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राज सक्सेना |
यूं तो महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना के बाद एनसीपी में हुयी भारी टूट का सबसे अधिक प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से महाराष्ट्र में ही पड़ा है किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से देश के विपक्ष की पूरी राजनीति प्रभावित हुयी है। विपक्षी एकता की धुरी बन चुके बिहार के तो सभी दलों की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और रणनीतिक सोच पर बहुत अधिक असर पड़ा है। जून में पटना में नितीश कुमार के भगीरथ प्रयत्नों के चलते हुयी विपक्षी महा गठबंधन की बैठक में लालू यादव की मुखर सक्रियता के चलते सारी कमान अपने हाथ में लेकर कमान का दूल्हा राहुल गांधी को घोषित कर दिए जाने से नितीश कुमार की आशा लता पर तो तुषारापात हुआ ही है, जेडीयू और आरजेडी में मनभेद भी हुआ लगता है।
देश की राजनीतिक गतिविधियों पर पैनी नजर रखने वाले लोग इन दिनों बिहार की राजनीति पर भी बहुत सूक्ष्म दृष्टि रख रहे हैं और वह महसूस कर रहे हैं कि इन दिनों जब से महाराष्ट्र की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में टूट हुई है। तब से नीतीश कुमार की अव्यक्त बेचैनी बढ़ती जा रही है और उनकी असाधारण चुप्पी कुछ नई गतिविधि का आभार दे रही है। इससे पहले इसमें सबसे पहले यह भी सोचा जा रहा है कि भाजपा को हटाने के लिए हो रही विपक्षी दलों की गोलबंदी में नीतीश को लालू यादव के सक्रिय हो जाने के कारण वह भाव नहीं मिल पा रहा है जिसके लिए उन्होंने कोशिश करके अपना स्थान बनाया था।
विपक्षी दलों की गोलबंदी की कल्पना को नीतीश ने ठोस आकार दिया था। वे विपक्षी दलों के विभिन्न नेताओं से मिले, उनके अंदर यह विश्वास जागृत कर दिया कि अगर भाजपा के एक के सामने विपक्ष का भी एक ही प्रत्याशी हो तो 2024 में केंद्र की सत्ता से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदाई कोई बहुत कठिन कार्य नहीं होगा बल्कि उसे आसानी से किया जा सकता है। नीतीश भले ही ना नुकुर कर रहे हो, फिर भी उनके समर्थकों की अपेक्षा थी कि उन्हें विपक्षी एकता में महत्वपूर्ण भूमिका मिलेगी? प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित करना बाद का विषय हो सकता है। नीतीश को तत्काल संयोजक या समन्वयक पद दिया जा सकता था। 23 जून की बैठक के बाद विपक्षी एकता के अभियान के लिए जो प्रयास चल रहा है, उसमें नीतीश की भूमिका नहीं रह गई है जिसकी अपेक्षा वे कर रहे थे। अगली बैठक बेंगलुरु में होगी यह घोषणा भी एनसीपी के नेता शरद पवार के माध्यम से हुई है।
इधर कुछ और घटनाएँ भी हुयी हैं, जिससे नीतीश की बेचैनी बढ़ी है, इनमें से एक है सरकार में शामिल राजद कोटे के कुछ मंत्रियों का आचरण। शिक्षा मंत्री डॉ चंद्रशेखर और विभागीय अपर मुख्य सचिव केके पाठक के बीच खड़े हुए विवाद से भी नीतीश की बेचैनी बढ़ी है। मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप से ऊपरी तौर पर यह मामला शांत तो हुआ है मगर खत्म नहीं हुआ है। घटक दल कई तरह से सरकार पर दबाव बना रहे हैं। बिहार लोक सेवा आयोग के माध्यम से स्कूली शिक्षकों की नियुक्ति के निर्णय का, विपक्षी दल ही नहीं सरकार के समर्थक वामदल भी विरोध कर रहे हैं। जून में मंत्री स्तर पर अधिकारियों के जो स्थानांतरण और पदस्थापन हुए हैं। इसमें भी मनमानी की शिकायतें हुयी हैं।
