तीन नवंबर की सुबह 8.30 बजे मेरठ में एक्यूआई 369 था जो दोपहर पौने दो बजे 451 तक पहुंच गया। नोएडा में सुबह ही ये 500 रहा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगले दो तीन दिन के अंदर हालात और विकट होंगे। दिल्ली में पांचवी तक के स्कूल दो दिन के लिए बंद कर दिए गए हैं। अब मेरठ के हालात में भी दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा के मुकाबले ज्यादा अंतर नहीं है। बहुत संभव है कि आने वाले समय में मेरठ में भी स्कूल बंद करने पड़ें। कई और ऐसे ही एहतियाती कदम उठाने पड़ें। डॉक्टर अभी ही सुबह शाम लोगों को टहलने न निकलने की सलाह दे रहे हैं। निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी गई है। बीते दिनों नीर फाउंडेशन ने मेरठ के होटल हारमनी इन में नदियों के पुर्नजीवन में समाज और कानून की भूमिका पर एक सेमिनार कराया। इसमें आए एनजीटी के जज डॉ. अफरोज अहमद ने साफ तौर पर कहा, ‘एनसीआर में पराली से प्रदूषण की बात किसानों को बदनाम करने की बात है। ये फिजिक्स का फार्मूला है। पंजाब में पराली जलाने से दिल्ली में असर पड़े, ये मैं तो नहीं मानता। पराली से मल्चिंग करके हम खाद बना सकते हैं। एनर्जी पिलेट्स बना सकते हैं। जो होटल्स में इस्तेमाल हो सकते हैं। किसानों को बदनाम करने के बजाय तकनीक का प्रयोग करें और विकल्प दें। दुनिया में सब संभव है।’ डॉ. अफरोज अहमद तकनीकी रूप से प्रशिक्षित पर्यावरण विशेषज्ञ हैं। वह संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए भी सेवाएं दे चुके हैं। उन्होंने पर्यावरण रक्षा पर इंग्लैंड, स्वीडन, चीन और जापान में भी प्रशिक्षण लिया है। उन्हें पर्यावरण संरक्षण का तीन दशक का ज्यादा अनुभव है।
हापुड़ के एक किसान ने इस सेमिनार में एनजीटी के दो जजों के सामने बहुत ही बुनियादी सवाल उठाया। किसान ने कहा कि जिस तरह से पराली जलाने पर सेटेलाइट की तस्वीरें देख पुलिस किसान को पकड़कर थाने ले जाती है तो क्या उसी तरह से नदियों में खनन करने वालों, उनके बेसिन में बहुमंजिला इमारतें बनाने वालों, शहरों में कचरे का पहाड़ खड़े करने वालों और जंगलों को नष्ट करने वालों की निगरानी नहीं हो सकती। किसान के सवाल यहीं नहीं खत्म हुए। उसने कहा कि जो कीटनाशक जीवन के लिए खतरा हैं और प्रतिबंधित हैं उनका इस्तेमाल क्यों नहीं रोका जा रहा। एनसीआर में दिन रात शहरीकरण हो रहा है। खेती की सोना उगलने वाली लाखों एकड़ जमीन पर प्लॉट कटे पड़े हैं। इनमें न कोई मकान बना है और न ही खेती हो रही है। शायद किसान का इशारा मेरठ की जागृति विहार एक्सटेंशन, शताब्दीनगर, वेदव्यासपुरी जैसी योजनाओं की ओर था, जहां हजारों एकड़ जमीन बंजर बर्बाद पड़ी है। आउटर रिंग रोड का निर्माण शुरू होने के बाद तो यहां खेतों में प्लॉट कटने का सिलसिला और तेज हो चला है।
बीते तीन वर्ष के अंदर एनसीआर में वाहनों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। शायद लोगों को सार्वजनिक परिवहन तंत्र में भरोसा नहीं रह गया है। अधिकांश शहरों के अंदर की सड़कें वाहनों की संख्या के आगे बेहद संकरी हैं। वाहनों का धुआं और एसी लगातार जहर उगलते हैं। मेरठ में भी दिल्ली की तरह कचरे के पहाड़ खड़े हो गए हैं। अधिकांश कस्बों, शहरों का यही हाल है। कई जगह इनमें आग लगी है। हाईवे, एक्सप्रेसवे, रैपिड रेल और विभिन्न आवासीय योजनाएं लाखों पेड़ों की बलि ले चुकी हैं। शहरों के अंदर सीवरेज सिस्टम चौपट है। भवन निर्माण में मानकों का खुला उल्लंघन हो रहा है। शहरों और कस्बों की अपनी क्षमता