महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। पांडवों ने अपनी विजय के उपरांत अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। सभी ऋषि, मुनियों, साधु, संतों को भोजन ग्रहण करने हेतु आमंत्रित किया गया। भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा, ये यज्ञ तब पूरा माना जाएगा, जब इस धरा के सभी ऋषि यहां भोजन ग्रहण करेंगे और आसमान में घंटा बजेगा। सभी ऋषियों को भोजन करवाया गया, परंतु घंटा नहीं बजा।
पांडवों ने श्रीकृष्ण जी से पूछा की कहां कमी रह गई? भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य दृष्टि से देख कर बताया, दूर एक जंगल में सुपच नाम के संत रह गए हैं, इसलिए घंटा नहीं बजा। तब सभी पांडव स्वयं, संत को निमंत्रण देने गए । परंतु संत सुपच ने शर्त रखी कि वे तब ही जाएंगे, जब उन्हें सौ अश्वमेघ यज्ञों का फल मिलेगा। पांडव परेशान हो कर वापिस आ गए। जब ये बात द्रौपदी को पता लगी तो द्रौपदी ने कहा, मैं जाएंगी संत सुपच को निमंत्रण देने।
तब द्रौपदी ने स्वयं खाना पकाया और नंगे पैर चल कर ऋषि सुपच को बुलाने के लिए गई। संत ने फिर वही शर्त बताई तो द्रौपदी ने कहा, मैंने आप जैसे किसी संत से सुना है कि जब कोई नंगे पैर आप जैसे महान संत के दर्शन करने जाता है, तो उसका एक एक कदम एक एक अश्वमेघ यज्ञ के बराबर है। अत: आप अपने सौ अश्वमेघ यज्ञ का फल लेकर बाकि मुझे दे दें। मुनि सुपच जी ने द्रौपदी की बात सुनकर भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया।
पांडवों ने भगवान कृष्ण से प्रश्न किया, आप तो स्वयं परमपिता परमात्मा हैं, फिर भी आपके भोजन के उपरांत आसमान से घंटा नहीं बजा और एक छोटे से संत के भोजन करने से हमारा अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण हुआ? भगवान कृष्ण ने बताया, मैं काल का ही रूप हूं, मैं जीवन के चक्र से बंधा हुआ हूं, परंतु जन्म मृत्यु के बंधनों से मुक्त होते हैं। संत तो देवताओं को भी शब्द ज्ञान देकर मुक्ति दिलवा सकते हैं। पांडव संत की महिमा सुन कर कृतार्थ हो गए।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा