अवधेश श्रीवास्तव आठवें दशक के लेखक हैं। उनकी कहानियां 1974 से प्रकाशित हो रही हैं। अपने समय के मशूहर लेखकों ने उनकी कहानियां की प्रशंसा की है। विष्णु प्रभाकर ने उनकी कहानियों के विषय में कहा था, अवधेश श्रीवास्तव कल्पना के रंग के निवासी नहीं हैं। आकाश उनके लिए सुंदर हो सकता है, पर दृष्टि उनकी धरती पर रहती है। वह अपने परिवेश से जुड़े सामाजिक प्रश्नों से जूझते हैं। सामाजिक पहलुओं को उजागर करती कहानियां पाठक को उलझाती नहीं हैं बल्कि सीधे चोट करती हैं। विष्णु प्रभाकर की बात पर यकीन किया जाए तो यह बात समझ आ जाती है कि अवधेश श्रीवास्तव की कहानियों में कल्पना के रंग नहीं होंगे। अवधेश श्रीवास्तव की कहानियों को सपाट बयानबाजी भी कहा गया। ऐसी सपाटता जो सपाट होने के बावजूद अपने आसपास की दुनिया और उस दुनिया के सच पर उंगली रखती है। संयोग से, हाल ही में उनका एक कहानी संग्रह ‘अपनी-अपनी दुनिया’ (अमन प्रकाशन, कानपुर) पढ़ा। यह एक अवसर भी था कि साढ़े चार दशकों में एक लेखक की ‘ग्रोथ’ को देखा जा सके। इस संग्रह में 1974 से लेकर 2018 के समय में प्रकाशित कहानियां हैं। यानी इस संग्रह की कहानियों से आप पिछले लगभग 45 साल के समय को देख सकते हैं। इन कहानियों के विषय निम्नमध्यवर्गीय ग्रंथियां, बेरोजगारी, जीवन में भ्रष्टाचार, शिक्षण जगत में फैला भ्रष्टाचार, श्रमिक आंदोलन ही हैं। अवधेश श्रीवास्तव की कहानियों में आपको किसी तरह की कलात्मकता या भाषाई जादू दिखाई नहीं पड़ेगा। इन कहानियों को पढ़ते समय (खासकर आज की पीढ़ी को) एक खास तरह की सपाटता ही दिखाई पड़ेगी। किसी तरह की जटिलता भी इन कहानियों में नहीं है। कल्पना और स्वप्न भी यहां आपको नहीं मिलेंगे। इन कहानियों को पढ़कर यह भी अहसास होता है कि इनमें कोई दूरगामी सोच नहीं है, कोई विचार यहां नहीं है। लेकिन एक बात सच है कि ये कहानियां अपने समय को ईमानदारी से लिखती हैं। यहां भी आपके मन में यह बात आ सकती है कि पिछले साढ़े चार दशकों में भारतीय समाज कितने बदलावों से गुजरा है, लेकिन ये बदलाव आपको कहानियों में कहीं दिखाई नहीं देंगे। गौरतलब है कि आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण ने ना केवल भारतीय समाज को बदला बल्कि यथार्थ और शोषण के तरीकों को भी बदला है। कहानी का शिल्प, उसका कथ्य और भाषा तीनों पर इन बदलावों को व्यापक असर हुआ है। लेकिन उन पर अवधेश श्रीवास्तव उंगली नहीं रखते। वह आठवें दशक के बनाए अपने ही रास्ते पर चलते हैं। इस रास्ते पर चलते हुए ही वह अपनी कहानियों में आसपास की दुनिया देखते-दिखाते हैं।
‘एक थीं अनु दी’ कहानी में नायिका के श्रमिकों का नेता बनने से लेकर क्रांतिकारी बनने और फिर फांसी पर चढ़ जाने की कथा, सहज रूप में कही गई है। सिंगल लेयर की यह कहानी जो कह रही है, बस वही कहती है। उससे इतर सोचने या समझने की आपको आवश्यवकता नहीं है। अवधेश श्रीवास्तव की ‘विमल मेहता सेकिंण्ड’ में शिक्षण जगत में फैला भ्रष्टाचार सामने आता है। इसमें राजनीति और उसके खिलाफ छात्रों के आंदोलनों का खाका खींचा गया।
