Thursday, December 26, 2024
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सामयिक: ‘विश्व गुरु’ या सस्ता श्रम?

अनिल सिंह
अनिल सिंह
बहु-प्रतीक्षित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी-2020) एक रोज एकदम से आई और एकदम से ही स्वीकार ली गई। कोई चिल्ल्-पों नहीं हुआ। तर्क यह कि पहले ही राष्ट्रव्यापी, बहुस्तरीय कन्स लटेशन और सुझाव आदि हो चुका है और इस तरह अब यह फुल-प्रूफ शिक्षा नीति जनाकांक्षाओं और जन-अपेक्षाओं से ओत-प्रोत है। दावा है कि इसे समय की नब्ज को पहचान कर बनाया गया है और इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जिसका आमतौर पर संदेह किया जा रहा था। पर संदेह न करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रियान्वयन को मौजूदा सरकार और उसकी कार्य प्रणालियों व नीति-रीति के बरक्स देखना भी तो जरूरी है।
सन 1950 से हम शिक्षा को संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल करके, एक-के-बाद-एक नीतियां और कार्यक्रम बनाते चले आए हैं। उन दिनों हमने दम ठोंककर, दस सालों में सभी बच्चों को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने का वादा किया था। तब तो राजनीतिक प्रतिबद्धता भी थी, अब वह थोड़ी संदेहास्पद है। 1950 से गिनें तो 70 साल हो गए हैं, लेकिन नतीजा सिफर से थोड़ा ही आगे आया है। अब नई शिक्षा नीति-2020 के अनुसार दस सालों में स्कूल से बाहर हुए दो करोड़ बच्चों को वापस लाने का विशाल लक्ष्य सचमुच विशाल है। यह न होने जैसी बात का ही दुहराव मात्र है।
एनईपी-20 बाकी नीतियों की तरह ही एक गोल-मोल नीति है। समय के साथ यह समय की जरूरतों को पूरा करने वाली नीति ही कही जा सकती है। यह नीति वैश्विक विकास एजेंडा की बात करती है और इसीलिए 2030 तक सभी देशों की तरह, सभी के लिए समावेशी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने के लक्ष्य को सामने रखती है। भारत के लिए यह वैश्विक एजेंडा, विश्वबैंक के उस एजेंडे से कदमताल करता है जिसकी साफ हिदायतें हैं कि राज्य का ऐसा कल्याणकारी स्वरूप (वेल्फेयर स्टेट) धीरे-धीरे खत्म करते जाना चाहिए जो मुफ़्तखोरी को बढ़ावा देता है। जनता को स्वयं सक्षम और उपभोक्ता बनने की दिशा में ले जाया जाना चाहिए।
स्किल इंडिया के बाद एक बार फिर ज्ञान और तकनीकी के नाम पर आत्मनिर्भरता के जुमले के साथ स्कूल शिक्षा को स्किल बेस्ड नॉलेज (हुनर आधारित ज्ञान) और रिसोर्स (संसाधन) से जोड़ने की बात बहुत ही चतुराई से कही गई है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि बुनियादी तालीम के साथ गांधी का भी सपना आत्मनिर्भर समाज बनाने का रहा था, जिसमें शिक्षा को रोजगारोन्मुखी, जीवन और समुदाय से जुड़ी, श्रम के प्रति सम्मान सिखाने वाली, ग्राम-स्वराज की ओर ले जाने वाली माना गया था, लेकिन इस नीति में जो प्रावधान हैं वे ग्राम-स्वराज के लिए नहीं, बल्कि बाजार राज के लिए जान पड़ता है।
स्कूल के दौरान ही वोकेशनल ट्रेनिंग (व्यावसायिक प्रशिक्षण), कौशल उन्नयन और विषय की तरह उनकी पढ़ाई व प्रशिक्षण, शिक्षा और उसके अनुशासन में विविधता की बात तक तो ठीक है, लेकिन इसकी मंशा पर गौर करना जरूरी है। मौजूदा मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट कहती है कि ड्रॉप-आउट रेट (स्कूसल छोडने वालों की दर) 40  प्रतिशत है, हर साल नामांकित में से 50 प्रतिशत बच्चे ही 8वीं तक पहुंचते हैं, उनमें भी 17 प्रतिशत लड़कियां 14 साल या 8वीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं, 12 वीं तक सिर्फ 10 प्रतिशत बच्चे पहुंचते हैं। छूटने वाले और पहुंचने वाले ये कौन बच्चे हैं यह किसी से छुपा नहीं है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, ग्रामीण लड़कियों और विशेष जरूरतों वाले बच्चों का शिक्षा के इस संसार में क्या हश्र है इसके लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं। अब आठवीं (14 साल की उम्र) तक उन्हें किसी कौशल से नवाजने का मतलब आखिर क्या है? क्या एक बार फिर कामधंधों के हिसाब से जातियों वाला समाज बनने जा रहा है? क्या बच्चे अपने पुश्तैनी काम-धंधों में धकेल दिए जाएंगे? क्या उन्हें एक ऐसे मानव संसाधन के रूप में तैयार करके छोड़ दिया जाएगा जो बाद में कॉरपोरेट जगत के लिए कल-पुर्जे की तरह इस्तेमाल किए जाएंगे? क्या शिक्षा इसी का नाम है जिसके लिए इतनी महत्वाकांक्षी नीति बनाई गई है? या फिर ज्ञान के सुपर पॉवर वाले जुमले की आड़ में यह सस्ते श्रम उपलब्ध कराने वाले बाजार खड़े करने की दूरगामी योजना है? सवाल कई हैं, क्योंकि मंशा में खोट है।
नई नीति एक लोक-लुभावन बयान देती है कि प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कसी जाएगी। यह हर सरकार कहती है और उसके नियमन का एक ढांचा भी बनाती है, लेकिन दूसरे रास्ते से वही सरकार निजी स्कूलों को तमाम तरह की रियायतें देती है, फीस के बहाने लूट की खुली छूट देती है। अब फिर बाजारीकरण और निजीकरण को रोकने की खातिर सरकार की तरफ से कोई नियामक और नियंत्रक ढांचे का जिक्र इस नीति में नहीं है, बल्कि इसके उलट, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (सार्वजनिक-निजी गठबंधन) को बढ़ावा देने की बात करती है। तमाम कॉरपोरेट फाउंडेशन, पाठ्यक्रम बनाने से लेकर, शिक्षक प्रशिक्षण, स्कूल प्रबंधन, मूल्यांकन और निगरानी के काम में आगे आ रहे हैं और सरकार के सलाहकार की भूमिका में हैं। शिक्षक-प्रशिक्षण की डाइट जैसी सरकारी महत्वाकांक्षी संस्थाओं को दरकिनार कर निजी संस्थान शिक्षा की डिग्रियां बांट रहे हैं। निजी दानदाता संस्थाओं को शिक्षा के क्षेत्र की कमान सौंप कर एक तरह से निजीकरण, व्यवसायीकरण और कोर्पोरेटीकरण को ही प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि शिक्षा का भार परिवारों पर पड़े और राज्य की जवाबदेही धीरे-धीरे खत्म हो।
उससे भी आगे विरोधाभास तो यह है कि युक्ति-युक्तकरण के नाम पर अकेले मध्यप्रदेश में ही हजारों स्कूल बंद करने का पूरा बंदोबस्त कर लिया गया है। इसके नाम पर बजट कटौती और मर्जर का काम तेजी से चल रहा है। नई शिक्षा नीति-2020 इस पर चुप्पी साधे दिखती है। सकल घरेलू उत्पा द (जीडीपी) का 6 प्रतिशत शिक्षा में खर्च करने का वादा तो है पर ये जुटाया कहां से जाएगा, इस पर कोई खुलासा नहीं है। क्या विश्वबैंक और कॉरपोरेट पूंजी मिलकर देश की शिक्षा व्यवस्था चलाने वाले हैं? क्योंकि एक तरफ से ऋण आ रहा है और दूसरी तरफ से विचार। ये जुगलबंदी गरीब-गुरबा के बच्चों के लिए क्या समावेशी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की चिंता करेगी या कारपोरेट धर्म निभाएगी! समय की मांग है बाजार, बाजार और बाजार। और सब जानते हैं कि यह सरकार समय की नब्ज पहचानती है। नई शिक्षा नीति में इस बाजार की जरूरत को पूरा करने और भारत में सस्ता, कुशल श्रम उपलब्ध कराने के पूरे इंतजाम कर लिए गए हैं।
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