Wednesday, May 21, 2025
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विपक्ष में दरार डालने की कोशिश

Samvad


mahendra mishrभारत जोड़ो यात्रा और उसके बाद राहुल गांधी की निखरी छवि, अडानी प्रकरण से बीजेपी को हुए नुकसान, मोदी की घटती विश्वसनीयता और विपक्षी एकता की दिशा में पुरजोर पहलकदमी ने संघ-भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दीं थीं। 2024 का विजय अभियान मुश्किल में पड़ता दिख रहा था। पीएम मोदी भले ही कार्बेट पार्क में प्रकृति और जीव-जंतुओं के बीच दिख रहे हों लेकिन उनकी पूरी बौद्धिक, पैदल और दंगाई सेना न केवल जमीन पर है बल्कि अपनी पूरी ताकत के साथ सक्रिय है। इस मामले में भाजपा-संघ कई रणनीतियों पर काम कर रहे हैं। विपक्षी खेमे में दरार पैदा करने और एकता को तोड़ने के लिए विपक्ष में मौजूद अपने प्यादों को उसने सक्रिय कर दिया है।

चूंकि पूरी विपक्षी एकता और उसके केंद्र में कांग्रेस है तो उसको कैसे कमजोर किया जाए यह उसकी चिंता का प्रमुख विषय हो गया है। आखिरी तौर पर सांप्रदायिकता फैलाने के अपने आजमाए विश्वसनीय रास्ते पर वह सरपट दौड़ रही है।

शुरुआत विपक्ष में मौजूद बीजेपी के प्यादों से करते हैं। इस मामले में दो चेहरे बिल्कुल खुलकर सामने आ गए हैं। वह हैं शरद पवार और गुलाम नबी आजाद। शरद पवार ने जिस तरह से खुल कर अडानी के पक्ष में बयान दिया है जिसमें उन्होंने खुले तौर पर कहा है कि अडानी व्यवसायी हैं और उनको निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए।

अभी उनके इस बयान को लेकर विपक्षी एकता को हुए नुकसान पर जोड़-घटाव ही किया जा रहा था कि तब तक वह डिग्री के सवाल पर पीएम मोदी के बचाव में खड़े हो गए। ये सारी बातें बताती हैं कि शरद पवार मोदी और अडानी के साथ अपनी मित्रता के एवज में विपक्ष के सभी हितों को कुर्बान कर देने के लिए तैयार हैं।

गुलाम नबी आजाद तो जैसे बीजेपी के पे रोल पर ही हैं। लगता है उनका पूरा टाइमटेबल ही पीएमओ और बीजेपी हेडक्वार्टर से तय होता है। वह शख्स जिसने पांच दशक से ज्यादा का वक्त कांग्रेस में गुजारा हो। बगैर किसी जनाधार के हमेशा संसद का सदस्य रहने के साथ ही कांग्रेस की सरकारों में रहते मलाईदार मंत्रालयों का नेतृत्व किया हो।

वह एकाएक बागी होकर कांग्रेस विरोधी दुष्प्रचार अभियान का अगुआ बन गया है। यह केवल राहुल गांधी या फिर किसी और नेता से रिश्तों के खराब होने का मामला नहीं है। वह चाहे हेमंत विस्वा शर्मा का मामला हो या फिर 2013 में राहुल गांधी द्वारा अध्यादेश फाड़ने का मसला इसी तरह के लगातार आने वाले उनके बयान बताते हैं कि वह किसी और के इशारे पर काम कर रहे हैं।

क्योंकि उनका इससे न कोई आधार बढ़ने जा रहा है और न ही उनको बहुत कुछ राजनीतिक फायदा मिलता दिख रहा है। हां एक फायदा उन्हें जरूर मिला है वह यह कि राज्यसभा सदस्य न रहने के बावजूद वह लुटियन जोन में अपना मकान बनाए रखने में कामयाब रहे हैं।

