रेबीज से उत्पन्न हुई दर्दनाक घटनाओं ने समाज को भयभीत कर दिया है। आमजन इस बात से अचंभित हैं कि आखिर रेबीज का संक्रमण अचानक से इतना खतरनाक और जानलेवा कैसे हो गया? अक्सर कुत्ता काटने के बाद पीड़ित रेबीज का टीका लगवा लेते हैं और एकाध सप्ताह में स्वस्थ्य हो जाते हैं। पर, अब घटनाएं जान लेने लगी हैं। कुछ दिनों पहले की ही बात है जब गाजियाबाद में रेबीज इंफेक्शन के चलते सावेज नाम के एक 14 वर्षीय लड़के की मौत हो गई। बच्चे को डेढ़ माह पूर्व पार्क में खेलते वक्त कुत्ते ने दाहिने पैर में काटा था जिसके बाद बच्चे ने डर के चलते वो बात परिजनों से छिपाई। लेकिन कुछ दिन बाद रेबीज का संक्रमण बच्चे के शरीर में इतनी तेजी से फैला कि लक्षण साफ दिखाई देने लगा। पिता बच्चे को गोद में लेकर अस्पतालों के चक्कर काटता रहा। लेकिन, किसी भी अस्पताल ने इलाज नहीं किया। आखिरकार बच्चे ने तड़प-तड़पकर पिता की गोद में ही दम तोड़ दिया।
किशोर की दर्दनाक मौत लगातार चर्चाओं में है। घटना सुनकर दिल्ली-एनसीआर के लोग दहशत में हैं। बच्चे की मौत ने चिकित्सा तंत्र से लेकर शासन-सिस्टम को भी कटधरे में खड़ा कर दिया है। निश्चित रूप से उस घटना ने न सिर्फ गाजियाबाद के लोगों को, बल्कि समूचे देशवासियों को झकझोरा है। उस घटना के बाद से ही कुत्ता काटने की घटनाओं में बेहताशा इजाफा हुआ है। करीब पांच सौ से ज्यादा घटनाएं गाजियाबाद में बीते दो माह में हुई हैं जिसमें पिछले सप्ताह एक और युवक की मौत रेबीज से हो गई। उसे भी एक आवारा कुत्ते ने बीस-पच्चीस दिन पहले काटा था। रेबीज संक्रमण से फैली घटनाओं पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय भी गंभीर है। जब से ये ताजी घटनाएं सामने आईं, उसके बाद मंत्रालय ने रेबीज टीके के स्टॉक की समीक्षा करनी शुरू कर दी हैं। जहां टीको की उपलब्धता नहीं है, वहां मुहैया कराने के आदेश दिए गए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी सभी जिलों के सीएमओ को आदेशित किया है। रेबीज कितना घतरनाक होता है और दुष्परिणाम कैसे होते हैं इस कड़वी सच्चाई से सभी वाकिफ हैं, बावजूद इसके कुत्ता काटने के बाद लोग लापरवाही बरतते हैं। जबकि, ऐसे वक्त में चिकित्सीय सलाह की सख्त जरूरत होती है।
कुत्ता काटने के शिकार पीड़ितों की भीड़ अस्पतालों में भी एकाएक बढ़ गई है। कई मर्तबा तो अस्पतालों में रैबीज के इंजेक्शनों का भी टोटा रहता है। उस स्थिति में पीड़ित औने-पौने दामों में निजी अस्पतालों से रेबीज के टीके खरीदते हैं। चिकित्सकों की माने तो रेबीज के लगभग 97 फीसदी केस संक्रमित कुत्ते के काटने के कारण ही होते हैं। कुत्ता काटने के 72 घंटों के भीतर एंटी-रेबीज वैक्सीन अवश्य लगवाना चाहिए। ऐसा नहीं करने पर पीड़ित निश्चित रूप से रेबीज की चपेट में आएगा। हालांकि यहां एक महत्वपूर्ण बात बताना जरूरी हो जाती है कि रेबीज अन्य जानवरों से भी फैलता है, लेकिन उनका संकमण उतना प्रभावी नहीं होता, जितना कुत्ते का होता है। बाकी जानवरों के काटने के बाद टीका न भी लगे, तब भी घबराने की आवश्यकता नहीं होती। खुदा न खास्ता अगर कोई जहरीला जानवर या जंगली पशु-जनावर काटता भी है, तो उस घाव को साबुन से अच्छे से धोने से संक्रमण खत्म हो जाता है और खतरा भी टल जाता है।
