इस्राइल-फलस्तीन समस्या पर कुछ लोग यह मानते हैं कि जिस तरह से इस्राइल एक स्वतंत्र देश बना है, उसी तरह से फलस्तीन नामक एक स्वतंत्र देश अस्तित्व में आना चाहिए। जहां पर फलस्तीनी अरब लोग रह सकें। दोनों पक्षों को एक-दूसरे की परिस्थिति और परेशानियां समझनी होंगी। फलस्तीनी लोगों को समझना होगा कि यहूदियों पर सदियों से अत्याचार हुए हैं और इसीलिए उनको एक अलग देश का अधिकार है और इस्राइल को समझना होगा कि जिस क्षेत्र में अब वह रह रहे हैं, वहां के मूल निवासी फलस्तीनी हैं और इस्राइल ने उन्हीं लोगों को वहां से बेघर कर दिया है। कुछ ऐसी घटनाएं होती है जो इतिहास द्वारा उत्पादित होती है। ठीक ऐसे ही इस्राइल फलस्तीन विवाद को इतिहास का रिसता हुआ घाव कहा जाता हैं। जो त्रुटियां इतिहास ने की आज उसकी सजा पूरा विश्व भुगत रहा है। फलस्तीन के जख़्म से खून धीरे-धीरे रिस रहा है, लेकिन वह हमारी आत्माओं को नहीं छूता। जिस तरह दुनिया का हर मुल्क इस्राइल के साथ गलबहियां करने में एक-दूसरे से प्रतियोगिता कर रहा है, उससे यह साबित होता है कि फलस्तीनियों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। फलस्तीन हमारी आंखों के आगे एक खोते हुए मुल्क का नाम है । उसे न तो जॉर्डन नदी खा रही है और न ही भूमध्य सागर निगल रहा है।उसका गला इस इंसानी दुनिया की बेहिसी और इस्राइल की क्रूरता घोंट रही है।
इस्राइल फलस्तीन विवादों में भारत की स्थिति को देखें तो भारत ने भले ही फलस्तीन को अपनी खोई हुई जमीन को पुन: प्राप्त करने और अपने देश को इस्राइल से स्वतंत्र करने के लिए फलस्तीनी संघर्ष का लगातार समर्थन किया था लेकिन हाल के वर्षों में भारत ने इस्राइल के साथ दोस्ती बढ़ाने की दिशा में एक अलग रूख दिखाया है। वर्ष 2014 में भाजपा सरकार के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। दमन और हिंसा के उसके क्रूर इतिहास को नजरअंदाज कर इज़रायल को एक साहसी राष्ट्र और भारत के मित्र के रूप में पेश किया जा रहा है। भारत ने अपनी आजादी के आंदोलन के दिनों में भी बार-बार फिलस्तीनियों के अधिकार की वकालत की थी, बाद में भी वह उनका हमदर्द बना रहा, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भारत में भी बहुसंख्यकवाद के आक्रामक होने के साथ इस्राइल के प्रति आकर्षण बढ़ा है।
ऐतिहासिक रूप में फलस्तीन इस्राइल
विवादों के इतिहास की बात करें तो फलस्तीन पर लंबे समय तक रोम का शासन रहा और इतिहासकारों के अनुसार 63 ईसा पूर्व से लेकर 632 ईस्वी तक यह एक स्वतंत्र देश न होकर महान रोमन साम्राज्य का हिस्सा था। रोमन राज्य के तहत ही इस क्षेत्र में रोमनो का एक कबीला यहूद या यहूदी यहां आकर बसने लगे। रोमनों को यह स्वीकार नहीं था और उन्होंने बल पुरबक यहूदियों को यहां से निकाला लेकिन फिर भी कुछ यहूदी इस क्षेत्र में रहने लगे। लंबे समय बाद जब रोमनो का अधिकार फलस्तीन पर समाप्त हो गया तो अरबो ने इस भू-भाग पर अधिकार कर लिया। इतिहासकारों के अनुसार 632 ईस्वी से 731 ईस्वी तक यह क्षेत्र भिन्न अरबी साम्राज्यों के अधिकार में रहा। अपने अधिकार के दौरान बड़ी संख्या में अरब के निवासी फलस्तीन में बसे और उन्हीें के साथ इस्लाम का भी यहा प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद जब ऐसा लगने लगा कि यहूदियों की बची खुची जनसंख्या भी इस क्षेत्र में नहीं बच पाएगी तभी इस क्षेत्र पर सलजुक तुर्कों ने अपना अधिकार कर लिया जो महान आटोमन साम्राज्य का हिस्सा थे। इस तरह फलस्तीन भी आटोमन साम्राज्य का हिस्सा बन गया। यह अधिकार पहले विश्व युद्ध तक जस का तस बना रहा । आटोमन साम्राज्य में फलस्तीन में यहूदियों की संख्या में काफी इजाफा हुआ। आटोमन साम्राज्य ने यहूदियों को इस क्षेत्र में फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर दिया। साथ ही उनके साथ समान व्यवहार किया ।
