शंकराचार्य का व्यक्तित्व विस्मयकारी है। उन्होंने 32 वर्ष का जीवन पाया। अल्प समय में ही उन्होंने भारत का भ्रमण किया। 11 उपनिषदों का भाष्य किया। अन्य तमाम पुस्तकें लिखी। गीता का आश्चर्यजनक भाष्य लिखा और ब्रह्म सूत्र का भी । अद्वैत दर्शन का सार समझाया। अल्पजीवन में ढेर सारा काम आश्चर्यजनक है। 32 वर्ष के जीवन में लगभग 20 वर्ष अध्ययन में लगे होंगे। उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य पढ़ा। चार मठ धाम बनाए। सैकड़ों स्थानों पर विद्वानों से शास्त्रार्थ हुआ। तब यात्रा के साधन नहीं थे, लेकिन उन्होंने भारत का भ्रमण किया। वे अद्वैत वेदांत के प्रवक्ता व्याख्याता बने। डॉ. रामधारी सिंह लिखित ‘संस्कृति के चार अध्याय’ (पृष्ठ 332) में ‘शंकराचार्य और इस्लाम’ शीर्षक से एक मजेदार निष्कर्ष है, ‘शंकर ने एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया है। इस्लाम, आरम्भ से ही, एक ईश्वर में विश्वास करता था। इतनी सी बात पर डॉ. ताराचन्द ने यह अनुमान निकाल लिया कि शंकर का उद्भव इस्लामी प्रभावों के कारण हुआ। शंकर केरल में जन्मे थे ओर केरल में तब तक मुसलमान आ चुके थे। अर्थात मुसलमान केरल में आए नहीं कि हिंदुओं ने उनके एकेश्वरवाद को देखकर उसका अनुसरण करना आरम्भ कर दिया। ये नितान्त भ्रमपूर्ण बाते हैं।’
शंकराचार्य द्धारा इस्लाम से प्रेरणा लेने की बात गलत है। स्वयं दिनकर ने लिखा है, ‘इस मत के विरूद्ध सबसे पहले यह अकाट्य तर्क है कि शंकर का एकेश्वरवाद भारतीय अद्वैतवाद का विकसित रूप है और उसका इस्लामी एकेश्वरवाद से कोई भी मेल नहीं है। इस्लाम एक ईश्वर को जरूर मानता है, किंतु वह एकेश्वरवादी या अद्वैतवादी नहीं, केवल ईश्वरवादी है। इस्लाम ईश्वर को एक मानता है, किंतु वह यह भी समझता है कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई, वह सातवें आकाश पर बसता है। उसके हृदय में भक्तों के लिए प्रेम और दुष्टों के लिए घृणा का वास है। संसार असत्य है अथवा जो कुछ हम देखते हैं वह ‘कुछ नहीं में कुछ का आभास है।’ यह बातें इस्लाम में न पहले थीं, न अब हैं। इस्लाम का ईश्वरवाद शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है। फिर भी डॉ. ताराचन्द ने गलत निष्कर्ष निकालें। दिनकर ने लिखा है, ‘शंकराचार्य भारतीय चिंतनधारा में आकस्मिक घटना की तरह नहीं आए।
उनकी परम्परा की लकीर उपनिषदों से आगे ऋग्वेद के नासदीय-सूक्त तक पहुंचती है। नासदीय सूक्त ने जीवन और सृष्टि के विषय में जो मौलिक प्रश्न उठाए थे, उन्हीं के प्रश्नों का समाधान खोजते-खोजते पहले उपनिषद्, फिर बौद्ध दर्शन और सबके अंत में, शंकराचार्य का सिद्धान्त प्रकट हुआ।’ ऐसे विद्वानों की माने तो ‘भारत की प्राचीनता का तर्कपूर्ण ज्ञान भारत में नहीं था। भारत की प्राचीनता को गौरव यूरोप ने दिया। ऐसे ही एक विद्वान वेबर ने लिखा था कि आध्यात्मिक मुक्ति के लिए भक्ति को साधन मानने की प्रथा भारत में नहीं थी। यह चीज भारतवासियों ने ईसाइयत से ली होगी। अब के पक्षपाती लोग दुनिया को यह समझा रहे हैं कि हिंदुओं ने भक्ति और अद्वैतवाद के सिद्धान्त इस्लाम से ग्रहण किए थे।’
भारत की अपनी सभ्यता और संस्कृति थी और अपना मौलिक चिंतन। सिंध में मोहम्मद बिन कासिम के हमले के समय भारत ज्ञान समृद्ध था। कई धाराओं में चिंतन का विकास हो चुका था। उपनिषद् लिखे जा चुके थे। इस्लाम के जन्म के पहले ही भारतवासी सृष्टि के मूल कारण को जानने के लिए सक्रिय थे। तब भारतवर्ष मंदिरों और मूर्तियों से भरा हुआ था। मोहम्मद बिन कासिम ने भी मूर्तियों का उल्लेख किया है। बौद्धों ने शून्यवाद की स्थापना की थी। बौद्धों का शून्यवाद शंकराचार्य के मत का मायावाद था। बौद्धों से आगे बढ़कर शंकराचार्य ने एक तटस्थ ब्रह्म को स्थान दिया। यह तटस्थ ब्रह्म भी नया नहीं था। उपनिषदें का ब्रह्म पहले से था। शून्यवाद को मायावाद के नाम से अपनाने के कारण ही कुछ लोग शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे।
