- पुराने उर्दू दस्तावेजों का हिन्दी में अनुवाद करने के काम में नए लेखक नहीं ले रहे हैं रुचि
- आसपास के कई जिलों में नहीं रह गए इस काम के माहिर, लोगों को आना पड़ता है मेरठ
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: बड़े बुजुर्ग कहते हैं ज्ञान जहां से मिले, हासिल कर लेना चाहिए। बहुभाषी होने के अपने अलग लाभ हैं, लेकिन इस पर अमल करते हुए आज के युवा इसके तकनीक पक्ष को नजरअंदाज कर रहे हैं। ऐसा ही उर्दू भाषा पढ़ने वालों के साथ हो रहा है, जो उर्दू में संग्रहित किए गए पुराने भू-अभिलेखों को पढ़ने और इनका हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करने में नाकाम हो रहे हैं।
इस काम को करने वाले मेरठ कचहरी में दो बुजुर्ग दस्तावेज टाइपिस्ट ही रह गए हैं, जिनके पास काम कराने के लिए आसपास के कई जिलों से लोगों को आना पड़ता है। दुखद पहलू यह है कि इनके पास उर्दू दस्तावेजों का अनुवाद करने की कला सीखने के लिए भी कोई नहीं आ रहा है। जिसको देखते हुए यह सवाल स्वाभाविक है कि कहीं कचहरी उर्दू अनुवादकों की यह आखिरी पीढ़ी होकर न रह जाए।
हनुमान मंदिर के सामने वाले प्रमुख प्रवेश द्वार से मेरठ कचहरी में प्रवेश करते हुए थोड़ा आगे चलकर बायीं ओर खुले शेड के नीचे एक बुजुर्ग टाइपिस्ट जहीरुद्दीन बैठते हैं। जिन्होंने अपनी मेज के सामने वाले हिस्से में उर्दू अनुवादक के साथ नाम का छोटा सा बोर्ड लगा रखा है। जहीरुद्दीन बताते हैं कि वे 1975 से कचहरी परिसर में टाइपिंग का कार्य कर रहे हैं।
उनका कहना है कि उर्दू भाषा को पढ़ना-लिखना और उर्दू भाषा में लिखे हुए खसरा-खतौनी, बैनामे, वसीयत, इकरारनामे आदि दस्तावेजों की भाषा को पढ़ना, समझना और अनुवाद करना अलग विषय है। इन दस्तावेजों के अनुवाद में बेहद सावधानी की आवश्यकता होती है।
वैसे भी किताब में प्रिंट और हाथ से लिखे गए लफ्जों में बहुत अंतर होता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि हाथ से लिखे हुए दस्तावेजों में वर्णित शब्दों को समझने के लिए एक लंबे अनुभव की जरूरत होती है। जहीरुद्दीन बताते हैं कि बागपत, गाजियाबाद समेत कई जिलों में उर्दू अनुवादक नहीं रह गए हैं।
इन जिलों के लोगों को जब पुराने उर्दू में लिखे दस्तावेजों का अनुवाद कराना होता है, तो उन्हें मेरठ ही आना पड़ता है। इनके अनुवाद किए गए दस्तावेज पर मोहर लगा दी जाती है। कुछ लोग नोटरी भी करा लेते हैं। जिसके बाद अनुवादित दस्तावेज अदालतों में मान्य होते हैं।
जहीरुद्दीन से थोड़ा आगे मो. नईम अंसारी का ठिकाना है, तो 1971 से कचहरी में टाइपिंग का काम करते हैं। नईम अंसारी बताते हैं कि किसी समय कचहरी परिसर में केसी नीलम, लताफत अली, हरपाल पटवारी, जमशैद अली, राजाराम आदि पुराने उर्दू दस्तावेजों का अनुवाद करने का काम किया करते थे।
लेकिन उम्र पूरी होने के साथ-साथ सभी दुनिया से कूच कर गए। अब जहीरुद्दीन और मो. नईम अंसारी ही उर्दू दस्तावेजों का काम करने के लिए रह गए हैं। दिल्ली के कनाट पैलेस में एक नामचीन उर्दू अनुवादक अब्दुल रहीम चश्मे वाले हुए हैं, जिनके बारे में फिलहाल मेरठ के अनुवादकों को कोई अपडेट नहीं है।
मो. नईम अंसारी बताते हैं कि 1971 से काम करते रहने के बावजूद करीब 20 साल बाद जाकर उन्होंने आजाद रूप से उर्दू दस्तावेजों का अनुवाद शुरू किया। उन्हें इस काम में माहिर होने में दो दशक का वक्त लग गया। काफी दिनों तक तो उस्ताद सामने बैठाकर ही अनुवाद कराया करते रहे। जब उन्हें एक-एक तकनीकी शब्द के सही अर्थ की जानकारी हो गई, जब जाकर उस्ताद ने भरोसा करके अनुवाद कराने का काम दिया।
इसके बावजूद किए गए काम को बारीकी से देखकर हर्फ-ब-हर्फ मिलान करने की नसीहत देते रहे। यह उस्ताद की सीख का नतीजा है कि आज दूरदराज से लोग उनके पास काम कराने के लिए आते हैं। उर्दू अनुवाद के माहिरीन जहीरुद्दीन और मो. नईम अंसारी का मानना है कि आज की पीढ़ी के नौजवानों में उर्दू भाषा जानने के बावजूद कई साल तक दस्तावेजों के अनुवाद की बारीकियां सीखने का धैर्य नहीं है।
ऐसे में उर्दू अनुवादकों की नई पीढ़ी तैयार होते भी नजर नहीं आ रही है। आने वाले समय में जब जहीरुद्दीन और मो. नईम अंसारी का जिस्म उन्हें यह काम करने की इजाजत नहीं देगा, तब पुराने उर्दू दस्तावेजों का अनुवाद कराने के लिए शायद दूरदराज तक भटकने की नौबत आ सकती है।
अब किस काम आते हैं दशकों पुराने उर्दू के दस्तावेज!
आजादी से पहले और काफी दिनों बाद तक भी खसरा-खतौनी, बैनामे, इकरारनामे, वसीयत आदि लिखने का काम उर्दू भाषा में किया जाता रहा है। चकबंदी के दौरान बनने वाली खसरा-खतौनी में नए नंबर के बदले में भूमि नई जगह दिए जाने की व्यवस्था की गई। ऐसे में बहुत से मामलों में दावेदारी को लेकर विवाद की स्थिति बन जाती है। ऐसे में पुराने दस्तावेजों में दादा-परदादा के नामों पर दर्ज भूमि का रकबा, नंबर आदि की नकल की जरूरत अदालतों में सुबूत के तौर पर पेश की जाती है।
इसी तरह के मामले पुराने बैनामों से लेकर वसीयत और इकरारनामों के आधार पर अदालतों तक पहुंच जाते हैं। जिनमें उर्दू अनुवादकों की ओर से पेश किए गए मोहर लगे अनुवादित दस्तावेज को मान्यता दी जाती है। कुछ मामलों में पुष्टि के लिए अदालत में अनुवादकों को गवाह के रूप में बुलाकर पुष्टि कर ली जाती है। उर्दू अनुवादक मो. नईम अंसारी बताते हैं कि उनके समक्ष 1889 तक के दस्तावेज अनुवाद के लिए आ चुके हैं।