Thursday, May 15, 2025
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अजन्मे बच्चे पर सुप्रीम कोर्ट

Samvad


RAJESH MAHESHWARI 2सुप्रीम कोर्ट ने छब्बीस सप्ताह का गर्भ गिराने की मांग करने वाली याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी है कि चूंकि भ्रूण का विकास सामान्य है इसलिए उसे जन्म लेना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि बच्चे की स्थिति एक दम सही है और उसे जन्म मिलना ही चाहिए। अदालत कह चुकी है कि महिला यदि चाहे तो पैदा होने वाले बच्चे को सरकार को सौंप सकती है। इसी मामले की सुनवाई के दौरान कुछ दिन पहले सीजेआइ ने कहा था कि बेशक मां की स्वायत्तता बड़ी है, पर यहां अजन्मे बच्चे के लिए कोई भी पैरवी नहीं कर रहा है जो उसके अधिकारों की बात कर सके। सुप्रीम कोर्ट के सामने बड़ा मुद्दा था। यह प्रेग्नेंसी 24 हफ्ते से ऊपर चली गई थी। अब हमारा जो कानून है वह 24 हफ्ते तक गर्भपात कराने का अधिकार देता है। कानून महिला को इस दौरान पूरा अधिकार देता है कि वह तय कर सकें कि बच्चे को रखना है या नहीं अगर 24 हफ्ते से ऊपर यानी 26 वीक या 28 वीक के केस आते हैं, जहां गर्भ में पल रहे शिशु के लाइफ की उम्मीद ज्यादा बढ़ती जाती है तो वहां पर सुप्रीम कोर्ट के सामने महत्वपूर्ण सवाल आया कि हम क्या करें? क्या हम महिला के आर्टिकल 21- राइट टू लाइफ को मानें जिसके तहत महिला कहती है कि उसके पास अधिकार है कि वह बच्चे को रखे या नहीं, या उस अजन्मे बच्चे को रखना है जहां इस केस में मेडिकल एक्सपर्ट की राय आई कि जो बच्चा है उसकी लाइफ है, वो लिविंग भ्रूण है। वह अगर बाहर आएगा तो बहुत चांसेज इस बात के हैं कि वह जिंदा रहेगा। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हम दिल की धड़कन को नहीं रोक सकते। अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल पूर्ण न्याय करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन इसका इस्तेमाल हर मामले में नहीं करना चाहिए। यहां डॉक्टरों को भ्रूण की समस्या का सामना करना पड़ेगा। उचित समय पर एम्स द्वारा डिलीवरी कराई जाएगी। यदि दंपति बच्चे को गोद लेने के लिए छोड़ना चाहते हैं तो केंद्र माता-पिता की सहायता करेगा। बच्चे को गोद देने का विकल्प माता-पिता पर निर्भर करता है।

मामले की सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंसाल्वेस ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय कानून में आज अजन्मे बच्चे या अजन्मे भ्रूण का कोई अधिकार नहीं है। यह यूके और कोलंबिया की अदालतों सहित पांच संवैधानिक अदालतों का निर्णय है। पिछले 12 वर्षों में सरकार की एक गाइडलाइन के माध्यम से भ्रूण हत्या की अनुमति दी गई है और इसे निखिल दातार मामले में निर्धारित किया गया था। सभी गर्भपात से भू्रण की मृत्यु हो जाती है क्योंकि यह बच्चे के दिल को स्थिर कर देता है। इस पर सीजेआई ने कहा कि तो आप कह रहे हैं कि यदि कोई महिला 33 सप्ताह में आती है तो उसे गर्भपात की अनुमति दी जानी चाहिए.. तो बच्चे की असामान्यताएं या मां के लिए जोखिम के बावजूद.. एक सप्ताह पहले भी वह बच्चे से छुटकारा पा सकती है?