संघर्ष की शुरूआत
इजराइल और फलस्तीन के मध्य संघर्ष का इतिहास लगभग 100 वर्ष पुराना है, जिसकी शुरुआत वर्ष 1917 में उस समय हुई जब तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बल्फौर ने ‘बल्फौर घोषणा’ के तहत फलस्तीन में एक यहूदी ‘राष्ट्रीय घर’ के निर्माण के लिए ब्रिटेन का आधिकारिक समर्थन व्यक्त किया। अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष को समाप्त करने में असफल रहे ब्रिटेन ने वर्ष 1948 में फलस्तीन से अपने सुरक्षा बलों को हटा लिया और अरब तथा यहूदियों के दावों का समाधान करने के लिये इस मुद्दे को नवनिर्मित संगठन संयुक्त राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया। संयुक्त राष्ट्र ने फलस्तीन में स्वतंत्र यहूदी और अरब राज्यों की स्थापना करने के लिये एक ” विभाजन योजना ” प्रस्तुत की जिसे फलस्तीन में रह रहे अधिकांश यहूदियों ने स्वीकार कर लिया किंतु अरबों ने इस पर अपनी सहमति प्रकट नहीं की।
वर्ष 1948 में यहूदियों ने स्वतंत्र इजराइल की घोषणा कर दी और इजराइल एक देश बन गया, इसके परिणामस्वरूप आस-पास के अरब राज्यों (इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया) ने इजराइल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के अंत में इजराइल ने संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के आदेशानुसार प्राप्त भूमि से भी अधिक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसके पश्चात् दोनों देशों के मध्य संघर्ष तेज होने लगा और वर्ष 1967 में प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ हुआ, जिसमें इजराइली सेना ने गोलन हाइट्स, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी येरुशलम को भी अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। वर्ष 1987 में मुस्लिम भाईचारे की मांग हेतु फलस्तीन में ‘हमास’ नाम से एक हिंसक संगठन का गठन किया गया। इसका गठन हिंसक जिहाद के माध्यम से फलस्तीन के प्रत्येक भाग पर मुस्लिम धर्म का विस्तार करने के उद्देश्य से किया गया था। समय के साथ वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के अधिगृहीत क्षेत्रों में तनाव व्याप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1987 में प्रथम इंतिफादा अथवा फलस्तीन विद्रोह हुआ, जो कि फलस्तीनी सैनिकों और इजराइली सेना के मध्य एक छोटे युद्ध में परिवर्तित हो गया।
इस्राइल-फलस्तीन के बीच संघर्ष की जड़ में ‘नकबा’ को भी देख सकते हैं। इसराइल में 14 मई को राष्ट्रीय अवकाश होता है। 70 साल पहले इसी दिन एक नए राष्ट्र की स्थापना हुई थी।लेकिन फलस्तीनियों की त्रासदी की शुरूआत भी उसी दिन से हो गई थी।फलस्तीनी लोग इस घटना को 14 मई के बजाय 15 मई को याद करते हैं। वो इसे साल का सबसे दुखद दिन मानते हैं। 15 मई को वो ‘नकबा’ का नाम देते हैं। नकबा का अर्थ है ‘विनाश’। ये वो दिन था जब उनसे उनकी जमीन छिन गई थी। कुछ के लिए ये जश्न का दिन है और कुछ के लिए विनाश का। ये इस बात पर तय होगा कि आप गजा पट्टी के किस ओर खड़े हैं। नकबा यानि विनाश के दिन की शुरुआत 1948 में फलस्तीनी क्षेत्र के तब के राष्ट्रपति यासिर अराफात ने की थी। इस दिन फलस्तीन में लोग 14 मई 1948 के दिन इसराइल के गठन के बाद लाखों फलस्तीनियों के बेघर बार होने की घटना का दुख मनाते हैं।
