Friday, December 27, 2024
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अशांत मणिपुर चिंता का सबब

Samvad 1


RAJESH MAHESHWARI 2पूर्वोत्तर का छोटा सा सुंदर राज्य मणिपुर के इस वक्त हालात बिगड़े हुए हैं। मेइती समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के विरोध में राज्य में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए, जिसके बाद हिंसा भी भड़क उठी। करीब एक माह से पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर आग की लपटों में है। टकराव के बाद अब हत्याओं का दौर जारी है। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह कुकी आदिवासियों को ‘उग्रवादी’ करार दे रहे हैं और सुरक्षा बल 40 उग्रवादियों को ढेर कर चुके हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह 29 मई से मणिपुर के प्रवास पर हैं, लेकिन उनके आगमन की पूर्व संध्या पर 10 मौतें की जा चुकी हैं। मृतकों में एक महिला और असम पुलिस के दो कमांडो भी शामिल हैं।

मणिपुर के विभिन्न जिलों में करीब 400 घर जला दिए गए हैं। अकेले कक्चिंग जिले में ही 200 और विष्णुपुर में 150 घर आग की लपटों के शिकार हो गए हैं। गुस्साई और उत्तेजित भीड़ ने 4 विधायकों के घरों पर भी हमले किए हैं। मौत और आगजनी का यह सिलसिला तब है, जब थलसेना अध्यक्ष जनरल मनोज पांडे मणिपुर में ही डेरा डाले हुए हैं।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय भी वहां के हालात का जायजा लेने गए थे। इनके अलावा, सुरक्षा बलों और सेना के 36,000 से ज्यादा जवान भी मणिपुर में तैनात किए गए हैं। मणिपुर में मैतेई, नागा और कुकी, ये तीन प्रमुख समुदाय है। इनमें नागा और कुकी आदिवासी हैं, जिन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है, इन दोनों समुदायों के ज्यादातर लोग ईसाई धर्म को मानने वाले हैं।

जबकि मैतई हिंदुओं की आबादी वाला समुदाय है, जो अब तक गैरआदिवासी माना जाता था, लेकिन बीते मार्च महीने में मणिपुर हाईकोर्ट ने मैतई समुदाय को भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का आदेश दिया। यह आदेश 19 अप्रैल को हाईकोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड हुआ।

इसके बाद से यहां असंतोष की चिंगारी सुलगने लगी जो अब आग का रूप ले चुकी है। क्योंकि अब इस राज्य में आदिवासी और गैरआदिवासियों के बीच जमीन और अन्य सुविधाओं के अधिकार का सवाल खड़ा हो गया है। लगभग साढ़े 22 हजार वर्ग किमी में फैले मणिपुर में लगभग 10 इलाका घाटी का है और शेष 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाका है।

राज्य के कानून के मुताबिक पहाड़ी इलाके में केवल आदिवासी ही बस सकते हैं, जबकि घाटी गैरआदिवासियों के लिए है और आदिवासी चाहें तो यहां भी रह सकते हैं। इस तरह 53 प्रतिशत आबादी वाले मैतेई समुदाय के लिए अब तक घाटी का ही इलाका था, लेकिन अब अजजा दर्जे के बाद वे पहाड़ी इलाके में भी जा सकेंगे।

इतना ही नहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में भी अब मैतेई समुदाय का हिस्सा होगा, जिसे लेकर राज्य के आदिवासी सशंकित है। मैतेई लोन या मणिपुरी भाषा को केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल की परीक्षा में स्वीकृति मिली हुई है, संविधान की आठवीं अनुसूची में भी मैतेई भाषा को शामिल किया गया है।

इन सब वजहों से यह धारणा बनी हुई है कि मैतेई समुदाय के लोग नागा और कुकी समुदाय की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हैं, और अब उन्हें आदिवासियों के अधिकारों में भी हिस्सा मिल जाएगा। इसी वजह से आदिवासी छात्र संगठनों ने इस फैसले का व्यापक विरोध किया।

यह बेहद गंभीर और संवेदनशील मामला है, क्योंकि पूर्वोत्तर के एक राज्य में उग्रवाद इस तरह पनपता और बढ़ता रहा, तो वह दूसरे राज्यों में भी जा सकता है। पूर्वोत्तर ने लंबे समय तक उग्रवाद को झेला है और भारत की मुख्य धारा से वह कटा रहा है। ये टकराव, मारा-काटी और मुठभेड़ राज्य के उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भडके हैं, जिसमें न्यायाधीश ने मैतेई समुदाय को ‘अनुसूचित जनजाति’ का दर्जा देने की बात कही थी।

