आत्माराम यादव
शिवसंकल्पमस्तु, ऋषिमुनियों ने सिद्धान्त बनाया है कि मे मन:
शिवसंकल्पमस्तु। मन एव मनुष्याणां कारण वैधमोक्षयों:।
मनुष्यों का मन ही उनके स्वतंत्र एवं परतंत्र का कारण है, उत्तम सुसंस्कारों से शद्ध मन धारण करनेवाला मनुष्य स्वतंत्र सुख अर्थात मुक्ति का आनन्द प्राप्त करते हैं। शरीर रूपी इस उत्तम रथ में जीवात्मा दसघोड़ों से युक्त है तथा आत्मा प्रवासी है। इन अमृतमयी वचनों से द्वारका शारदीय पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री सदानन्दजी सरस्वती ने अपनी वाणी की शुरुआत की। शिवसंकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम के संस्थापक पण्डित गिरमोहन गुरु द्वारा जब जगदगुरू स्वामी सदानन्द सरस्वती जी को परिषद की ओर से धर्मावतार की उपाधि से सम्मानित कर उस सम्मानपत्र का पण्डित गिरिमोहन गुरू द्वारा वाचन किया गया गया तब परिषद के बैनर/लेटरहेड के शीर्ष पर शिवसंकल्पमस्तु महामंत्र का प्रथम उद्घोष सवाकरोड़ शिवलिंग निर्माण समिति के साक्षी बने सभी जनमानस के कानों तक पहुंचा, किंतु इसका भावार्थ जगद्गुरुजी की वाणी से प्रगट हुआ तब सभी मंत्रमुग्ध हो श्रवण कर अपने को धन्य समझने लगे, किंतु मेरा मन एक लोभी की भांति अपनी कृति देहकलश उनके करकमलों से विमोचित किए जाने पर मुझे प्राप्त हुए यश के अहंकार से भरा हुआ था, तभी मैं भी शिवसंकल्पमुस्तु का संकल्पवान बन अपने मन के विकारों से खुद मुक्त होेने को तत्पर हुआ हूं।
जगदगुरु स्वामी सदानन्द जी ने शिवसंकल्पमस्तु अर्थात शिव का संकल्प लेने वाले मनुष्य की भावदशा की विवेचना करते हुए कहा कि संकल्पवान के समक्ष कभी भी संकुचित भाव और भय नहीं आते, वह उच्च भावना से परिपूर्ण भयंकर से भयंकर मुसीबत या भय का प्रसंग का सामना बिना किसी से सहायता प्राप्त किए कर सकता है। हर घोर परिस्थिति में शिव संकल्पवान के लिए धैर्य उसका सच्चा मित्र एवं विजय उसके पिता होते हैं, क्योंकि शिवसंकल्प उसके मन की अंतस गहराइयों में शिव मंगलमय परमेश्वर का शुभसंकल्प की अलौकिक ज्योति को जाग्रत रखता है। जगद्गुरु स्वामी जी ने यजुर्वेद का उदाहरण देते हुए कहा कि इसके अध्याय चौंतीस के एक लगायत 6 मंत्र में मन के तत्वज्ञान की बातें हैं, जो शिवसंकल्पमस्तु का वास्वविक परिचय देती हैं और इन मंत्रों को मन में धारण करने वाला सभी कल्याणकारी संकल्पों से युक्त होकर खुद कल्याण को प्राप्त होता है, वहीं उसके प्रभाव में रहनेवालों का भी कल्याण होता है।
शिवसंकल्पवान दूरगामी, प्रकाशमान, प्रकाश का प्रवर्तक व अकेला प्रकाशमान मन से युक्त कल्याणकारी संकल्पों से युक्त होता है और ऐसे ही मनीषीगण यज्ञादि कार्य सम्पन्न कर यजमानों में आदरणीय होते हैं जिनकी गणना सभी प्राणियां में ज्ञानमय, चैतन्य, धैर्यमय व अमृतस्वरूपा की होती है, जिसके बिना कोईकार्य संभव नहीं कहा गया है। ऐसे शिवसंकल्पी भूत,भविष्य एवं वर्तमान को ग्रहण कर पुरोहितोंं से यज्ञ को विस्तारित करते हैं, जिसे ठीक उसी प्रकार माना गया है जैसे रथ में घोडे जुते होते हैं वे