संसद के बजट सत्र के लगभग दोनों हिस्से हंगामे की भेंट चढ़ गए। एक तरफ लोकतंत्र के संदर्भ में राहुल गांधी द्वारा लंदन में दिए गए बयान को लेकर कांग्रेस पर हमलावर भाजपा राहुल गांधी की माफी पर अड़ी हुई है, तो दूसरी ओर विपक्षी दल अडाणी मुद्दे को लेकर लगातार जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) की मांग कर रहे हैं। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की सुलह की कोशिशों के बावजूद सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जबरदस्त वार-पलटवार जारी रहने के कारण संसद के दोनों सदनों में काम-काज नहीं हो पा रहा। माननीय सांसदों के इस व्यवहार से न केवल सदन का, बल्कि ‘लोक’ और उसकी भावनाओं का भी अपमान हुआ है, क्योंकि लोकतंत्र के महापर्व से निकलकर ‘तंत्र’ का प्रमुख हिस्सा बने बैठे लोगों यानी सत्ता पक्ष और विपक्ष के माननीयों को यह अवसर ‘लोक’ और उसकी भावनाओं के कारण ही मिला है।
वैसे गौर करें तो हमारी संसद में घटी हंगामे और हुड़दंग की यह न तो पहली घटना थी और न ही आखिरी, लेकिन संसदीय इतिहास गवाह है कि कम-से-कम देश के पहले बजट सत्र में तो ऐसा नहीं ही हुआ था। स्मरण रहे कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने जब 31 मार्च 1948 को संसद में देश का पहला बजट प्रस्तुत किया था, तो उस पर संसद में पूरे चार दिन तक बहस होती रही थी।
हालांकि उस पहले बजट में सरकार की ओर से मात्र 197 करोड़ का ही प्रस्ताव रखा गया था, जिसमें 171 करोड़ की आय और लगभग 25 करोड़ का बजट घाटा शामिल था। इसके विपरीत अब जबकि उससे अनेक गुणा अधिक का बजट सरकारों द्वारा संसद में प्रस्तुत किया जाता है, और यदि उस पर मुश्किल से कुछ घंटे भी सार्थक नतीजों वाली बहस हो जाये तो यह बड़ी उपलब्धि मानी जाती है।
जहां तक संसदीय इतिहास में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच हंगामे की बात है तो बता दें कि 1970 के दशक के अंतिम वर्षों में ही संसद के दोनों सदनों यानी राज्यसभा और लोकसभा में सदस्यों के बीच परस्पर असहमति और वाद-विवाद वाले स्वरों के स्थान पर हुड़दंग, हंगामों और उठापटक की घटनाओं ने पैठ बना ली थी। दरअसल, सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों के दौरान समाजवादी नेता राजनारायण को मार्शलों द्वारा उठाकर राज्यसभा से बाहर कर दिया गया था, जिसके बाद सदन में हंगामों का सिलसिला शुरू हुआ, जो कभी थमा ही नहीं।
कभी बोफोर्स घोटाले तो कभी सुखराम के कथित भ्रष्टाचार के नाम पर, कभी तहलका टेप कांड तो कभी टूजी के कथित घोटाले के नाम पर, कभी ललित मोदी कांड तो कभी नीरव मोदी के नाम पर, कभी शिबु सोरेन के कथित भ्रष्टाचार तो कभी 2008 के नोटकांड के नाम पर संसद में पक्ष और विपक्ष के बीच खूब हंगामे हुए। वहीं बोफोर्स घोटाले की बात सामने आने के बाद विपक्ष द्वारा किया गया हंगामा ऐतिहासिक था। तब पूरे 45 दिनों तक विपक्ष ने संसद के दोनों सदनों का बहिष्कार किया था।
वैसे संसद के सुचारू तरीके से चलने अथवा न चलने देने के पक्ष में प्राय: प्रत्येक राजनीतिक दल के अपने अलग तर्क होते हैं। तात्पर्य यह कि सत्ता पक्ष या विपक्ष में से कोई भी स्वयं को जनता के खून-पसीने की कमाई के संसद में बिना काम हुए पानी की तरह बहाकर बर्बाद करने का दोषी नहीं मानता।
पूर्व वित्त मंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली से जुड़ा 2015 का एक वाकया याद आ रहा है। तत्कालीन वित्त मंत्री स्वर्गीय जेटली ने तब कांग्रेस के सदस्यों से यह कहकर राज्यसभा चलने देने का आग्रह किया था कि सरकार बहस के लिए तैयार है…आप लोग बहस से भाग क्यों रहे हैं? हालांकि उससे लगभग तीन वर्ष पूर्व यूपीए सरकार के दौरान जब कथित टूजी घोटाला सामने आया था, तब संसद में मचे हंगामे के पक्ष में अपना मत रखते हुए उन्होंने कहा था कि कभी-कभी संसद में व्यवधान से देश को फायदा भी होता है। दरअसल, टूजी घोटाला मामले में राजग प्रधानमंत्री द्वारा आरोपितों के इस्तीफे लिए जाने पर अड़ा हुआ था, जिसे सिरे से नकार दिये जाने के कारण स्वर्गीय जेटली ने हंगामे का समर्थन किया था।
इसी प्रकार वर्ष 2015 में ही ललित मोदी प्रसंग में कांग्रेस पार्टी की ओर से केंद्रीय मंत्री स्वर्गीया सुषमा स्वराज का इस्तीफा मांगते हुए जबरदस्त हंगामा किया गया था, जबकि सरकार उक्त मामले में बहस के लिए तैयार थी। स्वस्थ बहस की परंपरा को सिरे से नकारते हुए लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने तब केंद्रीय मंत्री के इस्तीफे को लेकर बेहद अड़ियल रवैया अपनाया था, जिसके बाद बिना कोई काम-काज हुए संसद का पूरा सत्र ही हंगामें की बलि चढ़ गया था।
हमारी संसद में जारी इस निराशाजनक हुड़दंगी आचार-व्यवहार के बरक्स महान राजनीतिक संत स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरलता, सहजता और सादगी से परिपूर्ण सरस, मधुर, मनोहर तथा चुटीले व्यवहार एवं विचार प्रकाश-स्तंभ की भांति हमें राह दिखाने का कार्य कर सकते हैं। वाजपेयी जी से जुड़ी 2003 की एक घटना याद आती है, जब ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उसी दौरान अमेरिका ने इराक पर अचानक हमला कर दिया था।
विपक्षी पार्टियां संसद में अमेरिका के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कराने की मांग पर अड़ी थीं, जबकि तत्कालीन विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा उसके पक्ष में नहीं थे। हालांकि विदेश मंत्रालय एक वक्तव्य जारी कर उस हमले की निंदा कर चुका था, लेकिन विपक्ष उतने भर से संतुष्ट नहीं था। संसद में गतिरोध लगातार जारी रहने पर वाजपेयी जी ने विदेश मंत्री सिन्हा और तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री स्वर्गीया सुषमा स्वराज से कहा कि संसद सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है।
इसलिए विपक्ष के नेताओं से हमें सीधी एवं अनौपचारिक बातचीत भी करनी चाहिए, बजाये इसके कि हम उनके साथ केवल मीडिया के माध्यम से ही संवाद स्थापित करें। तत्पश्चात दोनों मंत्रियों की लोकसभा स्पीकर के कक्ष में विपक्षी नेताओं के साथ बातचीत हुई, जिसके बाद संसदीय गरिमा धूल में मिलने से बच गयी यानी निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर सत्ता पक्ष तथा विपक्ष में सहमति बनी और अंतत: गतिरोध समाप्त हो गया।
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