है। किस शहर में कितनी आबादी को झेलने की क्षमता है इसका आकलन कर ठोस योजना बनाने की आवश्यकता कभी किसी को महसूस नहीं होती। घर-घर शौचालय तो बन गए हैं पर सुबह के वक्त तंग गलियों में उनके पाइपों से निकलने वाली गैस और गंदे पानी की वजह से सांस लेने में भी तकलीफ होती है। ये सब किसी सेटेलाइट या विशेषज्ञ को दिखाई नहीं दे रहा। अभी तीन दिन पहले एक मित्र ने कहा कि ये पराली का क्या इलाज है। जहां से वो रोज गुजरते हैं वहां कूड़े के पहाड़ में कई दिन आग लगी रही पर उन्होंने सवाल नहीं किया। नालों पर लगे एसटीपी कागजों में 24 घंटे चलते हैं। कई नदियों की मौत हो गई है जबकि कई वेंटिलेटर पर हैं। नदियों की जमीन में बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो रही हैं। काली, हिंडन कृष्णा जैसी स्थानीय नदियों में पानी की जगह फैक्टरियों का जहर बह रहा है। कुछ जगह फैक्टरियों का ये जहर पाइपों के जरिये भूगर्भ में उतारा जा रहा है। न हवा साफ है और न पानी। जिम्मेदार इन सब पर कार्य करने के बजाय ये साबित करने में जुटे हैं कि प्रदूषण के लिए पंजाब की पराली जिम्मेदार है।
डॉ. अफरोज अहमद ने कहा, ‘आप जो भी अपने चारों तरफ देखते हैं वही पर्यावरण है। इसमें हवा और पानी न हो तो जीवन का अस्तित्व संभव नहीं। झीलें, नदियां, पहाड़, समंदर और वन जिंदगी के लिए जरूरी हैं। कुदरत ने जो भी चीजें बनार्इं, उनके पीछे बड़ा भारी साइंस है। पहाड़ इसलिए बनाए कि वहां से नदियों की उत्पत्ति हो और वो अपने आंचल में सारे पानी को समेटकर झीलों, तालाबों , पोखरों को भरते हुए समंदर में जा सके। अगर ये नदियां न हों तो समंदर का वजूद संभव नहीं। हर चीज का अपना महत्व है। अगर समंदर नहीं होता तो हम भी नहीं होता। दुनिया का 60 फीसदी कार्बन समंदर में है। समंदर की छोटी छोटी वनस्पतियों में है। जो जीव समंदर के तलछट में हैं उनमें भी कार्बन है। अगर समंदर खत्म हो जाएगा तो जीवन ही खत्म हो जाएगा। इसके बाद जमीन और उस पर मौजूद वनस्पतियों का सिलसिला शुरू होता है। वनस्पतियां सिर्फ हरियाली के लिए नहीं हैं। सिर्फ आॅक्सीजन के लिए नहीं हैं। ये सारे कार्बन को अपनी पत्तियों, टहनियों, जड़ों में समाहित करती हैं। जहरीले कार्बन को अपने अंदर संचित करके आपको आॅक्सीजन देती हैं। अगर आप जंगल नष्ट कर देंगे तो हवा और पानी दोनों ही खत्म होंगे। जरूरी है कि वनस्पतियों के बारे में भी सोचें। दुनिया को समग्रता में देखें टुकड़ों में नहीं। इसलिए चाहे जंगल हो चाहे पानी हो, नदियां, तालाब, झीलें, पोखर, समंदर हों या जीव जंतु या वनस्पति हों यही सब पर्यावरण हैं। इनमें मानव का जो हस्तक्षेप है वही सब इकोसिस्टम बनाते हैं। अगर किसी एक में भी छेड़छाड़ हो जाए तो पूरा इकोसिस्टम प्रभावित होता है। जैसे शरीर में मोटी नसों से छोटी नसें जुडी होती हैं वैसे ही नदियों से छोटी नदियां, झीलें, पोखर जुड़े होते हैं। ग्लेशियर का पानी नदी को ज्यादा दूर तक जीवित नहीं रख सकता। बारिश का पानी झीलों, छोटी नदियों के जरिये बड़ी नदियों को जिंदा रखता है। हमने जिस तरह से नदियों की जमीन में पटटे काटे हैं, बहुमंजिला इमारतें खड़ी की हैं, वे इनकी हत्या के समान है।’
हालात चिंताजनक हैं। अगर समय रहते पर्यावरण को बचाने के लिए ठोस नीति नहीं बनाई। पुख्ता कानून बनें और उन्हें सख्ती से लागू किया जाए। इसमें समाज साथ खड़ा हो इसके लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाए जाएं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर कुछ करने का वक्त नहीं बचेगा।