‘उमादे’ उपन्यास की आंचलिक शब्दों से सजी भाषा में उस समय का चित्रण को जीवंत कर दिया, जब स्त्री की शक्ति और मन के ठहराव की मिसाल बना उमादे का निर्णय राजस्थान की धरा पर कभी न मिटने वाली लकीर के समान खिंच गया। पाठक को पन्नों से गुजरते हुए लगता है कि हमारे इतिहास की व्याख्या करते हुए उसका हिस्सा रहीं स्त्रियों की सशक्त सोच और निर्णयकारी समझ को कितना कम आंका गया है? डॉ. फतेह सिंह भाटी के हालिया उपन्यास ‘उमादे’ वाकई यही महसूस करवाता है। स्त्रियों के लिए अपने मान-सम्मान को हर वैभव के ऊपर रखने के सीख देने वाले हालिया बरसों के आंदोलनकारी दौर में उमादे की यह कहानी कई लोगों को हैरान कर सकती है। भारतीय ज्ञानपीठ से आई यह कृति स्त्रीमन की कई दर्द भरी परतों को खोलती है। किसी भी स्त्री के लिए अपने जीवन साथी को किसी स्त्री के साथ बांट लेने से बढ़कर कोई पीड़ा नहीं होती। यह आत्मा और आत्मसम्मान पर पड़ने वाली सबसे बड़ी चोट होती है। इस उपन्यास की रूठी राणी उमादे भटियाणी की कहानी का मूल यही है। राव मालदेव और जैसाणै की राजकुमारी उमादे की यह कहानी विवाह की सेज पर ही नशे में डूबे राजा द्वारा उमादे की दासी भारमली का भोग करने से प्रारम्भ होती है। निरंकुश सोच, कामुक व्यवहार और स्त्रीमन (पत्नी) की पीड़ा और सम्मान को ना समझने वाले महाराज के व्यवहार में शारीरिक सुख से जुड़े मर्यादाहीन व्यवहार के दोहराव का बने रहना उमादे को सख्त निर्णय की ओर ले जाता है। रजवाड़ों के घात-प्रतिघात भरे स्वार्थपरक खेल, कटुतापूर्ण संबंधों, छोटी सोच से उपजे वैमनस्य, किलों और महलों में मौजूद कलह और उस दौर में वैवाहिक रिश्तों की सोची समझी रणनीतिक बिसात के बीच जीवन साथी से मिली उपेक्षा और अपमान को नियति न मानकर अपने स्वाभिमान के लिए लड़ जाने वाली उमादे आत्म-निर्वासन का मार्ग चुनती है। उपन्यास में लेखक ने उस समय का जीवंत चित्रण किया है। पात्र हो या घटनाएं, उनका विवरण सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू को भी सहेजे हैं।
मोनिका शर्मा
पुस्तक : उमादे, लेखक : डॉ. फतेह सिंह भाटी, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, मूल्य : 320 रुपये