Tuesday, May 20, 2025
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सांझी स्थापना पर्व: धर्म, कला एवं परंपरा का अनूठा संगम

Samvad 52


डॉ० घनश्याम बादल |

नवरात्र से एक दिन पहले उत्तरी भारत में देवी दुर्गा की पूजा के लिए घर घर में सांझी मैया की मूर्ति लगाई जाती है। संझा होने पर उसे भोग लगाकर पूजा अर्चना की जाती है। एक ओर जहां यह धार्मिक कृत्य वहीं लोक कलाकारी की परंपरा का प्रतीक भी है। गृहणियां अपने हाथों से न केवल मूर्ति बनाती हैं अपितु उसे मनभावन रंगों एवं गहनों से सजाती भी हैं। आइए देखते हैं कैसे आई सांझी की परंपरा और इसके मायने क्या हैं।

नवरात्र में नौ दिन तक लगातार उपवास होते हैं वहीं नौ विभिन्न देवियों और खास तौर पर देवी दुर्गा का पूजन होता है। यूं तो मंदिरों में जाकर पूजन अर्चन के अनेक पर्व हैं पर इस पर्व में सब कुछ घरों में करने के पीछे घर की शुद्धि का भी लक्ष्य रहा होगा सो पूजन भी घर पर ही होता है और पंरंपरागत रूप से देवी की प्रतिमा भी घर पर ही बनाने का रिवाज़ है।

क्या है सांझी पर्व?

घर की कन्याएं मिलकर अपने हाथों से देवी की प्रतिमा बनाती हैं और घर की किसी पवित्र दीवार खास तौर पर उत्तरी या पूर्वी दिशा में गाय के पवित्र गोबर से प्रतिष्ठित किया जाता है। घर मौहल्ले की स्त्रियां मिलकर सांझ के समय उसका पूजन कर उसे भोग लगाती हैं इसीलिए यह प्रतिमा सांझी कहलाती है। आखि रइस धर्म व कला के संवाहक पर्व के पीछे के रिवाज़ व मिथ क्या हैं?

कब से कब तक?

आश्विन प्रतिपदा से आरंभ होकर अंतिम दिवस तक सांझी विभिन्न मोहक आकृतियों को धारण करते हुए अपने पूर्ण निखार से कहीं तो पूरे वर्ष भर सहेज कर दीवार पर रखी जाती और कहीं कहीं नवमी के दिन उसे बहते नदी जल में विसर्जित कर दिया जाता है। दूसरी जगहों पर विवाहित कन्या ससुराल से लौटकर अगले वर्ष अपने हाथों से इसे कतिपय अनुष्ठानों के साथ नदी में विसर्जित कर इस व्रत का उद्यापन करती है। सांझी प्रथम नवरात्र तक दीवार पर स्थापित कर दी जाती है। फिर प्रतिदिन उसकी संध्या व प्रातः काल लोकगीतों के साथ पूजा होती है। गांव गली की कुमारी लड़कियां घर-घर जाकर लोकगीत गाकर ‘चाब’ (रातभर पानी में भिगोए गए चने) लाती है। कहीं कहीं प्रसाद रूप में मुरमुरे या मक्की के दाने आदि भी दिए जाते हैं।

कहां कहां?

सांझी का पर्व प्रमुखतः उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान व पंजाब में मनता है यह वहां की सांझी विरासत, धर्म व लोककला का मनोरम उदाहरण है। यहां यह पर्व आठ या नौ दिन तक चलता है। वैसे सांझी का ऐतिहासिक पक्ष ठोस प्रमाणों के अभाव में केवल लोकगीतों पर आधारित है लेकिन इसमें बालिकाओं के भावी जीवन के लिए मंगलकामना और समृद्धि का सुखद संदेश छिपा है। सांझी को उनके अखंड सौभाग्य का आदर्श माना जाता है।

सांझी के लोकगीत

लोकगीत भारत की मिट्टी में रमे हैं उनके बगैर यहां शायद ही कोई पर्व मनता हो सांझी में लोकगीतों बड़ा महत्व है। सांझी के लोक गीतों में प्रयुक्त प्रवृत्तियां मध्यकालीन सामंती वातावरण की से ली गई हैं। बाल सुलभ चेष्टाओं द्वारा अतार्किक बातों को छोड़कर उन गीतों में देखें तो कई अन्य बातें और भी हैं। यथा-संजा का विवाह बचपन में हुआ है और वह सास के सम्मानजनक पद से अनभिज्ञ है अतः सखियों द्वारा खिझाने पर वह जवाब देती है-

ऐसी दुंगादारी के चमचा की, कराउंगी धमका कै, मैं बैठूंगी गद्दी पे, उके बैठाऊंगी खूंटी पे।

