बेरोजगारी भारत के सबसे जटिल और गंभीर मुद्दों में से एक है, जो समाज और अर्थव्यवस्था दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। यह समस्या केवल नौकरी की कमी तक सीमित नहीं है; यह रोजगार की गुणवत्ता, स्थायित्व और आय के असमान वितरण से भी जुड़ी है। जब क्लर्क, चपरासी और सफाईकर्मी जैसे पदों के लिए एमए और पीएचडी जैसे उच्च शिक्षित लोग आवेदन करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी रोजगार व्यवस्था में बुनियादी खामियां हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में कामकाजी उम्र की आबादी में केवल 3 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं। यह आंकड़ा पहली नजर में आशावादी प्रतीत होता है, लेकिन वास्तविकता इससे बहुत अलग है। भारत में बेरोजगारी को मापने के लिए दो प्रमुख मानक अपनाए जाते हैं। पहला सामान्य स्थिति है जिसमें अगर व्यक्ति साल में 30 दिन से अधिक काम करता है, तो उसे बेरोजगार नहीं माना जाता। दूसरा साप्ताहिक स्थिति, जिसमें अगर व्यक्ति सप्ताह में एक घंटे भी काम करता है, तो उसे बेरोजगार की सूची से बाहर कर दिया जाता है। भारत में यह परिभाषा इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल वास्तविक बेरोजगारी को छुपाती है, बल्कि नीतियों को प्रभावी बनाने में भी बाधा उत्पन्न करती है।
यह परिभाषा इतनी व्यापक है कि इससे असली बेरोजगारों की गिनती ही नहीं होती। विकसित देशों की परिभाषा इससे बहुत अलग है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में यदि व्यक्ति पिछले चार सप्ताह में सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश कर रहा हो और काम के लिए उपलब्ध हो, तो उसे बेरोजगार माना जाता है।अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, 15 से 74 वर्ष का कोई भी व्यक्ति, जो सक्रिय रूप से नौकरी खोज रहा है, और जिसने पिछले चार सप्ताह में काम की तलाश की है या दो सप्ताह के भीतर काम शुरू करने के लिए उपलब्ध है, वह बेरोजगार की श्रेणी में आता है।
शिक्षा को हमेशा रोजगार का माध्यम माना जाता है। लेकिन भारत में यह धारणा बदलती हुई नजर आ रही है। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पी एल एफ एस) 2023-24 के अनुसार, बिना पढ़े-लिखे लोगों में 59.6 प्रतिशत रोजगार में हैं। इसके विपरीत, स्नातक और उससे अधिक शिक्षित लोगों में रोजगार दर केवल 57.5 प्रतिशत है। इंडिया एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट-2024 के आंकड़े दर्शाते हैं कि कम पढ़े-लिखे युवाओं में बेरोजगारी दर केवल 3.2 प्रतिशत है, जबकि उच्च शिक्षित वर्ग में यह दर 28.7 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। यह विरोधाभास कई सवाल खड़े करता है। प्रश्न उठता है कि क्या हमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुखी है? क्या स्नातकों और पोस्ट-ग्रेजुएट्स के पास वह कौशल है, जिसकी बाजार को आवश्यकता है? क्या शिक्षा केवल एक डिग्री प्राप्त करने तक सीमित रह गई है? आंकड़े बताते हैं कि भारत में शिक्षा और रोजगार के बीच तालमेल की भारी कमी है।
भारत में कामकाजी आबादी के बीच आय असमानता एक और बड़ी समस्या है। 78 प्रतिशत कामकाजी लोगों की मासिक आय 14,000 रुपये से कम है। स्वरोजगार करने वालों की औसत मासिक आय नौकरीपेशा व्यक्तियों से लगभग 7, 423 रुपये कम है। नौकरीपेशा लोग औसतन 20,000 रुपये प्रति माह कमाते हैं, जबकि स्वरोजगार करने वालों की आय इससे बहुत पीछे है। साथ ही भारत में बड़ी संख्या में लोग ऐसे काम कर रहे हैं, जिनमें वे न्यूनतम वेतन भी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। यह समस्या असंगठित क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलती है। आय की इस असमानता का प्रभाव न केवल व्यक्तिगत जीवन पर पड़ता है, बल्कि यह देश की आर्थिक प्रगति को भी बाधित करता है।
