Friday, December 27, 2024
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मानसिक तनाव से भी हो सकता है पेट का अल्सर

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अल्सर के रोगी की चिकित्सा में सबसे बड़ा पहलू उसकी भोजन व्यवस्था का होता है। रोगी को इस प्रकार का भोजन देना चाहिए जिससे आमाशय व डियोडिनम को पूरा आराम मिले और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जो पैदा हो रहा है, उसे जल्दी ही भोजन द्वारा निराकृत किया जा सके। रोगी का भोजन ऐसा होना चाहिए जो पेट के जख्मों को चोट नहीं पहुंचाए बल्कि उन जख्मों को भरने में पूरी मदद करे।

आमाशय व उसके नीचे की ओर लगे आंत के हिस्से (डियोडिनम) में होने वाले व्रण को अल्सर कहा जाता है। इसे एक घातक बीमारी माना जाता है। भोज्य पदार्थों, आहार विहार आदि की अव्यवस्था के कारण आमाशय का अल्सर हुआ करता है। अल्सर होने का प्रमुख कारण भोजन में प्रोटीन का न होना भी होता है। प्रोटीन के न होने से अधिकतर भीतरी झिल्ली की पूरी तरह से मरम्मत नहीं हो पाती है।

लगभग रोज गरिष्ठ, पक्का भोजन, सख्त और जल्दी-जल्दी भोजन खाने, मिर्च मसाले का अधिक प्रयोग आदि के कारण ही क्षतिग्रस्त झिल्लियों में रगड़ तथा अधपचे पदार्थों के भार से आमाशय पर अतिरिक्त कार्यभार पड़ जाता है। इस कारण क्षतिग्रस्त स्थान पर अधिक चोट पहुंचती है। पेट के अल्सर का यही सबसे बड़ा कारण माना जाता है।
आमाशय में भोजन को पचाने के लिये हाइड्रोक्लोरिक एसिड और पेप्सिन का निर्माण होने लगता है तो आमाशय की सतह इस अम्ल से अपनी रक्षा नहीं कर पाती।

इससे गैस्ट्रिक अल्सर हो जाता है। डियोडिनम (पक्वाशय) का अल्सर तब होता है जब बहुत से पाचक रसों के निर्माण से डियोडिनम की सतह क्षतिग्रस्त हो जाती है। अधिक चाय, काफी, बीड़ी, सिगरेट, शराब, पान-मसाले अथवा अन्य नशीले पदार्थों और एस्प्रिन के ज्यादा प्रयोग करने से भी ऐसा होता है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार पेट का अल्सर वंशानुगत कारणों से भी हो सकता है। रक्त ग्रुप ‘ओ’ होना भी इसका कारण हो सकता है। अल्सर के अन्य कारणों में मानसिक तनाव भी एक है। अधिक मानसिक तनाव से आमाशय के अवयवों की रक्त कोशिकाओं में सिकुड़न पैदा हो जाती है जिससे वहां पूरा रक्त पहुंच नहीं पाता है। फलस्वरूप अल्सर हो जाता है।

अल्सर होने के लक्षण विशेषकर इस बात पर निर्भर करते हैं कि अल्सर किस भाग में है। पेप्टिक अल्सर में उल्टी, जी मिचलाना, पेट में जलन, दर्द का होना, आदि दिखाई देता है। पक्वाशय के अल्सर में पेट में ऊपर दायें भाग में जोरों का दर्द उठता है। यह दर्द तब उठता है जब पेट खाली रहता है। दर्द अधिकतर मध्यरात्रि को ज्यादा परेशान करता है।

पक्वाशय अल्सर के रोगी के पेट एवं छाती में बेचैनी होने लगती है, जलन होती है, खट्टी डकारें आती हैं, मुंह में खटास पैदा हो जाती है। यह दर्द प्राय: कुछ खाने के बाद अथवा ठंडा पेय पदार्थ से कुछ देर के लिए रुक जाता है। रोगी के मल के साथ रक्त भी निकलने लगता है।

