जब सुप्रीम कोर्ट ने असाधारण तत्परता से अनवरत सुनवाई कर राम मंदिर विवाद में बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं के अनुकूल फैसला दिया था तब भारतीय राजनीति का एक अतिसामान्य प्रेक्षक भी कह सकता था कि यह हिंसा और उन्माद की राजनीति का अंत नहीं है, अपितु इस फैसले के बाद कट्टरपंथी शक्तियां अधिक बल एवं अधिकार पूर्वक अन्य मुस्लिम उपासना स्थलों पर अपना दावा प्रस्तुत करेंगी। फिर भी हम सबने-मानो इस विनाशकारी प्रवृत्ति का पूवार्नुमान लगाकर ही-जन सामान्य से अपील की थी कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश एक नई सकारात्मक शुरुआत करें, जिसमें मतभेद और मनभेद दोनों को समाप्त करने का संकल्प निहित हो।
ध्वस्त किए गए मंदिरों की संख्या दिन प्रतिदिन नई ऊंचाइयों को स्पर्श कर रही है। साठ के दशक में करीबन 300 हिन्दू मंदिर ध्वस्त होने के समाचार प्रकाशित हुए थे और अब यह संख्या 60000 को स्पर्श कर रही है। यह भी अंतिम नहीं है, कल्पना की उड़ान का कोई अंत नहीं होता। ज्ञानवापी विवाद की सधी हुई पटकथा का फिल्मांकन जारी है। टीवी चैनलों का अधिकांश समय इस विषय पर होने वाली हिंसक बहसों को समर्पित है।
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हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथी जैसे भड़काऊ बयान दे रहे हैं, उन्हें देख-सुनकर यह लगता है कि ये एक ही कारखाने में निर्मित उत्पाद हैं, जिन पर अलग-अलग कंपनियों के लेबल चस्पा किए गए हैं। सोशल मीडिया पर वायरल पोस्टों की बाढ़ सी आई हुई है। देश का नया इतिहास व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के विद्वानों द्वारा लिखा जा चुका है अब इसकी पुष्टि सरकारी महकमे द्वारा की जानी है। इस पटकथा में पूजा स्थल अधिनियम 1991 जैसा पेंच भी है किंतु पटकथा लेखक इस बात के लिए आश्वस्त हैं कि अधिनियम के भीतर ही किसी प्रावधान की इच्छित व्याख्या से पटकथा को मनचाही दिशा मिल जाएगी। अन्यथा फिर ‘मजबूत फैसले लेने वाली बहुमत की सरकार’ तो है ही।
ऐसे कानूनी दांवपेंच पटकथा को रोचक बनाने का जरिया हैं। इन्हें पटकथा से अलग मानना नासमझी है। पटकथा इतनी कसी हुई और रोचक है कि क्या सांप्रदायिक और क्या सेकुलर, सारे बुद्धिजीवी इसमें उलझे हुए हैं। युवा बेरोजगारी 24 प्रतिशत पर है, देश में तीस करोड़ युवा बेरोजगार हैं, खुदरा महंगाई की दर 8 वर्ष के उच्चतम स्तर पर है जबकि थोक महंगाई 15.5 प्रतिशत के शिखर को स्पर्श कर रही है। लेकिन पूरा देश उन मस्जिदों की सूची बना रहा है जिनके स्थान पर मंदिर बनाए जाने हैं।
कुछ नासमझ लोग यह चीख-चीख कर कह रहे हैं कि पूजा स्थलों को ध्वस्त किया जाना मध्य कालीन भारत में एक सामान्य प्रक्रिया थी और हमारे देश में चाहे जिस धर्म के भी पूजा स्थल हों-मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च- सभी का कभी न कभी विध्वंस हुआ है। मंदिर राजसत्ता से संरक्षित होते थे, उनकी संपदा अकूत थी। राजाओं के आपसी युद्ध के बाद विजयी राजा कुछ संपत्ति के लिए और कुछ अपनी सर्वोच्चता दिखाने के लिए इन्हें ध्वस्त कर लूट लेते थे। ऐसा हिंदू राजाओं ने भी किया है|
वे कभी मंदिर की संपदा और भगवान की मूर्तियों को अपने अधिकार में ले लेते थे, कभी इन मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर देते थे। बौद्ध और जैन धर्म के उपासना स्थलों पर क्या बीती यदि इसकी पड़ताल प्रारम्भ की जाए तो कटुता और वैमनस्य का एक नया दौर शुरू हो सकता है।