सुनवाई के दौरान एडवोकेट ने कहा कि हमें धारा 5 में जीवन की उदार और उद्देश्यपूर्ण व्याख्या करने की आवश्यकता है। इस पर सीजेआई ने कहा, आप कह रहे हैं कि फिजिकल लाइफ को खतरा नहीं है। लेकिन हां मानसिक जीवन भी एक हिस्सा है.. लेकिन यहां यह तात्कालिकता की भावना के बारे में है कि यदि आप गर्भावस्था को समाप्त नहीं करते हैं तो इससे उसके जीवन को खतरा होगा। मुख्य न्यायाधीष ने कहा कि आप कह रहे हैं कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए जीवन की व्याख्या करें… तो आप उसे 35वें सप्ताह में भी यह ओवरराइडिंग पावर देना चाहते हैं.. जो नहीं किया जा सकता। सुनवाई के दौरान सीजेआई ने कहा कि भारत प्रतिगामी नहीं है। सीजेआई ने कहा कि देखें कि में क्या हुआ। देखें कि रो बनाम वेड मामले का क्या हुआ। यहां भारत में 2021 में विधानमंडल ने संतुलन बनाने का काम किया है। अब यह अदालतों को देखना है कि संतुलन बनाने का काम सही है या नहीं। क्या हम इन बढ़ते मामलों में ऐसे कदम उठाने की विधायिका की शक्ति से इनकार कर सकते हैं? हमें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विधायिका को वह शक्ति क्यों देने से इनकार करना चाहिए और क्या हम इससे अधिक कुछ कर सकते हैं? मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि मुझे ऐसा नहीं लगता है कि प्रत्येक लोकतंत्र के अपने अंग होते हैं और उन्हें कार्य करना चाहिए। आप हमें विष्व स्वास्थ्य संगठन के बयान के आधार पर हमारे कानून को पलटने के लिए कह रहे हैं? मुझे नहीं लगता कि ऐसा किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने महिला का अपने ऊपर अधिकार और अजन्मे बच्चे के अधिकारों को लेकर ऐसी चर्चा को जन्म दिया है जिसे लेकर ठोस प्रावधान होना ही चाहिए। गर्भ गिराने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची महिला का कहना था कि मानसिक स्थिति ठीक न होने और कई बीमारियों से जूझने के कारण वह बच्चे को जन्म देने की स्थिति में नहीं है। कानून के मुताबिक 24 सप्ताह से अधिक के भ्रूण को गिराया नहीं जा सकता। यह बात अलग है कि बलात्कार जैसे मामलों में पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने कानून में तय समयावधि से ज्यादा के गर्भ के मामलों में भी गर्भपात की अनुमति दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 21 का जो अधिकार है, वह कोई पूर्ण अधिकार नहीं है उसे कम किया जा सकता है, अगर सामने वाला बैलेसिंग आॅफ इंट्रेस्ट में बात करे कि एक बच्चे का इंट्रेस्ट है कि वह इस पोजीशन में है कि उसे अगर बाहर निकाला जाए तो वह जिंदा बच्चा होगा। तो क्या उसके हार्ट को रोकना सही होगा? या फिर आर्टिकल 21 में उस महिला के अधिकार को बरकरार रखना ही सही होगा? सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दोनों ही अधिकारों को (एक मां और शिशु) बैलेंस किया है। यह फैसला किसी के खिलाफ नहीं है। न ही मां के खिलाफ है और न ही बच्चे के बहुत पक्ष में है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला निश्चित ही मानवीय पहलुओं को ध्यान में रखकर आया है। एक तथ्य यह भी है कि दुनिया भर में गर्भपात के उदार कानून की मांग को लेकर आंदोलन का दौर भी जारी है। खास तौर से यह आंदोलन उन महिलाओं का पक्षधर है जो अवांछित गर्भ ठहर जाने के कारण गैर-कानूनी गर्भपात का सहारा लेकर अपनी जान तक खतरे में डाल देती हैं। एक पक्ष यह भी है कि हमारे देश में शिक्षा के प्रसार के बावजूद खास तौर से ग्रामीण इलाकों में गर्भनिरोधकों के विकल्पों का प्रचार व्यापक नहीं है। न ही ऐसे इलाकों में महिलाएं गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की नियमित निगरानी कर पातीं। ऐसे में बच्चे का सुरक्षित जन्म लेना या फिर विकृत या अक्षम अवस्था में पैदा होने को ईश्वरीय देन ही समझा जाता है। जरूरत है कि देश में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की नियमित जांच की और प्रभावी व्यवस्था हो। मोटे तौर पर सवाल सिर्फ महिलाओं का उनके शरीर पर अधिकार का ही नहीं है बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के जिंदा रहने के अधिकार का भी है। इस तथ्य को भी ध्यान में रखना आवश्यक होगा कि हमारे देश में कानूनी प्रतिबंध के बावजूद कन्या भू्रण हत्या के मामले सामने आते ही रहते हैं। जरूरत इस बात की है कि अजन्मे बच्चों के हकों की भी चिंता की जाए।


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