भारतीय राजनीति में अपने बल पर लंबे समय से खुद को केंद्रबिंदु बनाए रखने वाले शरद पवार जिन्होंने कांग्रेस से अलग होकर जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को खड़ा किया, वही अब उनके हाथ से लगभग निकल चुकी है। उनके भतीजे और लंबे समय तक विश्वासपात्र रहे अजित पवार के राजनीतिक विद्रोह के चलते शरद पवार के समक्ष राजनीतिक अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। कुछ समय पहले एक प्रकार से सक्रिय राजनीति में सीमित भूमिका निभाने की घोषणा कर देने वाले पवार को अब सक्रियता के साथ राजनीतिक रण में उतर कर भतीजे से मुकाबला करना पड़ रहा है। इससे पहले महाराष्ट्र में शिवसेना भी दो बार टूट हो चुकी है। स्वभाविक है कि राज्य की राजनीति पर तो इन विभाजनों का असर पड़ेगा ही अपितु राष्ट्रीय राजनीति पर भी इसके असर की अनदेखी संभव नहीं है।
राकांपा में टूट की गूंज दूर तक सुनाई पड़ रही है। महाराष्ट्र के ही कांग्रेसी खेमे में भी खलबली की खबरें हैं। परिणामत: कांग्रेस, राकांपा और शिवसेना में बना एमवीए गठबंधन अब समाप्त सा हो गया है। यदि यह तीनों पार्टियां मजबूती और एकता के साथ चुनाव लड़ती तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकतीं थी। उत्तर प्रदेश के बाद सर्वाधिक लोकसभा सीटें 48 महाराष्ट्र में ही हैं और देश की सबसे समृद्ध और बड़ी नगर निकाय बीएमसी जिसका बजट कई प्रदेश सरकारों से भी बड़ा है, महाराष्ट्र में है।
महाराष्ट्र में लोकसभा, बीएमसी और विधानसभा के चुनाव होने हैं। उन पर भी इस बदले हुए राजनीतिक घटनाक्रम का असर निश्चित रूप से पड़ेगा। राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा झटका तो भाजपा के विरुद्ध विपक्षी दलों की राजनीतिक एकता के प्रयासों को लगेगा। खासतौर से शरद पवार खुद को बड़ी अजीब सी स्थिति में पा रहे होंगे। जो स्वयं को विपक्षी एकता का अलमबरदार मानकर मस्त थे, अब पार्टी और चुनाव चिन्ह को बचाने की के लिए जूझ रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है. पारिवारिक स्तर पर चलने वाले राजनीतिक दलों में यह टूटफूट काफी पहले से चलती आ रही है। जब शीर्ष नेतृत्व के सामने पार्टी में उत्तराधिकार तय करने की स्थिति आती है तो नेतृत्व अपने रक्त संबंधी बेटे या बेटी को ही कमान सौंपता है। इससे वे खुद को ठगे और उपेक्षित महसूस करने लगते हैं जिन्होंने पार्टी को शीर्ष तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होती है।
इन दलों में मुखिया की बात ही दैविक आदेश होती है। इससे पहले बालठाकरे के समय विभाजित हुई शिवसेना भी इन्ही कारणों से विभाजित हो चुकी है। शिवसेना में बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने जब देखा कि पार्टी की कमान उद्धव ठाकरे को सौंपी जा रही है तो उन्होंने शिवसेना से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बना ली। अभी हाल में जब ऐसा लगने लगा कि उद्धव ठाकरे अपने बेटे आदित्य ठाकरे के राजतिलक की तैयारी कर रहे हैं तो एकनाथ शिंदे जैसे उन नेताओं का उन से मोहभंग हो गया जिन्होंने खून पसीने से पार्टी को इस शीर्ष पर पंहुचाया था। एचडी देवगौड़ा ने अपने बेटे कुमारस्वामी को आगे बढ़ाया तो सिद्धारमैय्या पार्टी छोड़ गए। मुलायम सिंह यादव के दाहिने हाथ शिवपाल सिंह यादव को भी अखिलेश यादव के कारण अलग होना पड़ा। द्रमुक में पार्टी पर नियंत्रण के लिए खासा लंबा संघर्ष चला और आखिरकार एमके स्टालिन ने करुणानिधि की विरासत हस्तगत कर ली।
उल्लेखनीय है कि भाजपा ने भले ही भ्रष्टाचार, वंशवाद और भाई-भतीजावाद को लेकर जनता में जागरूकता तो पैदा करदी है मगर यही मुद्दा भविष्य में उसके गले की फांस भी बन सकता है। एनसीपी की टूट इसका ताजा उदाहरण है। अजित पवार के धड़े वाले, शिवसेना के विद्रोही गुट के साथ मिल कर भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त बाहरी नेताओं के आने से पार्टी में आंतरिक असंतोष भी उत्पन्न हो सकता है क्योंकि उन्हें खपाने के लिए कई बार पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं के हितों की कटौती कर दी जाती है। भाजपा को इस बिंदु पर सोचकर ही अब कोई अगला कदम उठाना चाहिए।
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