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सनातन काल से ही मानव खुशियों की प्राप्ति के लिए परेशान रहा है। वह खुशियां हासिल करने की चाहत में बेशुमार प्रयत्न करता है, जमीन-आसमान एक कर देता है। इसके लिए वह अपार धन उपार्जित करता है, सपनों का शीश-महल निर्मित करता है, हीरे- मोती और बेशकीमती जवाहरातों से अपने घर का कोना-कोना भर लेता है, सफलताओं के कलश-कंगूरों पर आरूढ़ होकर इतराता है और छद्म अहंकार से अभिभूत होकर खुद को अन्य से उत्कृष्ट और श्रेष्ठ मानता है। लेकिन मन के किसी कोने में सूना-सा एक जगह तब भी शेष रह जाता है, जिसमें असली खुशियों की उपलब्धि का संसार किसी मृग-मरीचिका की तरह हमें भ्रमित करता रहता है, झुठलाता रहता है।
एक छोटी-सी कहानी है, जिसका कथ्य काफी प्रेरणादायी है। ग्राहस्थ्य जीवन जीने के क्रम में सहसा किसी दिन एक व्यक्ति को इस नश्वर संसार की क्षणभंगुरता से वितृष्णा-सी हो गई। उसे प्रतीत होने लगा कि दुनिया की सारी दौलत सारहीन तथा मिथ्या है। आत्मज्ञान की खोज में वह किसी मध्य रात्रि में घर त्याग कर पलायन करने की कोशिश ही कर रहा था कि तभी उस व्यक्ति के दिल में पास में सोई अपनी पत्नी और दो वर्ष के अबोध पुत्र के प्रति स्नेह एवं आसक्ति की बाती अपने पूरे लौ के साथ जल उठी।
वैरागी का पाषाण दिल अपनों के स्निग्ध स्नेह की मद्धिम आंच से मोम की तरह पिघल उठा। उसकी अंतरात्मा से एक आवाज आई, ‘वत्स! यह क्या पाप कर रहे हो तुम? स्वंय ईश्वर का त्याग कर छद्म आत्मज्ञान की तलाश में मारा-मारा फिरना चाहते हो? मुर्ख हो…. रुक जाओ। परिवार के भरन-पोषण से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है।’ दुनिया की क्षणभंगुरता के यथार्थ ज्ञान से उत्पन्न आकुलता से अभिभूत उस व्यक्ति के उठे हुए कदम क्षण भर के लिए रुक गए। इसी बीच अचानक पास सो रहा बेटा किसी बुरे सपने से डर कर उठ बैठा। किसी आशंका से डर कर मां ने कुछ जादू- टोना किया और उसके सिर के नीचे अपने इष्टदेव की एक तस्वीर रख दी। उसे अपने कलेजे से चिपका लिया और बोली, ‘मेरे लाल, तुम क्यों डर रहे हो? देखों तुम्हारे पास मैं हूं, तुम्हारे पिता हैं….फिर किस बात का भय? निश्चित होकर सो जाओ बेटे।’ मां अपने इकलौते बेटे के सिर पर हाथ फेरने लगी। अपनी मां की प्यार भरी हल्की थपकी की स्निग्ध ममतामयी स्पर्श पाकर अबोध बालक थोड़ी देर में ही गहरी नींद में सो गया। मां भी अपने कलेजे के टुकड़े से चिपककर कब बेसुध होकर सो गई पता नहीं लगा।
थोड़ी देर में ही पुरुष दिल पर पत्थर रखकर अपने घर से बाहर आ गया और फिर लौट कर पीछे नहीं देखा। इस बार भी उसकी अंतरात्मा से एक आवाज आई, ‘मेरा भक्त भी कितना अज्ञानी है! मेरी ही तलाश में निकला है और मुझे ही त्याग कर जा रहा है।’ जीवन के यथार्थ को साफ-साफ लहजे में उकेरती इस कहानी में भाव है, संवेदना है, ममत्व है, आंसू है, तड़प है, व्याकुलता है, और सबसे अधिक जीवन में सच्चे सुख का अनमोल दर्शन छुपा है। अपनों की खुशी में खुश होने, उनकी आंखों में ढलकते आंसू को बेशकीमती मोतियों के रूप में सहेजने की सच्ची कोशिश में ही जीवन का सच्चा सुख निहित होता है।
सनातन काल से ही मानव खुशियों की प्राप्ति के लिए परेशान रहा है। वह खुशियां हासिल करने की चाहत में बेशुमार प्रयत्न करता है, जमीन-आसमान एक कर देता है। इसके लिए वह अपार धन उपार्जित करता है, सपनों का शीश-महल निर्मित करता है, हीरे- मोती और बेशकीमती जवाहरातों से अपने घर का कोना-कोना भर लेता है, सफलताओं के कलश-कंगूरों पर आरूढ़ होकर इतराता है और छद्म अहंकार से अभिभूत होकर खुद को अन्य से उत्कृष्ट और श्रेष्ठ मानता है। लेकिन मन के किसी कोने में सूना-सा एक जगह तब भी शेष रह जाता है, जिसमें असली खुशियों की उपलब्धि का संसार किसी मृग-मरीचिका की तरह हमें भ्रमित करता रहता है, झुठलाता रहता है। खुशियों की प्राप्ति की चाह में हम जितना तेज भागते जाते हैं, सच्ची खुशी और सच्चा सुख हमसे उतना ही दूर होता जाता है। जीवन में सच्ची खुशियों को हासिल करने की हमारी यह त्रासदी उस मृग की बेचैनी और दुविधा से कम नहीं होती है जो कस्तूरी की तलाश में भागे-भागे फिरता है जबकि वही कस्तूरी उसकी नाभि में ही मौजूद होता है।
इस सत्य से कदाचित कोई इनकार नहीं कर पाए कि मानव जीवन में खुशियों की प्राप्ति का रहस्य भी किसी मृग के द्वारा उसी की नाभि में स्थित कस्तूरी को प्राप्त करने की असफल तलाश से कम विचित्र और हैरतअंगेज नहीं है। हकीकत तो यही है कि हमारी सच्ची खुशियों के संसार का केंद्र-बिंदु हमारा परिवार ही होता है, हमारे माता-पिता ही होते हैं, हमारे बच्चे ही होते हैं और हमारे वे सभी अपने ही होते हैं जो किसी-न-किसी रूप में हमारे दु:ख और कठिन परिस्थिति के क्षणों में हमारे लिए सुरक्षा-कवच का कार्य करते हैं। किंतु दुर्भाग्यवश हम यह विस्मृत कर जाते हैं कि परिवार का घेरा, उसकी निकटता का ऐहसास और उसका दामन जीवन की असली कस्तूरी है, खुशियों का गर्भ नाल है। परिवार से विरक्ति से सच्चा सुख कभी भी हासिल नहीं होता है। यदि हकीकत में हम सच्ची खुशी चाहते हैं, सच्चा सुख पाना चाहते हैं तो हमें इसे कहीं और बाहर ढूंढने की दरकार नहीं है-यह प्रत्यक्ष रूप से परिवार के प्रति हमारे सान्निध्य, सहानुभूति, स्नेह, कर्तव्य, उत्तरदायित्व और ममत्व के भाव से ही हासिल हो सकता है।
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