किंतु इन पागल बुद्धिजीवियों के कथन इतिहास के खारिज किए गए पाठ पर आधारित हैं, नए भारत में ऐसा कोई भी विचार जो सामाजिक समरसता, सांप्रदायिक सद्भाव और शांति की स्थापना में सहायक हो सकता है, अस्वीकार्य है। इसीलिए इन विद्वानों पर भाषिक, शारीरिक और कानूनी आक्रमण हो रहे हैं। आखिर तर्कशीलता भी तो नए भारत में जुर्म है क्योंकि अब हमें आस्था से संचालित होना है।
हम साम्प्रदायिक हिंसा के एक लंबे दौर की ओर धकेले जा रहे हैं। इतिहास की गलतियों को सुधारने के नाम पर उन्हीं भूलों को दुहराया जा रहा है। क्या गौरवशाली 75 वर्ष पूर्ण करने की ओर अग्रसर हमारे लोकतंत्र को इस ऐतिहासिक अवसर पर मध्यकालीन अंधकार में ले जाने की तैयारी है? क्या भारत की युवा आबादी अपनी ऊर्जा अब अल्पसंख्यक समुदायों के उपासना स्थलों के विध्वंस में लगाएगी? क्या हमारे भावी जीवन का आधार प्रतिशोध और हिंसा होंगे? यह प्रश्न जितने गहरे हैं इनके संभावित उत्तर उतने ही बेचैन करने वाले हैं।
नया भारत बहुलताओं को बर्दाश्त नहीं कर पाता। हम केवल मंदिरों का देश बनना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि विलक्षण भाषाई विविधता वाले देश के लोग एक भाषा बोलें-वह भाषा नहीं जो उनके अस्तित्व की पहचान है बल्कि वह भाषा जो कट्टरपंथियों को पसंद है। नए भारत का ड्रेस कोड अब हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा तय किया जाना है, कौन सी पोशाक पहनने से भारतीयता और राष्ट्र भक्ति झलकती है, अब वे तय करेंगी।
जब उनकी इच्छा होगी तब वे केवल इसलिए लोगों को हिंसा का शिकार बनाएंगी कि वे एक खास तरह से काटा गया मांस खाते हैं। हम स्वयं मांसाहारी हो सकते हैं किंतु शाकाहार न करने पर दूसरों को प्रताड़ित करना हमारा विशेषाधिकार है। शायद आने वाले दिनों में भीड़ शाकाहार न करने वालों को मृत्युदंड दे दे।
वह साझा अतीत जो हम जी चुके हैं और जिसकी विशेषताएं हमारे लोकव्यवहार का अंग बन चुकी हैं, उसे केवल नाम बदलकर मिटाया नहीं जा सकता। पर हम हैं कि संस्कृतनिष्ठ नामों का सहारा लेकर इन धरोहरों और नगरों पर हिंदुत्व का ठप्पा लगाने में लगे हुए हैं। पता नहीं यह कैसी मनोविकृति है कि हम सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और इस्लाम धर्म की उत्पत्ति हिन्दू धर्म से मानकर इन्हें हिन्दू धर्म के अधीन लाने के अतार्किक विचार से आनंदित हो रहे हैं।
वे धर्म जो सनातन धर्म की जकड़न और कर्मकांडों से विद्रोह कर पैदा हुए और वे धर्म जो एकदम अलग पृष्ठभूमि से आए हैं, हमारे विकृत मस्तिष्क को हिन्दू धर्म के अंग नजर आ रहे हैं। हम इन धर्मों के अनुयायियों पर हमारी अधीनता स्वीकार करने के लिए दबाव बना रहे हैं।
सांप्रदायिकता के इस विस्फोट को रोकेगा कौन? क्या हिंदुत्व के नए संस्करणों की तलाश करती टूटती-बिखरती नेतृत्वहीन कांग्रेस पार्टी से आशा लगाई जाए? अथवा उन क्षेत्रीय दलों से किसी प्रतिरोध की अपेक्षा की जाए जिनके वयोवृद्ध क्षत्रप और उनके अयोग्य उत्तराधिकारी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं?
क्या उन क्षेत्रीय नेताओं से आशा लगाई जाए जो भाषा और क्षेत्रवाद के जहर में सांप्रदायिकता के विष की काट तलाश रहे हैं? क्या उस दलित नेतृत्व से उम्मीद बांधी जाए जो ब्राह्मणवादी मूल्य मीमांसा से संचालित है? क्या इस आशा में हाथ पर हाथ रखकर बैठना उचित है कि हमारी लड़ाई कोई और लड़ेगा?