे नंबर पर का मुल्क होने के बावजूद भी मुकम्मल तौर पर अपने प्रतिनिधित्व से रंग नहीं भर पाया।
टोक्यो ओलम्पिक ने भारत की अलग-अलग खेलों में बढ़ती पकड़ और निरंतर बेहतर होते प्रतिनिधित्व को पदकीय सफलताओं सहित हर लिहाज से नए मुकाम पर पहुंचाया है। टोक्यो में हमारे 127 खिलाड़ी पहली बार 18 खेल स्पर्धाओं में 135 करोड़ लोगों की आशाओं की अगुआई कर रहे थे। इस ओलम्पिक में भारत के अब तक के श्रेष्ठतम प्रदर्शन को महज सात खेल स्पर्धाओं की कामयाबी के तौर पर देखने और सदा की तरह बाकी खिलाड़ियों के योगदान को भुला देने की परम्परागत सोच को अब तिलांजलि देनी ही होगी।
टोक्यों में हमारे सवा सौ एथलीट की भागीदारी से देश की झोली में सात पदकों की कहानी कमोबेश ऐसे ही सच को बयां कर रही है। अब हमें यह तय करना है कि ‘सफलता के अमृतकलश’ की इस सौगात से देश में जड़ें जमाती हुई खेल संस्कृति को सींच कर किस प्रकार भारत को खेलों में एक महाशक्ति बनाने की डगर पर आगे बढ़ाना है।

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