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संसद की गरिमा से खिलवाड़?

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संसद की गरिमा से खिलवाड़?

 


18वीं लोकसभा का पहला सत्र 24 जून से शुरू हुआ संसद सत्र 3 जुलाई को राज्यसभा की कार्रवाही से स्थगित हो गया, और इससे एक दिन पहले यानि 2 जुलाई को लोकसभा की कार्रवाही स्थगति हुई। लोकसभा चुनावों से निपटकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के गठन के बाद साल 2024 का ये पहला संसद सत्र नई संसद से शुरू हुआ। लेकिन दुख इस बात का हुआ कि इस संसद सत्र में कम ही सांसदों ने संसद की गरिमा का ख्याल रखा। जिस प्रकार से संसद में सरकार पक्ष के और विपक्ष के सांसदों द्वारा एक-दूसरे पर छींटाकशी की गई और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास किए, उनसे साफ जाहिर हो गया कि संसद की गरिमा गिराने में कोई किसी से पीछे नहीं है। कई बड़े राजनीतिक जानकार मानते हैं कि सरकार को आलोचना बर्दाश्त करनी ही चाहिए, क्योंकि सरकार के कई कामों में अगर कोई खामी होती है और उसे अपनी कमियों के बारे में विपक्ष से जितना बेहतर पता चल सकता है, वो खुद से नजर नहीं आएगा, क्योंकि सरकार को अपनी कमियां भी अच्छाइयां ही नजर आती हैं। सरकार को आलोचना बर्दाश्त करनी ही चाहिए। बहरहाल, संसद के लोकसभा सत्र में जिस प्रकार से नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से लेकर बाकी कई सांसदों ने सरकार को कई मुद्दों पर घेरा और सवाल उठाए, उससे सरकार ही नहीं, बौखलाई, बल्कि स्पीकर ओम बिड़ला भी गुस्से में दिखे, जो कि असल में नहीं होना चाहिए। ओम बिड़ला की दोबारा स्पीकर पद पर नियुक्ति के दौरान उन्हें संबोधित करते हुए जैसा कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि आपको पक्ष-विपक्ष न देखते हुए सभी सांसदों को एक समान नजर से देखना है, उसके ठीक उलटा ओम बिड़ला ने संसद में स्पीकर पोस्ट की गरिमा का ख्याल नही रखते हुए पक्षपात का अपना नजरिया पिछली बार की तरह ही कायम रखा। और देखा गया कि उन्होंने एक तरफ जहां राहुल गांधी से लेकर तमाम विपक्षी सांसदों को न सिर्फ लगातार डांटा, बल्कि उन्हें इस तरह से ट्रीट किया, जैसे चुने गए सांसद ही जाहिल हों, इसके अलावा विपक्षी सांसदों के माइक भी बंद किए गए। लेकिन वहीं दूसरी तरफ उन्होंने एक भी सरकार पक्ष के सांसद को उनके दुर्व्यवहार को लेकर बिल्कुल भी नहीं टोका, न ही उन्हें डांटा और न ही उनके माइक बंद हुए। हद तो यह तक हुई कि ओम बिड़ला प्रधानमंत्री मोदी के अशोभनीय भाषण पर भी मुस्कुराते रहे।

प्रधानमंत्री मोदी ने तो पहले ही प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ख्याल कभी नहीं रखा, और उन्होंने जिस प्रकार से संसद के भीतर राहुल गांधी को इशारे-इशारे में न सिर्फ बाल बुद्धि यानि एक प्रकार से नए शब्दों में पप्पू साबित करने की कोशिश की, बल्कि उनकी मां सोनिया गांधी को भी जमकर कोसा और इससे भी बड़ी हद ये हुई कि मोदी ने खुद को इशारों-इशारों में टीचर कह दिया, जबकि राहुल गांधी को एक बिगड़ा हुआ बालक कह डाला। क्या उन्हें संसद में भी चुटकुलेबाजी और जुमलेबाजी सूझती है, जिसमें उन्हें महारत हासिल है। वो सवालों के जवाब देने की बजाय अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को ही हर बार क्यों कोसने लगते हैं? और भाषा कैसी बोलते हैं, इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता। क्या उनके फिजूल के ब्यानों पर हंसने वालों को भी समझ नहीं आता कि संसद की गरिमा क्या होती है? लेकिन फिर भी यही लोग संसद की दुहाई देते नहीं थकते। इसके अलावा उन्होंने जिस प्रकार से लोगों को अपनी लच्छेदार बातों से गुमराह करने की कोशिश की, वो उनके अपने बचने के रास्ते निकालने को लेकर साफ जाहिर हो रहा था।