ऐसे दौर में जबकि विपक्ष के किसी सदस्य की सदस्यता समाप्त होते ही उसे सीपीडब्ल्यूडी के प्रापर्टी विभाग की बंगला खाली करने की नोटिस मिल जाती है। राहुल को तो 30 दिन का अदालत ने मौका दिया था बावजूद इसके सरकार ने उतना भी इंतजार करना जरूरी नहीं समझा। लेकिन आजाद साहब हैं कि अपने उसी साउथ एवेन्यू के बड़े बंगले पर काबिज हैं। अब उन्हें दो साल का एक्सटेंशन भी मिल गया है।

इसके साथ ही कर्नाटक में कांग्रेस द्वारा बोम्मई सरकार की चौतरफा घेरेबंदी को तोड़ने के लिए बीजेपी ने कई दूसरे प्रयास किए हैं। जिसमें कांग्रेस के भीतर खलबली पैदा करना उसका प्रमुख कार्यभार हो गया है। इस सिलसिले में उसने दक्षिण को केंद्रित किया है।

तात्कालिक तौर पर इस नजरिये से उसे अच्छी सफलता भी मिली है। गांधी परिवार के विश्वसनीय नेता एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी को बीजेपी में शामिल करवा कर उसने कांग्रेस को गहरी चोट पहुंचाने की कोशिश की है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किरण रेड्डी को अपने पाले में कर उसने दक्षिण और खासकर आंध्र प्रदेश के लिए एक बड़ा संदेश दिया है।

यह सिलसिला अगर इसी तरह से आगे बढ़ा तो कर्नाटक के प्रवेश द्वार से आगे बढ़ने का उसका रास्ता आसान हो जाएगा। इन दोनों फैसलों से न केवल कर्नाटक के बीजेपी कार्यकर्ताओं के मनोबल में उछाल आएगा बल्कि जनमत को भी एक स्तर पर प्रभावित करने का उसे मौका मिलेगा।

ये मामले यहीं तक सीमित नहीं हैं। राजस्थान में पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठने की घटना अभूतपूर्व है। हमको नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी के सहयोग से ही उन्होंने पिछली बगावत की थी।

हालांकि कांग्रेस ने समय रहते उसे मैनेज कर लिया था। लेकिन पायलट की नई पहल न केवल उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकती है बल्कि राजस्थान पंजाब और उत्तराखंड के हश्र को प्राप्त हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि पायलट की इस पहल से बीजेपी और खासकर मोदी को दोहरा फायदा होता दिख रहा है।

एक तरफ उनसे 36 का रिश्ता रखने वाली वसुंधरा निशाने पर हैं दूसरी तरफ बीजेपी के सत्ता में आने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। वसुंधरा को निशाना बनाने से लेकर गहलोत के खिलाफ पायलट के इस दूसरी बगावत के पीछे भी मुख्य भूमिका बीजेपी की हो इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

और पिछले दिनों रामनवमी और उसके आगे-पीछे जिस तरह से देश के स्तर पर सांप्रदायिकता की आग को उदगारने की कोशिश की गयी है वह साबित करती है कि संघ ने 24 के चुनाव की तैयारी की कमान अपने हाथ में ले ली है। बिहार में पकड़े गए बजरंग दल से जुड़े नेताओं और पूरे घटनाक्रम के पीछे की साजिशों के पदार्फाश के बाद यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि बिहार शरीफ में जलाया गया अजीजिया मदरसा समेत तमाम सांप्रदायिक घटनाओं को बिल्कुल सोची-समझी रणनीति के साथ अंजाम दिया गया है।

विपक्ष की घेरेबंदी से परेशान बीजेपी और संघ ने एक बार फिर से पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल गरम करने का फैसला ले लिया है। इतिहास एक बार फिर अपने को दोहराता दिख रहा है। जब जनता पार्टी की सरकार के दौरान चौधरी चरण सिंह की जिद पर पुलिस ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया था। जबकि उनके खिलाफ मुकदमा चलाने का कोई ठोस आधार नहीं था।

लिहाजा गिरफ्तारी के साथ ही उन्हें जमानत मिल गई और फिर जनता पार्टी के पूरे मंसूबों पर पानी फिर गया। इसी के साथ ही इंदिरा का उभार और जनता पार्टी के पराभव का दौर शुरू हो गया। और अंत में 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गयीं। तो क्या माना जाए यह बीजेपी की सत्ता के अंत की शुरुआत है?


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