गली-मोहल्लों के कुत्ते हिंसक क्यों हो रहे हैं? क्यों सभी को काटने पर उतारू होते हैं? इस थ्योरी को भी समझने की जरूरत है। दरअसल, इसका एक मुख्य कारण है कुत्तों के भूखे रहना। एक जमाना था जब घरों में बनने वाले खाने का पहला निवाला या पहली रोटी कुत्तों की होती थी। पर, आज कोई भी बेजुबान जानवरों को भोजन परोसना नहीं चाहता। कुत्ते जब एकदम खाली पेट होते हैं, तभी लोगों पर टूटते हैं। पार्क या गली में खेलने वाले बच्चों के हाथों अगर कुत्ते थोड़ी सी भी खाने की वस्तु देख लें, तो पीछे पड़ जो हैं, झप्पट्टा मारने से बाज नहीं आते। शहरी क्षेत्रों में आवसीय परिक्षेत्रों का टोटा है, घरों के आंगन सिमट गए हैं, जब आंगन होते थे, तब कुत्तों को लोग खाना डाल देते थे, तब कुत्ते भी एक कोने में बैठकर अपने हिस्से के खाने का इंतजार करते थे। खाने के बाद कुत्ते शांत हो जाते थे। लेकिन अब उनकी भूख इस कदर बढ़ गई है जिससे वह दिनों दिन कटखने हो रहे हैं। जो पालतू कुत्ते घरों में कैद रहते हैं, रस्सियों से बंधे होते हैं और अन्य कुत्तों के मुकाबले और हिंसक हो जाते हैं। रस्सी छुटने भर की देर होती है, हमला करते देर नहीं करते।
बहरहाल, इस मसले पर गंभीरता से विचार करना होगा? घटना घटने पर सिर्फ कागजी प्रयासों के बूते ये विकराल समस्या नहीं सुलझने वाली? केंद्र या राज्य स्तर पर कोई कारगर नीति अपनानी होगी? इस वक्त समूचे भारत में छुट्टा पशुओं की बड़ी समस्या है। कोई ऐसा आवासीय क्षेत्र नहीं बचा है जहां कुत्तों के झुंड न देखे जाते हों? राहगीरों की राहों में मुसीबत बने हुए हैं। गली, मोहल्ले, चौक-चौराहों पर अक्स इनका झुंड रास्ता घेर बैठा होता है। पलक झपकते ही अटैक करने लगते हैं। कुछ महीने पहले दिल्ली में घटी घटना ने भी सबके रोंगटे खड़े कर दिए थे। जहां दो सगे भाइयों को कुत्तों ने चबचबाकर मार डाला था। दिन छिपने के बाद आवारा जानवर और ज्यादा हिंसक हो जाते हैं। इनका गाड़ियों के पीछे भागना और तेजी से भौंकने के चलते कई बार लोग दीवारों से टकराकर दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। घटनाएं हो जाने के बाद ही नगर निगम अधिकारियों की नींदें टूटती है और आवारा कुत्तों को पकड़ने का जोरशोर से अभियान चलाते हैं। अच्छी बात है ऐसा होना चाहिए, लेकिन घटना घटने के बाद ही प्रशासन को चेतना क्यों आती है? उससे पहले भी इस समस्या पर ध्यान दिया जा सकता है। क्यों घटना होने का इंतजार किया जाता है। दरकार यही है कि पशु-अधिनियम कानून का ख्याल रखते हुए, सख्त कदम उठा जाएं।
विधानसभा-2022 के चुनाव में हिंसक और आवारा जानवरों का मुद्दा खूब गमार्या था, यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री ने एक चुनावी सभा में वादा किया था कि सरकार बनने के बाद मवेशियों से फैली समस्याओं का निस्तारण कर दिया जाएगा। समस्या को सुलझाने के लिए सरकारी स्तर पर अब कोई ना कोई कारगर नीति अपनानी ही होगी। पुरानी व्यवस्था को बदलना होगा, चाहे इसके लिए नए कानून बनें, या पूर्व के कानून को प्रभावी बनाया जाए। कटखने पशुओं को पकड़कर कर एकांत शहरों से कहीं दूरदराज क्षेत्रों में लेजाकर सुरक्षित ढंग से रखने की व्यवस्था बनें, उन्हें वहां एंटी रैबीज इंजेक्शन दिए जाएं जिससे उनके भीतर के विषाक्त को नष्ट किया जाए।