पाकिस्तान की आजादी के समय से ही वहां चल रहा बलूचिस्तान प्रान्त का अलगाववादी आंदोलन अपने इतिहास के सबसे खूंखार दौर में पहुंच गया लगता है। गत सप्ताह वहां हुए जाफर एक्सप्रेस ट्रेन अपहरण कांड तथा उसके जवाब में हुए सैन्य आॅपरेशन में सैकड़ों लोग मारे गये बताये जा रहे हैं जिसमें सेना के जवान और नागरिक शामिल थे। यह मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि विद्रोहियों ने बीते रविवार को एक बार फिर सेना के काफिले पर हमला कर आधा दर्जन से अघिक जवानों व नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया है। इस हमले की भी जिम्मेदारी ट्रेन अपहरण करने वाले संगठन बलूचिस्तान लिब्रेशन आर्मी ने ली है।
अपने देश के सबसे बड़े प्रांत के साथ शुरू से किए जा रहे सौतले और उपेक्षित व्यवहार के चलते पाकिस्तान में यह होना ही था। बलूचिस्तान का यह रक्तरंजित कांड किन्हीं मामलों में उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान (आज के बांग्लादेश) जैसा ही लगता है जहां अपने ही क्रूर शासकों के अत्याचार से आजिज आकर जनता ने विद्रोह कर दिया था और एक लंबे रक्तरंजित आंदोलन के बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आया था। उसी राह पर बलूचिस्तान भी चल रहा है। ध्यान रहे कि इसी के साथ वहां सिन्ध, खैबरपख्तूनख्वा तथा गिलगित बाल्टिस्तान प्रांतों में भी लंबे अरसे से अलगाववादी आंदोलन चल रहा है। जिसे हम बलूचिस्तान कहते हैं उसका कुछ हिस्सा पड़ोसी देश ईरान व अफगानिस्तान में भी है। ईरान का सिस्तान प्रांत तथा अफगानिस्तान का निमरुज, हेलमन्द और कान्धार का इलाका भी बलूचिस्तान ही है। क्षेत्रफल के लिहाज से बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है और यह देश के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से के 44 प्रतिशत भूभाग पर फैला हुआ है। इसकी भौगोलिक स्थिति और महत्त्व इसको पाकिस्तान के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बनाता है, क्योंकि यह न सिर्फ पाकिस्तान के लिए दुधारु गाय की तरह है बल्कि यही दक्षिण और मध्य एशिया तथा मध्य पूर्व के लिए उसका संपर्क मार्ग भी है। इसके सामरिक व व्यापारिक महत्त्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां ग्वादर बन्दरगाह है, जिसे चीन अपने संसाधनों से चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर योजना के तहत विकसित कर रहा है। पाकिस्तान का यह इलाका प्राकृतिक संपदाओं यथा-कोयला, गैस, सोना, तांबा तथा खनिज से भरपूर है। यहां चागल जिले में स्थित रेको दिक खदान दुनिया की बड़ी सोने और तांबे की खदानों में गिनी जाती है। यहां के डेरा बुगती इलाके में प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार है।
बावजूद इन सबके, विकास और बुनियादी सुविधाओं के नाम पर यह पाकिस्तान का सबसे पिछड़ा या यूं कहें कि उपेक्षित इलाका है और यही यहां के निवासियों में विद्रोह पनपने का कारण भी है। जानिये कि पाकिस्तान की जीडीपी का 57 प्रतिशत अकेले पंजाब प्रांत से आता है तो बलूचिस्तान से सिर्फ 05 प्रतिशत! पंजाब और सिंध जैसे प्रांतों में 30 और 25 विश्वविद्यालय हैं तो बलूचिस्तान में सिर्फ 06 और यही वजह है कि पंजाब में साक्षरता दर 66 प्रतिशत है, सिन्ध में 63 और खैबरपख्तूनख्वा में 55 प्रतिशत तो बलूचिस्तान में महज 44 प्रतिशत। गरीबी का आलम यह है कि यहां 70 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़कर चले जाते हैं। यहां की राजधानी क्वेटा में भी पेयजल की भारी किल्लत रहती है। स्वास्थ्य आदि की बदहाल व्यवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। असल में 1947 में भारत-पाकिस्तान बनने के समय ही बलूचिस्तान अपने चार प्रिंसली स्टेट- खारन, मकारन, लास बेला और कलात के साथ पाकिस्तान में शामिल होने के बजाय स्वतन्त्र रहना चाहता था, लेकिन सेना के बल पर इसे दबा कर पाकिस्तान में शामिल कराया गया। बलूचिस्तान का विद्रोह 1948 से ही शुरू हुआ जब मीर अहमद यार खान जिन्हें कलात का खान कहा जाता था, को अपदस्थ कर पाक सेना ने अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद आधा दर्जन से अधिक बार संगठित विद्रोह किया गया और अभी तक हो रहा है।
लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में हुए सफल विद्रोह तथा स्वतन्त्र बांग्लादेश बन जाने के बाद बलोच विद्रोहियों को लगा कि वे भी इसी तरह अपने प्रांत को आजाद करा सकते हैं। इससे भयभीत पाकिस्तानी प्रधानमऩ्ात्री जुलफिकार अली भुट्टो ने वर्ष 1973 में बलूचिस्तान की निर्वाचित अकबर खान बुगती की सरकार को बर्खास्त करके वहां बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान चलाया जिसमें 80,000 से अधिक सैनिकों ने भाग लिया। सेना ने अपने ही नागरिक ठिकानों पर बम गिरा कर हजारों नागरिकों को मार डाला। पड़ोसी देश ईरान ने इस डर से पाकिस्तान को समर्थन दे दिया कि कहीं बलोच आंदोलन का असर उनके अपने देश में भी न फैल जाए। लेकिन इस कार्यवाही ने बलोचों को और नाराज किया और यह लड़ाई चार साल तक चलती रही। भुट्टो को अपदस्थ कर सत्ता पर कब्जा करने वाले जनरल जियाउल हक ने बलूचिस्तान से सेना वापस बुलायी।
आज बलूचिस्तान में कई विद्रोही गुट हैं जिनमें बलोच लिबरेशन आर्मी, बलोच रिपब्लिकन आर्मी तथा बलोच लिबरेशन फ्रंट मुख्य हैं। इसके अलावा भी तमाम विद्रोही गुट हैं, जिनमें से कुछ तो सरकार से बलूचिस्तान के लिए स्वायत्तता की मांग करते हैं, लेकिन बड़े गुट बांग्लादेश की तरह पूर्ण आजादी की मांग करते हैं। बलूचिस्तान से कई नेता मुख्यमंत्री व केन्द्रीय मंत्री भी होते रहे हैं। ऐसे दो नेता-मीर जफरुल्ला खान जमाली वर्ष 2002 में तथा युसुफ रजा गिलानी वर्ष 2008 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी हुए। लेकिन ये बलूचिस्तान का भला नहीं कर सके।
पूर्वी पाकिस्तान के अलग होकर बांग्लादेश बन जाने के भौगोलिक व राजनीतिक अर्थ अलग थे, लेकिन बलूचिस्तान के अलग होने का पाकिस्तान के लिए बहुत गंभीर परिणाम होगा तथा वह आर्थिक, रणनीतिक व भौगोलिक तौर पर काफी कमजोर हो सकता है। बहरहाल इस्लामाबाद से ढाका की दूरी 2000 किमी से भी अधिक है और वहां के लिए जमीनी रास्ता न होकर सिर्फ हवाई मार्ग था, जो भारत के आसमान से होकर जाता था और महत्वपूर्ण यह था कि भारत और पूर्वी पाकिस्तान की 1600 किमी लंबी सीमा थी, जिससे ढाका आंदोलन को भारत से आसानी से मदद मिल जाती थी। लेकिन इस्लामाबाद से क्वेटा की दूरी 900 किमी के करीब है और उसका अपना जमीनी रास्ता है।
लेकिन बावजूद बांग्लादेश और बलूचिस्तान में रणनीतिक और भौगोलिक अंतर है। सीमावर्ती क्षेत्र होने के नाते भारत ने पूर्वी पाकिस्तान में खुला दखल दिया था लेकिन वह बलूचिस्तान में ऐसा नहीं कर सकता। बांग्लादेश के आजाद होते ही सोवियत रूस, भारत, अमेरिका व संयुक्त राष्ट्र ने तत्काल उसे मान्यता दे दी थी लेकिन बलूचिस्तान अगर आजाद हो भी जाता है तो उसके प्रति अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का रवैया शायद ऐसा न हो। फिर भी पाकिस्तान को यह याद रखना होगा कि वह लंबे समय तक इस क्षेत्र की उपेक्षा और दोहन नहीं कर सकता क्योंकि उसके पड़ोस अफगानिस्तान और ईरान में भी राजनीतिक और रणनीतिक परिस्थितियां बदल चुकी हैं और ये दोनों देश बलूचिस्तान को वही मदद करने में सक्षम हैं जो कभी भारत ने पूर्वी पाकिस्तान को दी थी। राजनीति भी आखिर विकट संभावनाओं का ही खेल है!