Friday, November 14, 2025
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त्योहार अब रिश्तों का नहीं रसीदों का है

त्योहारों का मौसम आया है, और साथ में आया है हर घर में खर्च का आतंक। कभी यह समय रिश्तों को जोड़ने, प्रेम और अपनापन बाँटने का होता था। अब यही समय उपहार और दिखावे के हिसाब से तैयारी का बन गया है। सबसे पहले तो बाजार का दृश्य ही कुछ और बताता है। हर दुकान पर भीड़ है, लेकिन कोई मुस्कुराता नहीं, हर चेहरे पर लेन-देन और बजट की गंभीरता है। मिठाई की दुकान पर ग्राहक मिठाई लेने आए हैं या दिखावे के लिए महंगी पैकिंग देखने? पैकिंग देखकर लगता है कि हर मिठाई के साथ खर्च का प्रमाण जरूर जुड़ा होना चाहिए। दुकानदार भी अब केवल बेचने में माहिर नहीं, बल्कि खर्च की गिनती और पैकिंग के मूल्यांकन में निपुण हो गया है।

अब उपहारों का चलन भी केवल खर्च पर आधारित हो गया है। मिठाई, कपड़ा, घड़ी या गहना—हर चीज अब यह तय करती है कि रिश्ते कितने ह्लमहँगेह्व हैं। पुराने समय में जो उपहार दिल से दिया जाता था, अब वही कीमत और ब्रांड के हिसाब से परखा जाता है। रिश्तेदार अब उपहारों की कीमत देखकर संतुष्ट होते हैं, भावनाओं और अपनापन की जगह लेन-देन की तुलना ले चुकी है। त्योहार की तैयारी में घर का वातावरण भी अब खर्च और दिखावे के अनुसार तौलने लगा है। घर की साफ-सफाई, सजावट, लाइटिंग सब केवल दिखावे के लिए महँगी और भड़कीली हो गई हैं।

भोजन भी अब महज खाने का कारण नहीं रहा। मेहमान आते हैं और देखकर ही निर्णय कर लेते हैं कि यह भोज कितना महंगा और भव्य है। कभी त्योहारों में खाने की खुशबू, आपसी बातचीत और हंसी का महत्व था। अब भोजन केवल खर्च और प्रस्तुति के हिसाब से मापा जाता है। बच्चों के लिए तो यह सबसे बड़ा झटका है। उनका त्योहार अब खेल और मस्ती का नहीं, बल्कि उपहारों और पैकेजिंग के मूल्यांकन का बन गया है। गिफ्टों की संख्या और महँगी पैकिंग देखकर वे यह समझते हैं कि खुशी केवल दिखावे और खर्च में छुपी है। बच्चों के चेहरे पर चमक भव्य पैकिंग देखकर होती है।

समाज में भी यह बदलाव साफ नजर आता है। रिश्तेदार एक-दूसरे से मिलने के बजाय उपहार और खर्च की पूरी तैयारी लेकर आते हैं। अब गले मिलने और बातचीत की मिठास की जगह सिर्फ़ पैसे और पैकिंग का मूल्यांकन हो गया है। यही है हमारे त्योहारों का नया रूप—दिखावा प्रधान, प्रेम और अपनापन शून्य। त्योहार आर्थिक लेन-देन का पर्व बन गया है। प्रेम, अपनापन और संगति की जगह अब बजट, रसीद और उपहारों की महंगाई ने ले ली है। कभी रसीद या बिल के बिना भी लोग खुश होते थे, अब यह हर चीज की कसौटी बन गया है। लोग खुद मानते हैं कि जितना महंगा उपहार, उतना प्यार। कम कीमत उपहार अनदेखा किया जाता है। त्योहारों में दिलों की गर्माहट और रिश्तों की मिठास अब केवल खर्च और दिखावे में छुप गई है। हमारी खुशियां अब केवल रसीदों, बिलों और महंगे उपहारों की गिनती में मापी जाती हैं। त्योहार अब केवल दिलों का नहीं, रसीदों और खर्च का पर्व बन गया है।

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