‘जख्म’ कहानी में समाज में फैल रहे छोटे अपराधों और उनसे लगते आम लोगों के जख्मों को चित्रित किया गया है। कहानी में अनेक चौंकाने वाले तथ्य भी हैं। मसलन बेरोजगारी से आजिÞज आ चुका नायक किसी काम के सिलसिले में लड़कियों की सप्लाई करने वाले रघुनाथ दादा के पास पहुंच जाता है। वहां रघु दादा बताते हैं कि उन्होंने कल ही एक नया ‘माल’ फंसाया है। नायक को पता चलता है कि यह नया माल उसकी अपनी बहन मधु है। रघु दादा का एक-एक शब्द उसके कानों में जहर बनकर उतरता है। यह कहानी 1979 में प्रकाशित हुई है। शायद इस दौर में इस तरह के छोटे-छोटे अपराध समाज में आकार ले रहे थे और लोग इनके जख्म झेल रहे थे।
‘दरार’ में बड़े घर में ब्याह दी गई बेटी किस तरह रिश्तों में दरार पैदा करती है, यह दिखाया गया है। ‘माहौल’ कहानी में बस में मिली एक नवजात लड़की के जरिये लेखक लड़कियों के प्रति समाज की सोच को दर्शाता है। ‘आवाज’ कहानी में एक बार फिर मजदूरों के हालात देखने को मिलते हैं। यहां नायक यूनियन के एक मामले में गवाही देने को राजी हो जाता है। मालिक उसे दो हजार रुपए देकर गवाही ना देने के लिए दबाव डालता है। नायक बिरजू की यह दुविधा इस कहानी में दर्ज हुई है। पर्यावरण के प्रति सरोकार भी इन कहानियों में दिखाई पड़ेंगे। ‘प्रायश्चित’ में विवेक विदेश से अपने गांव पहुंचता है। यहां उसे अपने दादा के तालाब की जमीन की समस्या हल करनी है। विरासत में मिले इस तालाब से पहली पानी गायब होता और फिर धीरे-धीरे वह एक गड्ढे में तब्दील हो जाता है। लेकिन यहां विवेक अपनी गांव की मित्र के साथ मिलकर बचाने का निर्णय करता है। तालाब भी बच जाता है और विवेक की गांव में पनपी प्रेम कहानी भी बच जाती है।
अवधेश श्रीवास्तव की कहानियों के किरदार किसी और ग्रह से नहीं आते बल्कि वे इसी समाज में रहने वाले हाशिये के लोग हैं। रिक्शा चलाने वाला (‘दर्द के साये’), रामकटोरी (‘शिकंजा’), गिरीश ‘सीने पर ठुकी कील’ आदि कई कहानियों में आपकी मुलाकात ऐसे किरदारों से होगी जो आपके आसपास के ही हैं, जिनकी दुख तकलीफों से आपका हमारा कोई वास्ता नहीं है। अवधेश श्रीवास्तव अपनी कहानियों में उसी दुनिया को चित्रित करते हैं, जो उन्होंने जैसी देखी है। 1974 में छपी ‘मुक्ति प्रसंग’ और 2018 में प्रकाशित ‘दर्द के साये’ और ‘प्रायश्चित’ के बीच अवधेश श्रीवास्तव की कहानियों में कुछ नहीं बदला है। कहानी लिखने का जो तरीका उन्होंने पहली कहानी में शुरू किया था, आज भी वही है। यही वजह है कि आज उनकी कहानियों को पढ़ते हुए आपको आज की नहीं बल्कि गुजरे चार दशकों पहले की दुनिया दिखाई देगी। संभवत: उस समय समाज में जटिलताएं उतनी नहीं थीं जितनी आज हैं। यही वजह है कि आपको इन कहानियों को पढ़ते समय जेहन पर जोर नहीं डालना पड़ेगा। हां, ईमानदारी और पारदर्शिता इन कहानियों में आपको जरूर मिलेगी। इस संग्रह के बहाने आप पिछले चार दशकों पर एक नजर जरूर डाल सकते हैं।