Saturday, July 27, 2024
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कभी महकते थे गुलाब, अब मकबरा अबु खस्ताहाल

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  • बचा लो विरासत: पुरातत्व विभाग की तंगदिली के कारण कूड़े के ढेर में तब्दील हो रहीं धरोहरें

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: चारों तरफ पेड़ पौधे और फूल, बीच में खूबसुरत रास्ते, उनके दोनों ओर सुर्ख लाल पत्थर से बनी नालियां और उसमें बहता शफ्फाफ (साफ चमकदार पानी)। जी हां यह हसीन नजारे कभी अपने शहर में भी हुआ करते थे। अब इसे मेरठ वालों की बदनसीबी कहें या फिर पुरातत्व विभाग की तंगदिली कि उसने शाही जमाने की इन धरोहरों को कूड़े के ढेर में तब्दील होने के लिए छोड़ दिया है।

अपना मेरठ शहर शाही जमाने की न जाने कितनी ही हसीन इमारतों का गवाह है, लेकिन इन धरोहरों की देखभाल न होने के कारण यह अब लुप्त होने की कगार पर हैं। हां यदि पुरातत्व विभाग की नजर ए इनायत यदि इन इमारतों पर अब भी हो जाए तो इनके वजूद को जरूर बचाया जा सकता है।

इन ऐतिहासिक इमारतों में शहर का मकबरा अबु भी शामिल है। देखभाल के आभाव में यह अब पूरी तरह खण्डहर में तब्दील हो चुका है। यहां का आलम यह है कि जहां पहले हसीन नजारे देखने को मिलते थे वहां अब अतिक्रमण के साथ गोबर के उपले पाथे जा रहे हैं।

400 साल से ज्याद पुरान है मकबरे का इतिहास

शाहजहां की सेना के वजीर रहे नवाब अबु मुहम्मद खान व उनके पिता शेख इमाद, जो कि जहांगीर के दरबार में साहिब ए जां (प्रमुख वक्ता) थे। इन दोनों की कब्रें तो इसी मकबरे में हैं। साथ ही उनका पूरा खानदान भी यहीं दफन है, लेकिन देखभाल के आभाव में इनका नामोनिशां तक मिट गया है। पुराने जानकारों के अनुसार इनकी कब्रों पर लगे खुबसूरत पत्थर तक लोग उखाड़ कर ले जा चुके हैं। यह मकबरा शाहजहां की हुकुमत के दूसरे साल में बनकर तैयार हुआ था।

लोग दूर से ही निहारते थे मकबरे की खूबसूरती

लाल पत्थर का यह हसीन मकबरा, हांलाकि आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है लेकिन जब इसका निर्माण हुआ था तब व उसके काफी समय बाद तक इसकी खूबसूरती को लोग निहारते रहते थे। अकबर के जमाने के नवाब खैरंदेश खां की तेहरवीं पीढ़ी के नवाब अफजाल अहमद खां के परिजन बताते हैं कि यह मकबरा मुगल शासन का नायाब नमूना हुआ करता था। संग ए मरमर के हसीन तावीज, जिनपर खूबसूरत नक्काशी हुआ करती थी आज यहां से गायब हैं।

शहजादे जब भी मेरठ आते तो यहां जरूर जाते

शहजादे (बादशाहों की औलाद) जब कभी भी मेरठ आते तो इस मकबरे को निहारने वहां जरूर जाते। यहां की खूबसूरती के चलते वे अपना काफी समय भी यहां गुजारते थे। जानकारों के अनुसार जब इस मकबरे का निर्माण हुआ था तब सौ बीघा जमीन इस मकबरे के लिए वक्फ (आरक्षित) की गई थी, लेकिन अब इस जमीन पर भी कब्जे हो गए हैं।

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