Thursday, May 22, 2025
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पुस्तक पढ़ने की संस्कृति का देना होगा बढ़ावा

Nazariya 1


PRAMOD DIXITलेख की शुरुआत मैं मनोशिक्षाविद् विलियम हॉल के एक वाक्य से करता हूं जिसमें वह कहते हैं कि यदि हम बच्चों को बोलना सिखाते होते तो वे शायद कभी बोलना नहीं सीख पाते। इस वाक्य के एक सिरे को पकड़ कर यदि हम स्कूलों में बड़ों द्वारा सिखाये जा रहे ‘पढ़ना’ का संदर्भ ग्रहण करें तो पाते हैं कि पढ़ना अपने मूल अर्थबोध के प्रकटीकरण से इतर केवल छपी सामग्री के वाचन तक सीमित कर दिया गया है। जबकि पढ़ना केवल स्कूली शिक्षा की पाठ्यपुस्तकें पढ़ पाने के सीमित अर्थ के दायरे से बाहर किसी व्यक्ति के अस्तित्व की पहचान है, स्व: की यात्रा है। पढ़ना बंधनों से मुक्ति का मार्ग है, आनन्द की पीयूष धारा में आत्मा का अवगाहन है। लक्ष्य का संधान है तो नवल ऊर्जा का अनुसंधान भी। क्रांति का ज्वार है तो लोक का रागात्मक प्यार भी। पढ़ना स्वयं को गढ़ना है और मानवता का उत्तुंग शिखर चढ़ना भी। स्कूलों में पढ़ना सिखाना दरअसल एक पीड़ादायक अनुभव है जो उबाऊ, यांत्रिक, अर्थहीन एवं परंपरागत खांचे में सिमटी एक अंतहीन जटिल प्रक्रिया है। वास्तव में स्कूल पढ़ने की संस्कृति के प्रवाह में एक बड़ी बाधा के रूप में खड़े नजर आते हैं। हमारी विद्यालयी एवं सामाजिक व्यवस्था; स्कूली ढांचा, परीक्षा प्रणाली और अभिभावकों के सपनों के इर्दगिर्द घूमती, बच्चों में परम्परागत ‘रटना’ प्रणाली को बढ़ावा देने वाली है, जो पाठ्यपुस्तकों के तथ्यों, सिद्धांतों, संदर्भों को रटने और परीक्षा में ज्यों का त्यों उगल देने की हिमायती है।

असल में बच्चों द्वारा पढ़ने से उपजे उनके मौलिक विचारों, अनुभवों, कौशलों, दृष्टिकोण एवं उनके स्थानीय ज्ञान और कल्पना के लिए स्कूल में कोई जगह नहीं बचती है। स्कूल जो बच्चों के सीखने, नया रचने-गुनने एवं गढ़ने और जीवन में आगे बढ़ने का एक प्रेरणा स्थल होना चाहिए था बजाय उसके वह एक नीरस, अनुत्साही एवं गतिहीन व्यवस्था के रूप में पहचाना जा रहा है। फलत: बच्चे साहित्य की पुस्तकों की विराट दुनिया से परिचित ही नहीं हो पाते और पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वोपरि मान केवल किताबी कीट बन कर रह जाते हैं।

यही कारण है कि बच्चे स्कूलों में खुश नहीं हैं। उनके चेहरों पर बाल सुलभ हंसी और जीवन से चंचलता गायब है। वे पढ़ने के आनन्द से वंचित सदैव तनाव की चादर ओढ़े गुमसुम एक यंत्रमानव की भांति व्यवहार कर रहे हैं। क्योंकि पढ़ना न केवल विचार देता हैं बल्कि दृष्टि और जारूकता भी। साथ ही पाठक को लगातार अद्यतन भी करता रहता है। इसीलिए कहा गया है कि कोई व्यक्ति नागरिक के रूप में संवैधानिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का पालन भली-भांति तभी कर सकेगा जब वह पढ़ सकने में समर्थ होगा। पढ़ने का आशय केवल वाचन से नहीं है अपितु शब्दों के अर्थबोध के जुड़ने से है। बच्चे अपने आसपास की दुनिया में देखे-सुने जाने वाले शब्दों से अपने मतलब के अर्थ तलाशने में कुशल होते हैं। पढ़ना किसी शब्द के अर्थ का विस्तृत प्रकटीकरण है, आनंद का उत्साह है परंतु दुर्भाग्य से स्कूली शिक्षा में बच्चों के आनंद की चाह की अनदेखी की जाती है।