विवाहिताएं अपने विवाह के प्रथम वर्ष के उपरांत सांझी नहीं बनाती। माना जाता है कि इससे अनिष्ट होता है और हो सकता है ऐसा अनिष्ट संजा के विवाह होने के एक वर्ष के अंदर घटित हुआ हो। अब कुछ भी हो पर संजा के मंगल गीतों की आकर्षक भावाभिव्यंजना, रस स्निग्धता व सौभाग्य यही सिद्ध करते हैं कि संजा अपने समय की आदर्श, संस्कारशील सुकन्या रही होगी। संजा के सन्मुख गाए जाने वाले एक गीत से उसके इसी प्रकार के ऐतिहासिक पक्ष पर प्रकाश पड़ता है।

राणा जी की चाकरी कल्याण जी को देस
छोड़ो म्हारी चाकरी, पधारो व्हांका देस।

अनूठी लोक परंपरा व लोककला

अपनी अनूठी लोक परंपरा व लोककला का नमूना सांझी पर्व उत्तरभारत में एक विशिष्ट पहचान रखता है, सांझी लगाने व पूजने का पर्व यहां की गौरवमयी संस्कृति को सुखद बनाता है। कलिका पुराण की मान्यता है कि संध्या व ब्रह्मा के समागम से ही 40 भाव और 69 कलाएं उत्पन्न हुईं। किंतु भाव एवं कला की उत्पत्ति मात्र से एवं नाम साम्य के कारण यह अनुमान भ्रामक होगा अतः सांझी का संध्या से किसी तरह का संबंध प्रतीत नहीं होता।

मिथक

कुछ का कहना है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए खेल-खेल में इस व्रत को प्रतिष्ठापित किया था, तो कुछ कहते हैं कि कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर प्राप्त हो व भविष्य मंगलमय हो इसलिए सांगानेर की आदर्श कन्या ‘संजा’ की स्मृति में यह व्रत किया जाता है। सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं। परम विद्धान पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना रहा कि सांझी का ब्रह्मा कन्या संध्या से संबंध है।

उद्गम

संभवतः सबसे पहले सांझी मालवा, ब्रज, राजस्थान आदि में घुमन्तू जातियों के आगमन से प्रचलित हुई और उसका मूल उद्गम अधिक संभव है अजमेर-सांगानेर से ही हुआ हो। यही लोकधारणाओं पर आधारित उसका ऐतिहासिक पक्ष है। किंतु उसके प्रचलन संबंधी कई प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। संजा के अंतिम दिन बनाए जाने वाले किलाकोट में राजपूत संस्कृति का पूरा प्रभाव है। मध्यकाल में कोट के भीतर ही पूरा नगर बसा होता था, इसलिए जो किलाकोट बनाए जाते हैं उनके पूर्ण प्रबंध का संकेत आकृतियों में होता है। किलाकोट में मीरा की गाड़ी बनाना आवश्यक समझा जाता है, इससे लगता है कि संजा व्रत का संबंध मीरा के द्वारका गमन से है।

कौन थी संजा?

संजा प्रतिष्ठित परिवार की पुत्री थी, जहां उसका पालन पोषण अत्यंत ऐश्वर्य और वैभव के मध्य हुआ। सांझी का मायका सांगानेर नाम में था और विवाह अजमेर में हुआ। सांगानेर कल्याण जी का देश है, जहां राणाजी की चाकरी होती है इसलिए विवाह के बाद कल्याण जी इसे अपनी सेवा से मुक्ति प्रदान कर ससुराल जाने का आग्रह करते हैं।

क्या है प्रयोजन?

सांझी के लोकगीतों माता-पिता, सास-श्वसुर, भाई-भावज, ननद, देवर-देवरानी और ससुराल में ठाट-बाट से गमन आदि की कल्याण कामना से पूर्ण होते हैं। अतिव्यस्तता और आधुनिकता के चलते सांझी लगाने की परंपरा आज शहरों में तो समाप्ति की और है। लोकगीत तो खत्म ही हो गए हैं क्योंकि आज न तो गीत ही याद रहे हैं और न ही उनके लिए समय बचा है। शहरी लोगों को तो यह भी नहीं पता कि सांझी होती क्या है।

मात्र धर्म या कला नही

अपनी लोकसंस्कृति व विरासत को समझने व संरक्षित करने के लिए आज गहन प्रयास किये जाने की जरुरत है, अन्यथा आने वाली पीढ़िया सांझी जैसी परंपराएं भुला बैठेंगीं क्योंकि सांझा न केवल धर्म या कला मात्र नही है बल्कि यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संक्रमित होन वाली परंपरा है जिसमें कन्या की प्रतिष्ठा का भाव छिपा है, मिलकर रहने, पूजने का भाव है सांझी विरासत छिपी है सांझी में। उसे महज एक मिट्टी की मूरत या देवी मात्र न माना जाए बल्कि आज के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की मुहिम से संबद्ध किए जाने की भी ज़रुरत है। तभी यह परंपरा बच पाएगी।


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