दरअसल, जिस प्रकार से संसद में कई विपक्षी सांसदों ने कई मुद्दे उठाए, प्रधानमंत्री मोदी को उन मुद्दों पर बोलना चाहिए था और इसके अलावा विपक्ष के सवालों के जवाब देने चाहिए थे। मसलन, राहुल गांधी ने नीट के पेपर लीक का मुद्दा उठाया, जो कि युवाओं के भविष्य से जुड़ा मुद्दा है। इसी प्रकार से कई सांसदों ने ईडी, सीबीआई के दुरुपयोग को लेकर सवाल उठाए, तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने ईवीएम मशीन को लेकर सवाल उठाए। हालांकि मैं ये नहीं कह रहा हूं कि विपक्षी सांसदों ने संसद की गरिमा का ख्याल रखा, लेकिन सरकार को उन्हें सलीके से जवाब देते हुए उन्हें शांत करना चाहिए था, न कि उन्हें भ्रष्टाचारी और सरासर गलत ठहराने के लिए कुछ भी बोलना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार अपने ब्यान में साबित करने की कोशिश की कि वो ही हर तरह से देश में शासन करने के योग्य हैं और वो ही सर्वोपरि हैं, उससे उनका अहंकार साफ झलकता दिखाई दिया। इसीलिए सांसद गौरव गोगोई ने कहा कि मोदी के पास दो अस्त्र हैं-भय और भ्रम। वो ईडी, सीबीआई और आईटी का भय दिखाते हैं और उन्होंने देश में भ्रम फैलाया है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल नरवणे ने वन रैंक, वन पेंशन पर सरकार को घेरा और कहा कि सरकार नो रैंक नो पेंशन ले आई।

इधर राज्यसभा में भी नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने हाथरस सत्संग कांड से लेकर कई जरूरी मुद्दे राज्यसभा में जब उठाए, तो देश के उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के स्पीकर जगदीप धनखड़ उनसे भिड़ते दिखे। जगदीप धनखड़ भी विपक्ष के सरकार पर हो रहे हमलों को नहीं सह पा रहे थे और सरकार का बचाव करने की लगातार कोशिश करते रहे। लेकिन सबसे अहम राज्यसभा सांसद मनोज झा ने भी चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए साफ कहा कि इलेक्शन कमीशन की क्रेडिबिलिटी पर सिर्फ 28 फीसदी लोगों को ही भरोसा है। उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा भरोसा तो ग्राम प्रधान का जनता में है। इसके साथ ही उन्होंने कई लोगों को संदिग्ध मौतों को लेकर सरकार से सवाल पूछे।
नए संसद भवन में जिस प्रकार से लोकसभा से लेकर राज्यसभा तक सरकारी पक्ष और विपक्ष के सांसदों में लगातार नोंकझोंक हुई और जिस प्रकार से सरकार, खास तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने बचाव का काम किया और जिस प्रकार से आज भी तीसरी बार सरकार बनने के बाद अपनी नाकामियों को छुपाते हुए अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को कोसा, उससे साफ हो जाता है कि मोदी के पास देश को बताने के लिए कुछ खास नहीं है, जो उन्होंने अपनी उपलब्धि के रूप में किया हो। हालांकि उन्होंने जो काम गिनाने की कोशिश की, उनमें लाग-लपेट ज्यादा थी और सच्चाई बेहद कम। वो बार-बार बोल रहे थे विकसित भारत, लेकिन भारत तो विकासशील ही है।

ये एक प्रकार का झूठ है, जो जनता से तब बोला जा रहा है, जब महंगाई और बेरोजगारी से वो त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है। उन्होंने बोला कि हमने 25 करोड लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाल दिया, दूसरी तरफ वो कहते हैं कि महीने का 5 किलो राशन उनकी सरकार देश के 80 करोड़ गरीबों को देती है। इस प्रकार प्रधानमंत्री कहना चाहते हैं कि देश में उनकी सरकार बनने से पहले 105 करोड़ लोग गरीब थे। लेकिन फिर समझ में नहीं आता कि हंगर इंडैक्स और पूअर इंडंक्स में हिंदुस्तान पिछड़ता क्यों जा रहा है? ऐसे तमाम मुद्दे हैं, जिन पर प्रधानमंत्री को जनता को जवाब देना चाहिए और अब जब वो खुद कह रहे हैं कि उन पर जनता जनार्दन से तीसरी बार भरोसा जताया है, तो उन्हें ईमानदारी के साथ एक बड़ी प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर देश के जुझारू और योग्य पत्रकारों के सवालों के जवाब देने चाहिए।