पढ़ने की आदत का बीजारोपण बचपन में ही कर देना श्रेयस्कर होता है। स्कूल और परिवार इस आदत को विकसित करने की दिशा में अपनी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि स्कूलों के पुस्तकालयों में कैद किताबों को अलमारियों से मुक्त कर बच्चों के हाथों तक पहुंचने दिया जाए। फटने एवं खोने के डर से स्कूल किताबों को बच्चों को दूर रखते हैं, जो पढ़ना सीखने की दिशा में एक बड़े बाधक के रूप में उपस्थित होता है। कक्षा कक्ष में भी एक अलमारी में कुछ किताबें रखी जा सकती हैं। डोरियों में उन्हें लटकाया जा सकता है जिन्हें देखकर बच्चों में उन तक पहुंचने और छूने की ललक पैदा हो सके। पढ़ने की रुचि पैदा करने के लिए पुस्तकालय संचालन की जिम्मेदारी बच्चों की टोली को दी जा सकती है जो पुस्तकों के रखरखाव के साथ ही बच्चों को किताबें निर्गत और जमा कर सकें। इसके साथ ही बच्चों द्वारा पढ़े जा रही पुस्तकों पर उनके बीच परिचर्चा हो सकती है।

उनके अनुभव प्रार्थना स्थल में या अन्य किसी बड़े समूह में सुने जा सकते हैं। उनसे संक्षिप्त समीक्षाएं लिखवाई की जा सकती है और यदि स्कूल में दीवार पत्रिका पर काम किया जा रहा हो तो उनके अनुभवों को स्थान दिया जा सकता है। इससे बच्चों में पढ़ने की ललक, उत्साह तो पनपेगा ही साथ ही उत्तरदायित्व, सामूहिकता, सुनने एवं अभिव्यक्ति का कौशल भी विकसित होगा जो उन्हें एक बेहतर नागरिक के रूप में विकसित होने में मदद करेगा। परिवारों में प्राय: जन्मदिन एवं अन्य छोटे-मोटे उत्सव खूब मनाए जाते हैं जिनमें उपहार आदि भेंट किए जाते हैं। विचार करें कि क्या बच्चों को केक, मिठाई, खिलौने, कपड़ों के साथ ही उपहार में पुस्तकें नहीं दी जा सकतीं? घरों में अखबार के साथ ही नियमित रूप से कोई पत्रिका मंगवाई जा सकती है। पुस्तक मेलों में बच्चों को लेकर जाया जा सकता है, जहां वे पुस्तकों की एक बड़ी दुनिया से रूबरू हो पढ़ने की संस्कृति का हिस्सा बन सकें।

इस तरह धीरे-धीरे बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित होगी और वे पढ़ने को दैनंदिन जीवन का अंग बना सकेंगे, जो उनके लिए बहुत जरूरी भी है। इसके साथ ही सरकारों को भी चाहिए की ग्राम पंचायत स्तर पर लघु पुस्तकालय विकसित करने की दिशा में पहल करें। इसमें नव साक्षरों के साथ ही युवाओं, महिलाओं और प्रतियोगिता संबंधित साहित्य रखा जा सकता है, जहां से सहजता के साथ ग्रामवासी पढ़ते हुए पढ़ने की संस्कृति में छाये संकट का समाधान खोज सकें। ‘पढ़ना’ संस्कृति को बढ़ावा देना जरूरी है।


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