हमारे देश में अनाजों की विविधता की संस्कृति रही है। चावल, गेहूं के अतिरिक्त हमारे यहां ज्वार, बाजरा, कोदरा (रागी), कंगनी, चीणा, स्वांक (झंगोरा) आदि कई तरह के अनाज उगाये जाते थे और उनके पोषक तत्वों के ज्ञान के आधार पर उनका मौसम या तासीर के हिसाब से भोजन में उपयोग किया जाता था। ‘हरित क्रांति’ के दौर में न जाने कहां से यह भ्रम-पूर्ण विचार फैल गया कि गेहूं- चावल ही उत्कृष्ट अन्न हैं और बाकी ‘मोटे अनाज।’ इन्हें हीन-दृष्टि से देखा जाने लगा और कुछ लोग तो अज्ञानता-वश यह सोचने लगे कि ये ‘मोटे अनाज’ केवल गरीबों का खाना हैं। नतीजे में इन अनाजों की न केवल अनदेखी हुई, बल्कि इन्हें हिकारत की दृष्टि से देखा जाने लगा। दूसरी तरफ, एक जानकार वर्ग इनके संरक्षण और गुणवत्ता के ज्ञान का रक्षक बना रहा और आज फिर से इन अनाजों के प्रति चेतना फैलना शुरू हुई है।
इन अनाजों को रासायनिक खादों और दवाइयों की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि इनमें कीड़ा नहीं लगता और ये कम उपजाऊ जमीनों में भी बढिया पैदावार देते हैं। ये पौष्टिक भोजन और चारा देते हैं। यदि इनके मुकाबले गेहूं, चावल के पोषक तत्वों को देखें तो ये 4-5 गुणा ज्यादा पौष्टिक पाए जाते हैं। यदि प्रति सौ ग्राम ‘मोटे अनाजों’ की उतने ही गेहूं, चावल से तुलना की जाए तो उनमें धातुएं (कोदरा- 2.7 ग्राम, कंगनी- 3.3 ग्राम, स्वांक-झंगोरा—4.4 ग्राम, चावल- 0.7 ग्राम, गेहूं- 1.5 ग्राम), आयरन(कोदरा- 3.9 मिलीग्राम, कंगनी- 2.8 मिलीग्राम, झंगोरा- 15.2 मिलीग्राम, गेहूं- 5.3 मिलीग्राम, चावल- 0.7 मिलीग्राम), कैल्शियम(कोदरा-रागी—344 मिलीग्राम, कंगनी 31 मिलीग्राम, झंगोरा- 11 मिलीग्राम, गेहूं-10 मिलीग्राम, चावल41 मिलीग्राम, रामदाना-स्युह्ल—159 मिलीग्राम) और फाइबर (कोदरा- 3.6 ग्राम, कंगनी- 8 ग्राम, स्वांक-झंगोरा—10.1 ग्राम, गेहूं- 1.2 ग्राम, चावल- 0.2 ग्राम, जौ- 15.6 ग्राम) प्राप्त होते हैं।
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इस तरह हम पाते हैं कि जरूरी पौष्टिक तत्वों के मामले में इन अनाजों की अनदेखी करके हम अपने ही स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। हमें इन पौष्टिक तत्वों की कमी होने की सूरत में ‘बनावटी दवाइयों’ के रूप में इन पौष्टिक तत्वों को डाक्टर के कहने पर खाना पड़ता है। गेहूं, चावल की खेती में तो रासायनिक खाद, दवाइयों और कीटनाशकों की भरमार हो रही है, जबकि ये कथित ‘मोटे अनाज’ बिना दवाइयों और रासायनिक खादों के ही हो जाते हैं। जाहिर है, ये अनाज रासायनिक जहरों द्वारा मानव शरीर को हो रहे नुकसानों के खतरे से भी खाली हैं।
रासायनिक खेती के चलते पंजाब की बठिंडा-पट्टी तो ‘कैंसर पट्टी’ के नाम से मशहूर हो गई है। इस क्षेत्र में हर घर में कोई-न-कोई व्यक्ति कैंसर रोग से पीड़ित मिल जाएगा। ‘खेती विरासत मिशन’ जैसी संस्थाएं इन क्षेत्रों में प्राकृतिक खेती को वैज्ञानिक तरीके से करने का प्रचार कर रही हैं, उन्हें समाज से भी अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है।
हम जलवायु परिवर्तन के दौर में प्रवेश कर चुके हैं। गर्मी बढ़ने के साथ-साथ इसमें वर्षा भी अनिश्चित हो जाएगी।
आजकल इसका सामना करना भी पड़ रहा है। आने वाले दिनों में यह क्रम बढ़ता जाएगा। इससे खेती के लिए पानी का संकट भी बढ़ेगा, क्योंकि बारिश के दिन कम हो जाएंगे और बौछार बढ़ जाएगी। भारत में पहले ही 80 प्रतिशत बारिश मॉनसून के तीन महीनों में ही हो जाती है, बाकी समय पानी की कमी बनी रहती है। इसके चलते अन्तर्राज्यीय टकराव और अंतर- व्यावसायिक टकराव भी बढ़ते जाएंगे।
उद्योगों और घरेलू प्रयोग के लिए भी पानी की मांग लगातार बढ़ रही है। खेती में हम जिन फसलों को बढ़ा रहे हैं वे सब ज्यादा पानी की मांग करती हैं। जबकि ये कथित ‘मोटे अनाज’ थोड़े पानी में भी अच्छी फसल दे जाते हैं। गन्ने को इन पौष्टिक अनाजों के मुकाबले 5 गुणा, और धान को तीन गुणा पानी चाहिए। जैसे वर्ष में कुछ महीने ही हमारे देश में पानी की बहुतायत होती है वैसे ही क्षेत्रवार भी हमें काफी असमानता झेलनी पड़ती है। सतही जल के 71 प्रतिशत जल संसाधन 36 प्रतिशत क्षेत्र को ही उपलब्ध हैं और 64 प्रतिशत क्षेत्र 29 प्रतिशत साधनों पर निर्भर हैं। देश में 56.7 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा आधारित खेती पर निर्भर हैं। नतीजे में बहुत तेज गति से भूजल दोहन बढ़ा है। भारतवर्ष दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता बन गया है। 75-80 प्रतिशत सिंचाई भूजल से ही हो रही है। इससे भूजल-स्तर भी तेजी से घट रहा है।
पंजाब, हरियाणा, राजस्थान में भूजल-स्तर, 2002-08 के आंकलन के मुताबिक प्रतिवर्ष 33 सेंटीमीटर की दर से घट रहा है। अब तक यह दर और भी बढ़ चुकी होगी। इसी कारण देश के 33 प्रतिशत जिले भूजल की दृष्टि से असुरक्षित घोषित हो चुके हैं।
दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी हमारे देश में बसती है और सतही जल के 4 प्रतिशत संसाधन ही हमारे पास हैं। प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष जल-उपलब्धता 1170 घन.मीटर ही है, जबकि 1700 घन मीटर से कम जल उपलब्धता जल संकट माना जाता है। इस वस्तुस्थिति को देखते हुए कृषि जैसी जीवनोपयोगी गतिविधि को टिकाऊ बनाकर रखने की चुनौती देश के सामने है और पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाने की महती जिम्मेदारी भी। अत: सब तरह से पौष्टिक अन्न उगाना, जिनकी ‘मोटे अनाज’ कहकर अनदेखी की गई, समय की मांग है। पौष्टिक अन्न और जहर-मुक्त वैज्ञानिक खेती इस समय का घोष वाक्य होना चाहिए।