इतिहासकार बेनी मॉरिस अपनी किताब ‘द बर्थ आॅफ द रिवाइज्ड पैलेस्टीनियन रिफ़्यूजी प्रॉब्लम’ में लिखते हैं, ‘14 मई 1948 के अगले दिन साढ़े सात लाख फलस्तीनी, इसराइली सेना के बढ़ते कदमों की वजह से घरबार छोड़ कर भागे या भगाए गए थे। कई ने खाली हाथ ही अपना घरबार छोड़ दिया था। कुछ घरों पर ताला लगाकर भाग निकले । यही चाबियां बाद में इस दिन के प्रतीक के रूप में सहेज कर रखी गर्इं।’
इसमें आतंकियों का भी दबदबा कायम है। इन्टीफिदा के दौरान एक और संगठन की स्थापना हुई जो फलस्तीन को आजाद कराना चाहता था। इस संगठन का नाम था हमास। हमास, फलस्तीन लिबरेशन आॅर्गेनाइजेशन (पीएलओ) से ज्यादा अतिवादी संगठन है। पीएलओ इस्राइल के साथ शांति बनाकर फलस्तीन की आजादी चाहता है, लेकिन हमास इस्राइल यानी एक यहूदी देश को मान्यता भी नहीं देता है। उनके अनुसार इस्राइल नामक कोई देश नहीं है। इसीलिए हमास और पीएलओ में टकराव हुए हैं। हम देखते हैं कि 1967 तक गाजा पर इजिप्ट का कब्जा था। गाजा में हमास की सरकार चलती है, जो इस्राइल के खिलाफ संघर्ष का दावा करता रहा है। हमास और गाजा में स्थित अन्य आतंकी संगठनों ने अब तक इस्राइल पर न जाने कितने ही रॉकेट्स दागे होंगे, लेकिन इस्राइल ने हर बार तगड़ा जवाब दिया है। अब स्थिति ये है कि हमास में बिजली और भोजन से लेकर मेडिकल सप्लाइज तक की दिक्कतें हैं और वो सब इस्राइल के साथ उनके युद्ध की वजह से। जहां तक भारत की बात है, उसके इन दोनों ही देशों से अच्छे सम्बन्ध हैं। इस्राइल से ‘पीपल टू पीपल कॉन्टैक्ट’ अच्छा है।
दोनो देशों में विवादित मुद्दा
दोनों देशों के बीच विवाद के कुछ मुख्य मुद्दे हैं। इस्राइल-फलस्तीन विवाद के मूल में दरअसल दो धार्मिक सभ्यताओं का टकराव है। वर्तमान इस्राइल के येरूसलम यहूदी, इसाइयत और इस्लाम तीनों के लिए पवित्र है, क्योंकि यहां किंग सोलोमन ने पहला पवित्र मंदिर बनाया, जिसे यहूदी अपना सबसे पवित्र स्थल मानते हैं तो इसाई मानते हैं कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था। इस्लाम में इस शहर को मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र शहर माना जाता है।
दूसरा विवादित क्षेत्र है गाजा पट्टी जो काफी महत्वपूर्ण हैं। गाजा पट्टी इस्राइल और मिस्र के मध्य स्थित है। इस्राइल ने वर्ष 1967 में गाजा पट्टी का अधिग्रहण किया था, किंतु गाजा शहर के अधिकांश क्षेत्रों के नियंत्रण तथा इनके प्रतिदिन के प्रशासन पर नियंत्रण का निर्णय ओस्लो समझौते के दौरान किया गया था। वर्ष 2005 में इस्राइल ने इस क्षेत्र से यहूदी बस्तियों को हटा दिया लेकिन वह अभी भी इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय पहुंच को नियंत्रित करता है।
तीसरा विवाद वेस्ट बैंक को ले कर है। वेस्ट बैंक इस्राइल और जॉर्डन के मध्य अवस्थित है। इसका एक सबसे बड़ा शहर ‘रामल्लाह’ है, जो फलस्तीन की वास्तविक प्रशासनिक राजधानी है। इस्राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में इस पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।
विवाद का चौथा कारण गोलन हाइट्स हैं, जो एक सामरिक पठार है, जिसे इस्राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में सीरिया से छीन लिया था। अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर येरुशलम और गोलान हाइट्स को इस्राइल का एक हिस्सा माना है। जिससे कि इस पर इस्राइल की पकड़ मजबूत है।
