एक पूर्णिमा की रात्रि मधुशाला से कुछ लोग नदी-तट पर नौका विहार को गए थे। उन्होंने एक नौका को खेया। अर्धरात्रि से प्रभात तक वे अथक पतवार चलाते रहे। सुबह सूरज निकला, ठंडी हवाएं बहीं तो उनकी मधु-मूर्च्छा टूटने लगी। उन्होंने सोचा कि अब वापस लौटना चाहिए। यह देखने के लिए कि कहां तक चले आए हैं, वे नौका से तट पर उतरे। पर तट पर उतरते ही उनकी हैरानी की सीमा न रही, क्योंकि उन्होंने पाया कि नौका वहीं खड़ी है, जहां रात्रि उन्होंने उसे पाया था! रात्रि वे भूल ही गए थे कि पतवार चलाना भर पर्याप्त नहीं है, नौका को तट से खोलना भी पड़ता है। आज संध्या यह कहानी कही है। एक वृद्ध आए थे। वे कह रहे थे, मैं जीवन भर चलता रहा हूं, लेकिन अब अंत में ऐसा लगता है कि कहीं पहुंचना नहीं हुआ। मनुष्य मूर्छित है। स्व-अज्ञान उसकी मूर्छा है। इस मूर्छा में उसके समस्त कर्म यांत्रिक हैं। इस विवेकशून्य स्थिति में वह ऐसे चलता है, जैसे कोई निद्रा में चल रहा हो, पर कहीं पहुंच नहीं पाता है। नाव की जंजीर जैसे तट से बंधी रह गयी थी, ऐसे ही इस स्थिति में वह भी कहीं बंधा रह जाता है। वासना से बंधा मनुष्य, आनंद के निकट पहुंचने के भ्रम में बना रहता है। पर उसकी दौड़ एक दिन मृग-मरीचिका सिद्ध होती है। वह कितनी ही पतवार चलाए, उसकी नाव अतृप्ति के तट को छोड़ती ही नहीं है। वासना स्वरूपत: दुष्पूर है। प्रत्येक मनुष्य को जानना चाहिए कि आनंद के, पूर्णता के, प्रकाश के सागर में नाव छोड़ने के पूर्व तट वासना की जंजीरें अलग कर लेनी होती हैं। इसके बाद तो फिर शायद पतवार भी नहीं चलानी पड़ती है! रामकृष्ण ने कहा है, ‘तू नाव तो छोड़, पाल तो खोल, प्रभु की हवाएं प्रतिक्षण तुझे ले जाने को उत्सुक हैं।’
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