Friday, April 26, 2024
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गरीबी पर पीएम का विरोधाभास

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RAJESH MAHESHWARI 2हमारा देश भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। जीवन के हर क्षेत्र में देश नित नए उपलब्धियां हासिल कर रहा है। बावजूद इसके देश में गरीबी की समस्या के समाधान का कोई ठोस फामूर्ला हमारे पास नहीं है। पिछले 75 सालों में कई दलों की सरकारों ने देश की बागडोर संभाली। हर सरकार ने गरीबी खत्म करने की वायदें किए, लेकिन मामूली सुधार ही इस दिशा में दिखाई दिया। अक्सर देश में यह चर्चा होती है कि देश में गरीबी घटी है या बढ़ी है? असल में यह मसला जहां अर्थशास्त्रियों की बहस का मुद्दा रहा है वहीं दूसरी तरफ देश का आम आदमी भी इस सवाल का जवाब जानना चाहता है। खाासकर तब जब आजादी के बाद से ही देश में हर सरकार गरीबी हटाने को अपना मिशन बनाती रही हैं। लेकिन, 75 साल बाद भी यह ऐसी बहस है जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।

पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने राजस्थान के अजमेर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए दावा किया है कि भारत में ‘अति गरीबी’ खत्म होने के बहुत निकट है। विपक्ष प्रधानमंत्री के इस दावे को राजनीति और चुनावी जुमलेबाजी के तौर पर ही ग्रहण करेगा। लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री किसी सार्वजनिक सभा में इस बात का दावा कर रहे हैं तो उनके पास उसका पुख्ता आधार और आंकड़ें भी जरूर होंगे।

तभी तो प्रधानमंत्री ने इस प्रकार का दावा दिया किया है। 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनाव जीत लिया था। देश में गरीबी 2023 में भी है। 1956-57 में 21.5 करोड़ यानी 80 प्रतिशत आबादी गरीबी थी। 1973-74 में 55 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आई। 1983 में गरीबी रेखा का आंकड़ा घटकर 45 प्रतिशत पर आया।

1999-2000 में 26 प्रतिशत आबादी गरीब थी। 2011-12 से 21.9 प्रतिशत आबादी गरीबी में रह रही है। गरीबी रेखा का यह आंकड़ा आखिरी बार 2011-12 में ही जारी किया गया था. यानि उसके बाद सरकार की तरफ से गरीबी का आंकड़ा जारी नहीं किया गया है।

पीएम के बयान का घोर विरोधाभास यह है कि आज भी करीब 22 करोड़ भारतीय ‘गरीबी रेखा’ के तले बताए जाते हैं। भारत सरकार कोई अधिकृत आंकड़ा देने की बजाय छिपाती रही है। वैसे 2022-23 के दौरान गरीब की जनगणना जारी है। कुछ आंकड़े सार्वजनिक भी हो सकते हैं, लेकिन यह जनगणना 2024 तक चलेगी।

तब तक आम चुनाव हो चुके होंगे और नई सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी होगी! भारत में गरीबी के वे आंकड़े सामने हैं, जो आवधिक श्रम बल सर्वे के जरिए सार्वजनिक हुए हैं या संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम अथवा सीएमआईई सरीखे पेशेवर संगठनों की रपटों ने उद्घाटित किए हैं।

गरीबी-रेखा के तले जीने वालों की संख्या अधिक होनी चाहिए, क्योंकि कोरोना महामारी के बाद ही 5.60 करोड़ भारतीय गरीबी-रेखा के नीचे चले गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 15 सालों में 41.5 करोड़ (415 मिलियन) लोग गरीबी के चंगुल से बाहर निकले हैं।

संयुक्त राष्ट्र ने सोमवार को जारी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में 2005-06 से 2019-21 तक गरीबी उन्मूलन की दिशा में ऐतिहासिक बदलाव हुआ है और यहां गरीबों की संख्या में 41.5 करोड़ की कमी हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के लिए 2020 के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर, दुनिया भर में सबसे ज्यादा गरीब लोग (228.9 मिलियन यानी कि 22.8 करोड) हैं, इसके बाद नाइजीरिया (2020 में लगभग 96.7 मिलियन) हैं।