हालांकि सर्वोच्च अदालत ने एकल न्यायाधीश की पीठ के ऐसे निर्देश को ‘बिल्कुल गलत’ करार दिया है, लिहाजा उसके बाद हालात शांत और सामान्य होने चाहिए थे, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप और भाजपा नेतृत्व के निर्देशों के बावजूद मणिपुर की आग मद्धिम भी नहीं हुई है।

मै तेई मणिपुर का बहुसंख्यक, हिंदूवादी और वर्चस्ववादी समुदाय है, जो अधिकतर इम्फाल घाटी में बसा है। जो आदिवासी पहाड़ी जिलों के भू-भाग में बसे हैं, उनके साथ मैतेई के संबंधों का इतिहास कड़वा रहा है। कमोबेश मुख्यमंत्री और सरकार को यह आकलन कर लेना चाहिए था कि उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद अशांति, बेचैनी, तनाव और अराजकता के हालात बन सकते हैं।

प्रशासन और सरकार चलाना बुनियादी तौर पर राजनीतिक कर्म है, लिहाजा कानून-व्यवस्था को बरकरार रखना सरकार का ही दायित्व है। मैतेई समुदाय भाजपा-समर्थक है और सम्पन्न, समृद्ध समाज है। उसी के विधायक सबसे ज्यादा हैं। फिर भी उसे ‘आदिवासी’ का दर्जा चाहिए, ताकि आरक्षण के फायदे बटोरे जा सकें।

यह खौफ और डर कुकी, नगा, जूमी आदिवासियों में है, लिहाजा अब वे अपनी नई मांग पर अड़े हैं कि उन्हें पहाड़ी जिलों के लिए ‘पृथक प्रशासनिक तंत्र’ चाहिए। दरअसल मणिपुर के जलते हालात के लिए सिर्फ उच्च न्यायालय का फैसला ही एकमात्र कारण नहीं है।

राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारी से भागती रही है। वहां भाजपा की सरकार है। अदालत के फैसले के बाद आदिवासियों की एक सहानुभूति जनसभा ने आग में घी का काम किया। राज्य सरकार विभिन्न आदिवासी समूहों के साथ बातचीत कर स्थिति को शांत करने का प्रयास कर रही है, लेकिन ये प्रयास अब तक कोई ठोस परिणाम देने में विफल रहे हैं।

जैसे-जैसे हिंसा बढ़ी, सरकार ने स्थिति को नियंत्रण में लाने के प्रयास में चरम मामलों में दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया। सरकार ने भारतीय सेना को भी प्रभावित क्षेत्रों में तैनात किया, यह एक दुर्लभ कदम है जो स्थिति की गंभीरता को उजागर करता है।

सेना को कानून और व्यवस्था बनाए रखने और आगे की हिंसा को रोकने में पुलिस की सहायता करने का काम सौंपा गया है। इससे प्रभावित क्षेत्रों में शांति का आभास हुआ है, लेकिन तनाव अधिक बना हुआ है, मेइती समुदाय अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की अपनी मांग के लिए लगातार दबाव बना रहा है।

मणिपुर में यह अनावश्यक टकराव टाला जा सकता था, बशर्ते ऐसा कोई भी कदम उठाने से पहले सभी संबंधित पक्षों को विश्वास में लेकर चर्चा की जाती। किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाना चाहिए या नहीं, यह सवाल इतना सरल नहीं है बल्कि यह एक गंभीर मसला है, खासकर ऐसे राज्य के लिए जहां पहले से आदिवासियों और गैरआदिवासियों के बीच हितों के टकराव चलते रहे हों।

यह दायित्व केंद्र और राज्य सरकारों का है कि जलते हुए मणिपुर को शांत किया जाए। सरकार को बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और अन्य बुनियादी सुविधाओं में निवेश करके पहाड़ी क्षेत्रों के विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए। घाटी और पहाड़ियों के बीच असमानताओं को कम करने के लिए आदिवासी समुदायों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। जख्मों पर मरहम लगाने के लिए हाथों की जरूरत है, न कि आग में घी डालने की राजनीति की।


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