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी का स्वरूप और इसके कारण अलग-अलग हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की बात करें तो यहां ज्यादातर लोग कृषि और असंगठित क्षेत्रों पर निर्भर हैं। मौसमी रोजगार, कम आय, और स्थिरता की कमी यहाँ की प्रमुख समस्याएँ हैं। वहीं शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी में बेरोजगारी दर अधिक है क्योंकि प्रतिस्पर्धा तीव्र है और नौकरी के अवसर सीमित हैं। उच्च शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्रों में अधिक है। भारत में महिलाओं की रोजगार भागीदारी दर पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। सामाजिक बंधन, शिक्षा की कमी, और परिवार की प्राथमिकताओं के कारण महिलाएं कामकाजी क्षेत्र से दूर हो जाती हैं। बेरोजगारी समस्या के मूल कारण की बात करें तो पहला है, शिक्षा और कौशल का असंतुलन होना, इससेहमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुखी नहीं है। इससे स्नातक होने के बावजूद युवाओं के पास बाजार में मांग के अनुसार कौशल की कमी है। दूसरा, असंगठित क्षेत्र का वर्चस्व है।भारत में अधिकांश कामकाजी लोग असंगठित क्षेत्र में हैं, जहाँ न तो स्थिर आय है और न ही सामाजिक सुरक्षा। तीसरा, सरकारी नौकरियों पर निर्भरता अधिक है। सरकारी नौकरियाँ सुरक्षित और सम्मानजनक मानी जाती हैं। इसलिए बड़ी संख्या में लोग इन्हीं पर निर्भर रहते हैं, जबकि निजी क्षेत्र में अवसर सीमित हैं। चौथा, स्वरोजगार में रुचि की कमी है। स्वरोजगार करने वालों के लिए संसाधनों और प्रोत्साहन का अभाव है।
इससे पहके कि यह और मुश्किलें पैदा करें इसका समाधान निकालने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए कुछ बातों पर ध्यान देना होगा। जैसे कि पहला, शिक्षा प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए। शिक्षा को व्यावसायिक और कौशल विकास के साथ जोड़ा जाए।पाठ्यक्रम को उद्योग की जरूरतों के अनुसार तैयार किया जाए। दूसरा, स्वरोजगार को बढ़ाया जाया। स्वरोजगार के लिए आसान ऋण और प्रशिक्षण उपलब्ध कराए जाएं। युवाओं को उद्यमिता के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकार ने इसपर काम किया है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि लोगो में लोन का अभी भी भय है जिसे दूर करना सरकार की जिम्मेवारी है। तीसरा, असंगठित क्षेत्र में सुधार की जरूरत है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ लाई जाएँ और इनका न्यूनतम वेतन सुनिश्चित किया जाए। चौथा, महिलाओं के लिए विशेष योजनाएं लाई जाएं। महिलाओं को कार्यक्षेत्र में लाने के लिए विशेष रोजगार योजनाएं लागू की जाएं।
बाल देखभाल सुविधाएं और लचीले कार्य घंटे प्रदान किए जाएं। पांचवी,आधुनिक तकनीक और डिजिटल कौशल को बेहतर किया जाए। युवाओं को तकनीकी और डिजिटल कौशल से लैस किया जाए। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं।
बेरोजगारी का संकट केवल आंकड़ों की समस्या नहीं है, यह करोड़ों लोगों की जिंदगी को सीधे प्रभावित करता है। रोजगार केवल आय का स्रोत नहीं है; यह आत्म-सम्मान, सामाजिक पहचान, और जीवन की गुणवत्ता से भी जुड़ा है। भारत को इस समस्या से उबरने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। सरकार, उद्योग, और समाज को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि रोजगार के अवसर केवल बढ़ें नहीं, बल्कि वे गुणवत्तापूर्ण और टिकाऊ भी हों।