एक संत थे। उनके पास प्रतिदिन एक चोर आया करता था और ईश्वर के दर्शन करने के उपाय पूछता था। संत भी हमेशा यह कहकर उसे टाल देते थे कि समय आने दो बताऊंगा। एक बार चोर ने बहुत आग्रह किया कि अब तो ईश्वर के दर्शन करने का उपाय बता दीजिए। वे बोले, ‘सामने पहाड़ की जो ऊंची चोटी है वहां तक तुम सिर पर छह पत्थर लेकर चढ़ो। तब मैं तुम्हें ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताऊंगा।’ चोर संत की बात मान गया। संत ने उसे अपने पीछे चलने का संकेत किया और खुद आगे चलते गए।
सिर पर पत्थर लेकर चढ़ता चोर काफी दूर तक जाने पर थक चुका था। उसने कहा, ‘भगवन्! अब नहीं चला जाता, मैं थक चुका हूं। आगे बढ़ना मुश्किल हो गया है।’ संत ने कहा, ‘ठीक है। एक पत्थर फेंक दो।’ थोड़ी देर चलने के बाद चोर ने फिर थकान की शिकायत की, तो संत ने एक और पत्थर फिकवा दिया। यह क्रम तब तक चलता रहा, जब तक संत ने चोर के सिर से छहों पत्थर न फिकवा दिए।
तब जाकर चोर ऊपर चोटी तक पहुंचने में सफल हो पाया। चोटी पर पहुंचकर संत ने उसे समझाया, ‘भाई! जिस प्रकार तुम सिर पर भारी पत्थर लेकर चढ़ने में असफल रहे, उसी प्रकार जीवन में मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद जैसे मनोविकारों का बोझ ढोकर ईश्वर-दर्शन नहीं कर पाता है।
ईश्वर-दर्शन के लिए इन सभी मनोविकारों का बोझ उतारना अनिवार्य है। बिना यह बोझ उतारे ईश्वर के दर्शन होना असम्भव है।’ इस उदाहरण से यह बात चोर की समझ में आ गई।
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