आमाशय व्रण में प्राय: दर्द भोजन करने के बाद ही शुरू होता है। इस कारण रोगी भोजन ग्रहण करने से घबराता है। अगर व्रण बढ़ जाता है और आमाशय सिकुड़ जाता है तो बार बार उल्टी की भी शिकायत होने लगती है। इस स्थिति में उल्टी के साथ रक्त भी आने लगता है। अल्सर का पता लगाने के लिये ‘बेरियम एक्स-रे’ या ‘एंडोस्कोपी’ नामक विशेष विधि को अपनाया जाता है।

इस विधि में एक उपकरण एंडोस्कोप के माध्यम से खाने की नली, आमाशय और आंत के भीतर की प्रत्यक्ष जांच की जाती है। इसमें अंगुली के बराबर मोटी ट्यूब को मुंह के रास्ते पेट के भीतर डालकर अल्सर की जांच की जाती है। इस परीक्षण में पांच-दस मिनट का समय लगता है। रोगी को इस जांच से किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होता। पेट से अम्ल निकालकर नापा जाता है और अल्सर को पहचान लिया जाता है।

अल्सर के रोगी की चिकित्सा में सबसे बड़ा पहलू उसकी भोजन व्यवस्था का होता है। रोगी को इस प्रकार का भोजन देना चाहिए जिससे आमाशय व डियोडिनम को पूरा आराम मिले और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जो पैदा हो रहा है, उसे जल्दी ही भोजन द्वारा निराकृत किया जा सके। रोगी का भोजन ऐसा होना चाहिए जो पेट के जख्मों को चोट नहीं पहुंचाए बल्कि उन जख्मों को भरने में पूरी मदद करे।

भोजन में प्रोटीन की मात्र विशेष महत्व रखती है, क्योंकि प्रोटीन के अभाव में ही यह रोग होता है। विटामिन ‘सी’ भी नियमित देना चाहिए ताकि जख़्म जल्दी भर सकें। विटामिन ‘बी’ वर्ग व आयरन देने से चयापचय ठीक होता है, रक्त बढ़ता है और मानसिक संतुलन बना रहता है। इसके परिणाम स्वरूप तांत्रिक दर्द नहीं उठता है।

भोजन की मात्रा थोड़ी-थोड़ी व सात से आठ बार में देनी चाहिए। प्रारम्भ में दूध, मलाई को देना चाहिए। इससे हाइड्रोक्लोरिक एसिड निराकृत हो जाता है। फलों का रस विशेष रूप से देते रहना चाहिए। इसकी मात्रा 2-2 औंस तक प्रति दो घंटे के अंतर से देनी चाहिए। रोगी की हालत सुधरने पर साबूदाना, सूजी, पतला दलिया भी देना शुरू कर देना चाहिए।

रोगी को मक्खन, टोस्ट, दूध, कार्नफलेक्स, पतली खीर आदि भी दिए जा सकते हैं। रोगी की स्थिति में सुधार आने पर घुटी हुई दाल, हरी सब्जियां, जैली, आइसक्रीम  आदि भी शुरू कर देनी चाहिए। एक महीने तक ऐसा ही भोजन देने के बाद पनीर, छेना, फल, दालें समुचित मात्र में शुरू करनी चाहिएं।

अल्सर के रोगियों को खुराक को थोड़ी थोड़ी मात्रा में ही देते रहना चाहिए। मिर्च मसाले, ककड़ी और प्याज का सेवन रोगी को बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इन सबके साथ ही मानसिक तनाव से हमेशा मुक्त रहना आवश्यक होता है। यह बीमारी लाइलाज नहीं है अत: रोगियों को संपूर्ण धैर्य के साथ चिकित्सक की सलाह के अनुसार औषधि एवं शल्यक्रिया के लिए स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए।

आनंद कुमार अनंत


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