राजा दशरथ के चारों बेटों ने गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ली। वे राजकुमार थे, धनुर्विद्या में भी निपुण, शक्ति भी थी और सामर्थ्य भी। पूरे राजसी ठाठ से जीवन गुजर रहा था। एक दिन ऋषि विश्वामित्र आए। उन्होंने दशरथ से राम और लक्ष्मण मांग लिए। रावण की राक्षस सेना का आतंक बढ़ रहा था। वे ऋषियों के हवन-यज्ञों को बंद करा रहे थे। राक्षसों के संहार के लिए विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को चुना।
दशरथ पहले डरे, लेकिन फिर गुरुओं की बात मानकर राम-लक्ष्मण को भेज दिया। शक्तिशाली राक्षसों का मारकर ऋषियों को भयमुक्त कर राम का काम पूरा हो गया, लेकिन उन्होंने ऋषि विश्वामित्र का साथ तत्काल नहीं छोड़ा। जंगल-जंगल और कई नगरों में घूमते रहे। राम का कहना था कि और भी कहीं कोई राक्षस ब्राह्मणों, ऋषियों, निर्बलों को नष्ट कर रहे हों या कार्यों में बाधा डाल रहे हों, तो मैं उनका नाश करने के लिए तैयार हूं। शक्ति है तो उसका पहला उपयोग निर्बलों की सहायता, समाज की सेवा और विश्व के उत्थान में लगाना चाहता हूं।
इस पूरे अभियान में राम ने कई राक्षसों को मारा। विश्वामित्र ने राम को प्रसन्न होकर कई दिव्यास्त्र भी दिए, जो बाद में रावण से युद्ध में काम आए। शक्ति का सबसे श्रेष्ठ उपयोग जनहित में ही हो सकता है। शक्ति केवल उपहार नहीं होती। वह जिम्मेदारी भी है। हमें धन, बल, बुद्धि या विद्या कोई भी शक्ति मिले, तो उसका उपयोग सबसे पहले लोक हित में किया जाना चाहिए। तभी वह सफल और सुफल होगी। कहा जाता है जिसे सामर्थ्य का उपयोग करना आ गया, वह सारा संसार जीत सकता है।