रिपोर्ट के अनुसार विकास के बावजूद भारत की आबादी कोविड महामारी के प्रभाव और बढ़ते खाद्यान्न, ऊंची ऊंची ईंधन कीमतों से जूझ रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पोषण और ऊर्जा की किल्लतों से जुड़ी समस्याओं पर काम करना सरकार की प्राथमिकता सूची में बरकरार रहना चाहिए। भारत में आंकड़ों पर बहस चलती रहती है। पिछले साल आई वर्ल्ड बैंक की एक स्टडी के मुताबिक 2011 में 22.5 फीसदी गरीबी थी जो 2019 में घटकर 10.2 फीसदी रह गई।

यह आंकड़ा आईएमएफ के डेटा से मेल नहीं खाता है। अमेरिका का जाने माने ब्लॉगर-इकनॉमिस्ट नोह स्मिथ ने वर्ल्ड पॉवर्टी क्लॉक और द वांशिंगटन पोस्ट के एक चार्ट का हवाला देते हुए एक चार्ट ट्वीट किया है। इसके मुताबिक भारत में छह साल में गरीबी में भारी गिरावट आई है। 2016 में गरीबों की आबादी 12.4 करोड़ थी जो 2022 में 1.5 करोड़ रह गई है।

पिछले साल लोकसभा में सरकार ने गरीबी को लेकर आंकड़े बताए हैं जो हैरान करने वाले हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने गरीबी से जुड़े सवाल का जवाब देते हुए बताया कि देश की 22 फीसदी आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है। जबकि देश की आजादी के वक्त करीब 80 फीसदी आबादी गरीब थी। लेकिन अगर प्रतिशत के इन आंकड़ों को निकाल दें तो पता चलता है कि जिस वक्त देश आजाद हुआ उस वक्त 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रह रहे थे और आज ये आंकड़ा 26.9 करोड़ लोगों का है।

देश में करीब 43 करोड़ श्रमिक हैं। उनमें आधे से कम को ही नियमित रोजगार नसीब है। देश की आबादी 142 करोड़ से ज्यादा हो गई है और विश्व में सर्वाधिक है, लेकिन करीब 41.01 करोड़ लोग ही ‘नौकरीपेशा’ हैं। यह संख्या घट रही है और बेरोजगारी की दर बढ़ कर 8 फीसदी को पार कर चुकी है।

आंकड़ों में पूर्वाग्रह भी संभव हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय का मानना है कि 18 फीसदी आबादी अब भी गरीब है। यदि इन संक्षिप्त विवरणों का विश्लेषण किया जाए, तो ‘अति गरीबी’ के समापन की संभावनाओं पर सवाल दिखाई देंगे। प्रधानमंत्री एक मोटा-सा खाका देश के सामने पेश कर सकते थे कि ‘अति गरीबी’ चरणबद्ध तरीके से कैसे खत्म हो सकती है।

देश में खरबपतियों की संख्या 160 से ज्यादा हो गई है, लेकिन इसी देश में 50 फीसदी महिलाओं में ‘खून की कमी’ है। औसतन 6-23 माह की उम्र के सिर्फ 11 फीसदी बच्चों को ही पूरा भोजन नसीब है। शेष कुपोषित और बीमार हैं। बालिग उम्र की 35 फीसदी आबादी को ही नियमित काम उपलब्ध है। शेष दिहाड़ीदार, मजदूर और अनियमित कामगार हैं।

इसमें मनरेगा की जमात भी शामिल है, जिसे मजदूरी भी समयानुसार और नियमित नहीं मिलती। इन विरोधाभासों को क्या कहेंगे? बेशक यह खबर सुखद है कि 2022-23 में हमारी आर्थिक विकास दर 7.2 फीसदी रही है। विश्व में यह सबसे अधिक और तेज विकास दर है। फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी मात्र एक फीसदी विकास दर हो तरस रहे हैं। भारत चीन से डेढ़ गुना आगे है। जापान भी पीछे छूट गया है।

कृषि की अप्रत्याशित विकास दर 5.5 फीसदी सामने आई है, तो 80 फीसदी तक निजी निवेश होटल क्षेत्र में आया है। कपड़ा, सीमेंट, इस्पात में भी निवेश बढ़ा है। सबसे ज्यादा 14 फीसदी बढ़ोतरी दर होटल-टे्रड क्षेत्र में दर्ज की गई है।मैन्यूफैक्चरिंग, निर्माण, खनन और रियल एस्टेट आदि क्षेत्रों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है, लेकिन सवाल है कि इस विकास और अर्थव्यवस्था के विस्तार का फायदा देश के आम आदमी तक क्यों नहीं पहुंचता, ताकि उसकी गरीबी कम हो सके?


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