Wednesday, July 3, 2024
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भारत माता कौन है?

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Ravivani 33


04 8राहुल गांधी की अगुआई में इन दिनों भारत जोड़ो यात्रा जारी है और राजनीतिक पार्टियां उसका अपनी-अपनी राजनीति के लिहाज से मूल्यांकन कर रही हैं। ऐसे में कुछ लोग इसी यात्रा से दूसरे सबक भी निकाल रहे हैं। असुर राजा की वापसी भी त्यौहार है, तो रावण दहन भी। भारतीयता केवल यही नहीं है। नेति-नेति, यह भी नहीं, यह भी नहीं होते हुए भी यह भी, वह भी है। उसे एक रुप, एक रंग नहीं कर सकते। नेहरु की भाषा में वो मूलावशेषी तत्व है, जिसमें हर नये समूह से कुछ लिया गया, समाहित कर लोकरंग में ढाला गया और बिना मिटाये, नित नई सीख, फलसफे, अभ्यास को अपनाया गया। उसे भारत की खुशबू से नवाजा गया। भारत माता कभी केन्द्रीकृत नहीं हो सकती। उसकी रुह गांव-गांव, चौपाल, मोहल्ले, कस्बे में बसी है। भारत जोड़ो यात्रा के साथ बिताये एक माह में डिस्कवरी आॅफ इंडिया का पुर्नपठन किया। यात्रा अपने आप में भी एक किताब होती है। हालांकि किताबों की तरह इसकी कोई शब्द-सीमा नहीं होती, मगर वह हजारों साल के संचित अनुभव, साझे विवेक का पिटारा होती है। यात्रा में पंडित जवाहरलाल नेहरू की इस किताब को फिर से पढ़ने पर कई गांठें खुलीं।

नेहरू भारत माता की जय का गहनता से वर्णन करते हैं। स्वाधीनता-संग्राम सेनानी कैसे जेल की दीवारों पर बेड़ियों में जकड़ी देवी का चित्र उकेरते हैं, इसका भी उल्लेख मिलता है। सहज काव्यात्मक भाषा में गांव-गांव में हुए भारत माता कौन है, किस की जय का जिक्र मन को अचंभित करता है। गांव के लोगों से पूछते हैं कि कौन है भारत माता? क्या मात्र भारत का भूगोल या प्रकृति? झील, झरने, नदी, पहाड़, धरती, खेत, खलिहान, फसल, आबोहवा या कुछ और? भारत माता दरअसल भारत के करोड़ों लोग हैं। उनके बिना भारत माता कुछ नहीं। भारत माता माने भारत की प्रकृति और भारत के लोग।

यह महसूस हुआ कि भारत माता के कितने विविध रुप हैं। यात्रा ने साक्षात्कार कराया। सागर तट में सुदूर दक्षिणी छोर पर बसे केरल में असुर राजा बलि के वापस लौटने को ओणम के रुप में हर वर्ग, हर मजहब के लोग मनाते हैं। इसी केरल से आदिशंकर निर्गुण-निराकार का संदेश लेकर भारत के चार कोनों तक पहुंचे थे। तो भारत माता कौन है? भारत माता की जय के मायने हैं- दीवाली, ईद, होली, क्रिसमस, नानक, बुद्ध, कबीर की जय। भारत माता की जय के मायने हैं, नमस्कार, आदाब, कुरंजलि (मणिपुरी अभिवादन) की जय। किसान, लुहार, बुनकर, बढ़ई, मिस्त्री, तकनीकी इंजीनियर, साफ्टवेयर विशेषज्ञ, चिकित्सक, वैज्ञानिक, स्त्री-पुरुष, लैंगिग अल्पसंख्यक की जय।

पहली बार भारत माता का चित्र अबनीन्द्रनाथ ठाकुर ने बनाया था। तत्कालीन बंगाल के हालात को वो चित्र दशार्ता है। भारत माता के एक हाथ में धान है, दूसरे में कपड़ा। यह किसान और कामगारों का प्रतीक है। तीसरे हाथ में किताब, यानि ज्ञान है और चौथे हाथ में माला, यानि प्रज्ञा का प्रतीक।

औपनिवेशी हुकूमत की त्रासदी सबसे पहले बंगाल ने झेली। 1764 में बक्सर की लड़ाई जीतने के बाद कंपनी को बंगाल की दीवानी मिली। उनकी भू-राजस्व व्यवस्था ने किसानों को अपनी ही भूमि पर खेत-मजदूर बना छोड़ा। स्वामित्व जाता रहा। व्यापार व्यवसाय में कंपनी को चुंगी की माफी मिल गई। तो स्थानीय व्यापारी का माल अधिक दाम में बिकने लगा, क्योंकि उनको तो चुंगी देने के बाद मूल्य तय करना पड़ता था। कंपनी का माल सस्ता था तो स्थानीय व्यापार चौपट हुआ।

ढाका का कपड़ा बहुत महीन था, लेकिन इंग्लैण्ड में तीन हजार गुना सीमा-शुल्क लगाये जाने से निर्यात खत्म होने लगा। भारत केवल कच्चे माल का गोदाम होकर रह गया। सो धान और कपड़ा भूमिहीन किसान और बेरोजगार हुए बुनकर का प्रतीक था। इसके बावजूद भारत माता की छवि में आशा दिखाई पड़ती थी। उसी दौर में सबसे पहले बंगाल की चेतना जागी। किताब और माला उस सुप्त चेतना का आहृान है।