ज्ञान इन्द्रिय के पांच अश्व नासिका, जिव्हा, नेत्र, त्वचा एवं कर्ण है वही कर्मइन्द्रिय के घोडों में पांव, उपस्थ, मुख, गुदा एवं हाथ कहे गए है ओर इस रथ के चार पहिये ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामवेद और यजुर्वेद हैं, जिसके सभी मंत्र कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हैं। जिस प्रकार अच्छा सारथी घोड़ों को नियंत्रण में रखता है, निर्धारित स्थान पर ले जाता है, वैसे ही जो मनुष्यों को नियंत्रण में रखता है, उन्हें निर्धारित स्थान पर ले जाता है, जो हृदय में प्रतिष्ठित है, जो अजर है, जो गतिमान है, वह कर्ता मन है जो शिवसंकल्पमस्तु से युक्त होने पर कल्याणकारी है।
वेद का उत्तम उपदेश है मे मन: शिवसंकल्पमस्तु। शरीर रथ है, आत्मा-आत्मबुद्धि रथी है और मन इनका सारथी है। शरीर रूपी इस उत्तम रथ में जीवात्मा बैठा है और उसरथ को दस घोड़े खींच रहे है। मन रथ का सारथी है और आत्मा प्रवासी हैं और जीवात्मा इस रथ का स्वामी है जहॉ वास्तव में उसको जाना है, उसी मार्ग से रथ की यात्रा होती है। यदि मन रूपी सारथी शराब, पीकर उन्मुक्त हो तो उसके दसों घोड़े अपने मार्ग बदलकर भटकने लगेंगे, तब शरीर और प्रवासी आत्मा की क्या दशा होगी, यह समझना होगा। शिवसंकल्पवान को इसका ज्ञान होता है तभी उसका मन, कुमार्ग पर नहीं जाता, उसकी इन्द्रियॉ उसके मन को संचालित नहीं करती, वह मन और इन्द्रियों का स्वामी स्वयं होता है। काम,क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार उसे ढिगा नहीं सकते है और उसका आचरण सदैव वैदिक धर्म के शुभनियमों के अनुकूल होता है। अनुकूल और प्रतिकूलताओं का साक्षी रहा शिवसंकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम के संस्थापक पण्डित गिरिमोहन गुरू गोस्वामी जी ने शिवसंकल्पमस्तु को परिषद का मुकुटमणि बना इस समाज में साहित्यक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामाजिक सेवाओं की अलख जगाने वाले एक हजार से अधिक विभूतियों को सम्मानोपाधि से अलंकृत करने का महायज्ञ शिवसंकल्पमस्तु की कल्याणकारी देशना में स्वयं को समर्पित कर रखा है।
वेद कहते हैं, भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षसुत ऋतुम। ऋग्वेद 10/25/1 अर्थात मन को शुभ विचारमय, दक्षता से युक्त और पुरुषार्थ से उत्साही बनाएं फिर आपके पास दुख कदापि नहीं होगा। मन को सत्कर्म में लगाना उत्तम उपाय है, जो कुव्यवहारों में अपना कदम बढ़ाते है वे अपना समय व्यर्थ गंवाने के साथ अश्लील, निंदा से भरे, व्यर्थ गपोड़ों के मिथ्या-भ्रमित लेखों को विभिन्न प्लेटफार्मों पर पढ़ने में अपनी आयु, प्राण,नेत्रों, वाणी, मन और आत्मा, ज्ञान तेज, सहित स्वत्व आदि सबकुछ विनाश की ओर ले जाते हैं। शुभ विचार, शुभ उच्चार और शुभ आचार ये तीन प्रमुख सूत्र हैं, जो श्रेष्ठता के मार्गगामी हैं, जिनसे उत्पन्न निश्चय शिवसंकल्पमस्तु में परिणित हो एक प्रतिज्ञा बनती है और शिव संकल्पवान शक्तियों से परिपूर्ण हो जाता है जिसकी शक्ति सर्वत्र सुवासित होती है।