लिव-इन रिलेशनशिप अर्थात ‘स्वैच्छिक सहवास’ को हमारे देश में कानूनी मान्यता हासिल हो चुकी है। भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को 1978 में कानूनी मंजूरी मिली थी। उस समय बद्रा प्रसाद बनाम डायरेक्टर आॅफ कंसॉलिडेशन नामक एक मुकदमे में सर्वोच्च न्यायलय ने पहली बार लिव-इन रिलेशनशिप को वैध ठहराया था। इसके बाद 2010 में महिलाओं की सुरक्षा पर चर्चा करते हुए लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता दी गई थी। कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद लिव-इन रिलेशनशिप पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं। लिव-इन रिलेशनशिप कानून के पक्षधर इसे मूलभूत मानवीय अधिकारों और लोगों के व्यक्तिगत जीवन के विषय के रूप में देखते हैं तो वहीं दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग इस व्यवस्था को भारतीय सामाजिक और नैतिक मूल्यों के विरुद्ध मानता है। यह वर्ग इसे गैर पारंपरिक,अनैतिक यहां तक कि अधार्मिक भी मानता है। जबकि अदालत अपने निर्णय में स्पष्ट कर चुकी है कि लिव-इन रिलेशनशिप को पर्सनल आॅटोनॉमी यानी व्यक्तिगत स्वायत्ता के चश्मे से देखने की जरूरत है, ना कि सामाजिक नैतिकता की धारणाओं से। लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों को अदालतें यही कहकर संरक्षण देती रही हैं कि ये विषय संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ की श्रेणी में आता है। सर्वोच्च न्यायालय तो यहां तक कह चुका है कि शादीशुदा होने के बावजूद लिव-इन रिलेशनशिप में रहना भी कोई गुनाह नहीं है। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शादीशुदा व्यक्ति ने तलाक की कार्रवाई शुरू की है या नहीं। निश्चित रूप से अदालत का यह फैसला उन मानवाधिकारों की तजुर्मानी करता है, जिसके तहत किसी भी बालिग व्यक्ति को अपने जीवन व भविष्य के बारे में निर्णय लेने का अधिकार हासिल है। जाहिर है जब किसी बालिग को अपनी मर्जी का कपड़ा पहनने, खाने-पीने, अपने शैक्षिक विषय चुनने, अपना कैरियर चुनकर भविष्य निर्धारित करने जैसे सभी अधिकार हासिल हैं, फिर उसे अपना जीवन साथी चुनने जैसा महत्वपूर्ण निर्णय लेने का भी हक होना चाहिए। क्योंकि यह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय है।
सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 के ऐसे ही एक मामले में फैसला देते हुए कहा था कि बालिग होने के बाद व्यक्ति किसी के साथ रहने या शादी करने के लिए आजाद है। परन्तु इसी दौरान लिव-इन रिलेशनशिप में ही रहने वालों से सम्बंधित कई खबरें ऐसी भी आ चुकीं हैं जो घोर अपराधपूर्ण तथा रिश्तों में विश्वासघात या धोखा साबित हुर्इं। कहने को तो यह नकारात्मक स्थितियां उस वैवाहिक रिश्तों के बाद भी सामने आती हैं जिन्हें पारंपरिक विवाह या अरेंज मैरिज कहा जाता है। परंतु यह भी सच है कि सामाजिक व धार्मिक परम्परानुसार होने वाली शादियों में आने वाले किसी भी उतार-चढ़ाव के समय परिवार व समाज बच्चों के साथ खड़ा होता दिखाई देता है। लिव इन रिलेशन शिप में ऐसा नहीं हो पाता। क्योंकि लिव-इन रिलेशनशिप को हमारे देश की परम्पराओं व मान्यताओं के अनुसार अनैतिक माना गया है। इसलिये प्राय: लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के इच्छुक लड़के या लड़की दोनों ही के परिजन इस रिश्ते में रहने के लिये शुरू से ही राजी नहीं होते। जबकि अदालत ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के संदर्भ अपने एक फैसले में यहां तक कह चुकी है कि इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सामाजिक ढांचे में शादी अहम है, लेकिन कुछ लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखते और प्री-मैरिटल सेक्स को सही मानते हैं। आपराधिक कानून का मकसद यह नहीं है कि लोगों को उनके अलोकप्रिय विचार व्यक्त करने पर सजा दें। लिव-इन-रिलेशनशिप के खिलाफ सबसे अधिक धार्मिक व सामाजिक संगठन तथा खाप पंचायतें मुखरित रही हैं। गत वर्ष चरखी दादरी में आयोजित फोगाट खाप की सर्वजातीय महापंचायत में हिंदू मैरिज एक्ट में बदलाव करने और लिव इन रिलेशनशिप पर रोक लगाने के लिए सर्वसम्मति से फैसला लिया गया था और सरकार से इन मामलों में संज्ञान लेने की मांग की गई थी। साथ ही यह निर्णय भी लिया गया था कि खाप द्वारा सामाजिक ताना-बाना बनाए रखने व समाज में एकजुटता लाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। इस पंचायत में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जन जागरूकता अभियान शुरू करने को लेकर भी कई अहम फैसले लिए गए थे । पंचायत में प्रतिनिधियों ने लिव इन रिलेशनशिप से सामाजिक ताना-बाना बचाने व लिव इन रिलेशनशिप जैसे मामलों पर प्रतिबंध लगवाने की मांग की गयी थी । इसी तरह पिछले दिनों एक बार फिर जींद जिले की 23 खाप पंचायतें इकठ्ठा हुई। 23 खापों की महापंचायत में भी यही निर्णय लिया गया कि लिव इन रिलेशनशिप पर बना कानून सही नहीं है।
अदालत ने जिस तरह सामान्य शादी शुदा जोड़ों को उनके कर्तव्यों व अधिकारों के मद्देनजर कानूनों के माध्यम से संरक्षण प्रदान किया है ठीक उसी तरह लिव इन रिलेशन में रहने वाले जोड़ों को तथा उनके बच्चों के अधिकारों को भी अपनी विस्तृत व्यवस्था देकर संरक्षित किया है। किसी बालिग के मानवाधिकार व निजी जिंदगी के नाम पर मिले इस अदालती संरक्षण के बावजूद हमारा भारतीय पारम्परिक समाज चाहे वे खाप पंचायतें हों, साधू संत, धर्म गुरु या मौलवी-काजी किसी भी धर्म के परम्परावादी लोग लिव-इन-रिलेशनशिप की इस व्यवस्था को पचा नहीं पा रहे हैं। यही वजह है कि लिव इन रिलेशन व्यवस्था के पक्ष में अदालती कानून बनने के बाद भी इसका विरोध अभी भी जारी है।