होली चर्च को लेकर भी विवाद है, जो पांचवा कारण है। येरुशलम में पवित्र सेपुलकर चर्च है, जो दुनिया भर के ईसाइयों के लिए विशिष्ट स्थान है। ईसाई मतावलंबी मानते हैं कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर लटकाया गया था और यही वह स्थान भी है, जहां ईसा फिर जीवित हुए थे। यह दुनिया भर के लाखों ईसाइयों का मुख्य तीर्थस्थल है, जो ईसा के खाली मकबरे की यात्रा करते हैं। इस चर्च का प्रबंध संयुक्त तौर पर ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदाय करते हैं।
छठा विवाद का मुद्दा पवित्र मस्जिद भी है। येरुशलम में ही पवित्र गुंबदाकार ‘डॉम आॅफ रॉक’ यानी कुव्वतुल सखरह और अल-अक्सा मस्जिद है। यह एक पठार पर स्थित है, जिसे मुस्लिम ‘हरम अल शरीफ’ या पवित्र स्थान कहते हैं। यह मस्जिद इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र जगह है, इसकी देखरेख और प्रशासन का जिÞम्मा एक इस्लामिक ट्रस्ट करता है, जिसे वक्फ भी कहा जाता है। मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर अपनी यात्रा में मक्का से यहीं आए थे और उन्होंने आत्मिक तौर पर सभी पैगंबरों से दुआ की थी। कुव्वतुल सखरह से कुछ ही दूरी पर एक आधारशिला रखी गई है, जिसके बारे में मुसलमान मानते हैं कि मोहम्मद यहीं से स्वर्ग की ओर गए थे।
सातवें कारण भी है, जिसमें पवित्र दीवार को ले कर भी विवाद है। येरुशलम का कोटेल या पश्चिमी दीवार का हिस्सा यहूदी बहुल माना जाता है, क्योंकि यहां कभी उनका पवित्र मंदिर था और यह दीवार उसी की बची हुई निशानी है। यहां मंदिर के अंदर यहूदियों की सबसे पवित्रतम जगह ‘होली आॅफ होलीज’ है। यहूदी मानते हैं, यहीं पर सबसे पहले उस शिला की नींव रखी गई थी, जिस पर दुनिया का निर्माण हुआ और जहां अब्राहम ने अपने बेटे इसाक की कुरबानी दी थी। पश्चिमी दीवार, ‘होली आॅफ होलीज’ की वह सबसे करीबी जगह है, जहां से यहूदी प्रार्थना कर सकते हैं। इसका प्रबंध पश्चिमी दीवार के रब्बी करते हैं।
दोनो देशों के बीच लगातार हो रहे संघर्ष में दोनो देशों की अपनी-अपनी मांग है। जिसमें फलस्तीन की मांग है कि इस्राइल वर्ष 1967 से पूर्व की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित हो जाए और वेस्ट बैंक तथा गाजा पट्टी में स्वतंत्र फलस्तीन राज्य की स्थापना करे। साथ ही इस्राइल को किसी भी प्रकार की शांति वार्ता में शामिल होने से पूर्व अपने अवैध विस्तार को रोकना होगा। फलस्तीन यह भी चाहता है कि वर्ष 1948 में अपना घर खो चुके फलस्तीन के शरणार्थी वापस फलस्तीन आ सकें। इसके अलावा फलस्तीन पूर्वी येरुशलम को स्वतंत्र फलस्तीन राष्ट्र की राजधानी बनाना चाहता है।
अमेरिका के समर्थन से हमेशा बाजी अपने पक्ष में रखने वाला इस्राइल येरुशलम को अपना अभिन्न अंग मानता है और इसलिए येरुशलम पर अपनी संप्रभुता चाहता है। इस्राइल की मांग रही है कि संपूर्ण विश्व इस्राइल को एक यहूदी राष्ट्र के रूप में मान्यता दे। इजराइल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जो धार्मिक समुदाय के लिए बनाया गया है।
दोनों पक्षों में कुछ ऐसे लोग शामिल है जो शांति से समझौता करना नहीं चाहते। कुछ ऐसे भी देश हैं, जो इस्राइल और फलस्तीन के कंधों पर बंदूक रख कर अपना हित साधते रहे हैं। इतिहास के इस रिसते हुए घाव को भरे बिना विश्व मे शांति नहीं लाई जा सकती है।