उसके बाद कई चित्र बने। पूरब और पश्चिम जैसी फिल्मों में सौम्यमुखी, ममतामयी, तिरंगा हाथ में लिये एक भारत माता प्रस्तुत की गई थी। पिछले कुछ सालों में भारत माता सिंह-वाहिनी, भगवा झण्ड़े के साथ दिखाई गई हैं। चेहरे का भाव ममता और सौम्यता का नहीं है। मातृत्ववादी प्रस्तुति आज के हुक्मरानों को दुर्बलता लगती है। उनके सपनों का भारत ऐसा नहीं है। उस भारत में प्रभुत्व संपन्न वर्ग का वर्चस्व स्थापित करना है। वो भय, क्रोध, नफरत से संचालित होता है। वह केन्द्रीकृत राजसत्ता, पूंजी और सामाजिक तौर पर प्रभुत्व संपन्न वर्ग के प्रधान्य का गठजोड़ है, लेकिन हुक्मरानों को समझना होगा कि देश क्षमता से ज्यादा समता, ममता से चलता है।

भारत के एक प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन की भारत माता भी देखी। उनकी यह पेंटिंग विवादास्पद मानी गई। भारत माता के चित्र में प्रमुखता से गौतम, गांधी, धम्म-चक्र दिखाया गया है। भारत माता उन्मुक्त दिखाई गई हैं। क्या भारत माता की उन्मुक्ति वर्चस्व-वादियों को रास नहीं आती? वैसे किसी भी स्त्री की उन्मुक्त चेतना इस वर्ग को पसंद नहीं। आज के हुक्मरान भारत माता को अपने लिए मात्र संसाधन, संपत्ति मानते हैं।

प्रकृति उनके दोहन के लिए है। ताकतवर वर्ग सत्ता संचालन के लिए और करोड़ों आमजन आज्ञा पालन करने के लिए हैं। उन आमजनों को बेड़ियों का एहसास न होने पाये, मगर वे सदैव बंधे रहें। न केवल हाथ पैरों से, बल्कि आंखों पर भी पट्टी चढ़ी रहे और प्रज्ञा अचेत रहे। यह भी एक तरह का औपनिवेशीकरण है।

हुक्मरान इस निश्चेत अवस्था को मुख्यधारा में लाना कहते हैं। यानि अपनी विभिन्नता को त्यागकर उनके बताये मुख्य को स्वीकार करना, लेकिन भारत में मुख्यधारा क्या है? हमारी तहजीब गंगा-जमनी कहलाती है। आखिर क्यों? जबकि इतनी अन्य नदियां हैं। जमुना तो इलाहाबाद में गंगा से जा मिलती हैं। गंगा भागीरथी और अलकनंदा के संगम से बनती हैं। मगर उससे भी पहले भागीरथी में बिलांगना मिलती है। अलकनंदा से मंदाकिनी और मंदाकिनी में अनेक नदियां आकर मिलती हैं। यह कहना अत्यंत कठिन है कि मुख्यधारा कौन सी है। किसी भी एक धारा के सूखने से गंगा माई अविरल नहीं रह जायेगी। हर धारा मुख्य है।

ऐसे ही भारत में आई हर मानव समूह की धारा और उनके वंशज मुख्य हैं। चाहे वो समूह पैंसठ हजार साल पहले अफ्रीका से आये हों, सात से तीन हजार साल पहले ईरान से और दो हजार साल पहले दक्षिण-पूर्व तथा मध्य-एशिया के घास के मैदानों से। वे सब भारतीय हैं, मुख्य हैं। उनके द्वारा लाई गई हर भाषाई शाखा, चाहे मुंडा-कोरकू हो, खासी, गारो, द्रविड या इंडो-आर्यन, सभी राष्ट्रीय हैं। उनके साथ आई हर जीवन-शैली घुमन्तू, पशुपालन, खेती, शिकार, शहरी, ग्रामीण में से सब मुख्य हैं।

असुर राजा की वापसी भी त्यौहार है, तो रावण दहन भी। भारतीयता केवल यही नहीं है। नेति-नेति, यह भी नहीं, यह भी नहीं होते हुए भी यह भी, वह भी है। उसे एक रुप, एक रंग नहीं कर सकते। नेहरु की भाषा में वो मूलावशेषी तत्व है, जिसमें हर नये समूह से कुछ लिया गया, समाहित कर लोकरंग में ढाला गया और बिना मिटाये, नित नई सीख, फलसफे, अभ्यास को अपनाया गया। उसे भारत की खुशबू से नवाजा गया। भारत माता कभी केन्द्रीकृत नहीं हो सकती। उसकी रुह गांव-गांव, चौपाल, मोहल्ले, कस्बे में बसी है।

यहां तक कि फलसफे के तौर पर उसकी कोई सरहद नहीं है। वो विश्वभर के अहिंसात्मक, कारुण संग्राम, संवाद, संदेश में फैली हुई है। ऐसी धारा जो चरैवेति-चरैवेति चलिष्याम: निरंतरं से परिभाषित होती है। वो बहती है; लेकिन उफनती नहीं है। निरंतर बहती जाती है। ठहरती है, लेकिन उसमें काई नहीं जमती।


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