शंकराचार्य ने अपने तत्व ज्ञान से सांस्कृतिक भारत का मैलिक चित्र उपस्थित किया। उन्होंने हिन्दुत्व को पौराणिक कल्पनाशीलता से दर्शन की ओर उन्मुख किया। भारतीय चेतना को उपनिषदें की ओर मोड़ा। उपनिषदें पर भाष्य के प्रभाव में भारतीय चिंतन की दिशा शोधपूर्ण हो गई। दर्शन में वह अद्वैत के प्रवक्ता बने। साथ ही विष्णु, शिव, शक्ति और सूर्य पर स्तुतियां लिखीं। वह आध्यात्मिकता और उपासना के समन्वयवादी महापुरूष थे। भारत की सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने चारों दिशाओं में चार पीठ भी बनाएं। ये वद्रिकाश्रम, द्वारका, जगन्नाथपुरी और श्रंगेरी में हैं। चारों पीठों के दर्शन भारत की अभिलाषा बने हैं। इस्लाम में दर्शन का प्रवेश सूफियों के माध्यम से आया।
सूफियों ने यह ज्ञान सीधे वैदिक ग्रंथों से पाया। प्लाटीनस ने उसे ब्राह्मणों और बौद्धों से प्राप्त किया। इससे अलग शंकराचार्य का दर्शन ब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, निराकार और विविंकार है। दिनकर ने लिखा है, कि उसे ‘भक्तों की चिंता नहीं है और न दुष्टों को दण्ड देने की। शंकराचार्य के अनुसार सृष्टि ईश्वर ने नहीं बनाई। आचार्य शंकर ब्रह्म के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं मानते । शंकराचार्य का दर्शन शुद्ध अद्वैत विचार है। इस्लाम अद्वैतवाद में विश्वास नहीं करता। उसका विश्वास सिर्फ ईश्वरवाद में है। इस्लामी ईश्वरवाद शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने शंकराचार्य पर खूबसूरत पुस्तक लिखी है। शंकराचार्य के समय का भारत विचारणीय है। उपाध्याय जी ने लिखा है, ‘वैदिक दर्शनों में कणाद भौतिकवाद का कपिल द्वेतवाद का गौतम नीरस तर्क का प्रचार कर रहे थे। श्रीकृष्ण की गीता और महाऋषि वेदव्यास के बताए मार्ग को लोग भूलते जाते थे। ऐसे समय में यहां तीन दर्शनों की रचना हुई। वह है, पंतजलि का योग दर्शन, जेमिनी का मीमांसा और बादरायण का वेदांत दर्शन।’ कपिल का सांख्य दर्शन तर्कपूर्ण है। इन की अपनी विशेषता है। दर्शन व विज्ञान लोकमंगल के लिए ही होते हैं। वह कोरे बुद्धि विलास नहीं हैं। वेदांत इन सबमें प्रमुख है। वेदांत दर्शन का मुख्य ग्रंथ ब्रह्म सूत्र है। इसे बादरायण ने लिखा था। इसे सारी दुनिया में प्रतिष्ठित करने का काम शंकराचार्य ने किया। ऋग्वेद से लेकर उपनिषद तक दर्शन की धारणा एक सत्य की है। उसी एक सत्य को विद्वानों ने अनेक नाम दिए हैं। ब्रह्म सूत्रों में ऐसे सभी नामों को एक अर्थ दिया गया है।
शंकराचार्य का ब्रह्म नित्य है। सदा से है। सदा रहता है। संसार अनित्य है। आभास है। मिथ्या है। ब्रह्म सदा से है। सदा रहेगा। ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है सतत विस्तारवान। यह ब्रह्माण्ड फैल रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसका विस्तार अनंत है। यह और फैलने वाला है। ब्रह्म किसी से नहीं जन्मा। वह सृष्टि सृजन के पहले से है और प्रलय के बाद भी रहेगा। शंकराचार्य इसलिए ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या कहते थे। मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है। जगत प्रत्यक्ष है, लेकिन इसका एक-एक अंश प्रतिपल विदा हो रहा है। इसमें नया जुड़ रहा है। नए को भी पुराना होना है। प्रकृति के सभी अंश गतिशील हैं। अनेक अंश विदा भी हो रहे हैं। प्रकृति की सारी कार्यवाही अनित्य है और ब्रह्म नित्य। शंकराचार्य पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी शारदा पीठ गये थे। भारत में इनके दर्शन को लेकर तर्क हुए। उन्होंने सभी विद्वानों को वेदांत के लिए सहमत किया। समूचे देश में उनका यश भी नित्य रहने वाला है।
हृदयनारायण दीक्षित