- अब हाईकोर्ट करेगा सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट ने दिया निर्देश
- 2 अक्टूबर 1994 में मुजफ्फरनगर में हुई भी बर्बरता
जनवाणी ब्यूरो |
देहरादून: मुजफ्फरनगर कांड़ के दोषियों को सजा का इंतजार और लम्बा हो गया है। पूरे मामले की गुत्थी सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए वापस हाईकोर्ट भेज दिया है।
अब हाईकोर्ट ही इस मामले पर सुनवाई करेगा। राज्य आन्दोलनकारियों के साथ 2 अक्टूबर को हुए मुजफ्फरनगर में हुई बर्बरता के दोषियों को सजा दिलाने को लेकर रमन शाह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद अब हाईकोर्ट में फिर याचिका दाखिल की जा रही है। याचिका में जिस गवाह को मारा गया है, उसकी भी न्यायिक जांच की मांग की गई है।
बर्बरता की हुई सीबीआई जांच
अक्टूबर 1994 को आंदोलनकारियों का मार्च दिल्ली के लिए निकला। पहाड़ से आंदोलनकारी जब रात 12.30 बजे मुजफ्फरनगर में नारसन से लेकर रामपुर तिराहा तक पहुंचे तो उन्हें रोक लिया गया। पुलिस ने अचानक लाठीचार्ज व आंसू गैस छोड़ना शुरू कर दिया। इस गोलीकांड में कई आंदोलनकारी शहीद हुए जबकि महिलाओं के साथ सामुहिक दुष्कर्म व छेड़छाड़ की घटनाएं हुईं।
इस मामले को लेकर सात अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड संघर्ष समिति ने आधा दर्जन याचिकाएं इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल कीं। छह दिसंबर 1994 को कोर्ट ने सीबीआई से खटीमा, मसूरी और मुजफ्फरनगर कांड पर रिपोर्ट मांगी। सीबीआई ने कोर्ट में सौंपी रिपोर्ट में स्वीकारा कि सात सामूहिक दुष्कर्म, 17 महिलाओं से छेड़छाड़ तथा 28 हत्याएं के केस हुए।
सीबीआई के पास कुल 660 शिकायतें की गईं थीं। 12 मामलों में पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। 19 जनवरी, 1995 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में आरोपित अफसरों ने सरकारी अनुमति के बिना मुकदमा चलाए जाने को लेकर याचिका दायर की। इस पर कोर्ट ने फैसला दिया कि हत्या, दुष्कर्म समेत संगीन अपराधों के मामले में शासकीय अनुमति की जरूरत ही नहीं है।
तारीख पर तारीख
कोर्ट ने इसे मानवाधिकार उल्लंघन मानते हुए मृतकों के परिजनों व दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं को 10-10 लाख रुपये मुआवजा और छेड़छाड़ की शिकार महिलाओं व पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के शिकार आंदोलनकारियों को 50-50 रुपये मुआवजा देने के आदेश दिया।
इस निर्णय के खिलाफ अभियुक्तों और यूपी सरकार ने चार विशेष अनुमति याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल कीं। 13 मई 1999 को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया जिनको मुआवजा दिया जा चुका है, उनसे वापस नहीं लिया जाएगा। विशेष सबूतों के साथ वाले को मुआवजा अनुमन्य कर दिया।
कोर्ट ने अपने फैसले में सीबीआई जांच के आदेश को बरकरार रखा तो सीबीआई ने 12 मामलों में चार्जशीट दाखिल की। सात मामले मुजफ्फरनगर में जबकि पांच मामले उत्तराखंड में हैं। इसी बीच आरोपितों ने केस को इलाहाबाद से लखनऊ कोर्ट ट्रांसफर के लिए अर्जी दाखिल की। चार मामलों के ट्रांसफर कर दिए जबकि एक मुकदमा इसलिए रुका कि अर्जी नहीं थी।
गवाह की हत्या
इसी बीच अलग राज्य बन गया तो सीबीआई ने पांच अभियुक्तों के खिलाफ धारा 304, 307 व 324 व 326, सपठित-34 आईपीसी के तहत आरोप पत्र दाखिल किया। 22 अप्रैल 1996 को सीबीआई कोर्ट के जज ने इसे 302, 307, 324, 326 व सपठित-34 के तहत केस नंबर 42-1996 में चार्ज फ्रेम किए।
22 जुलाई 2003 में तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह द्वारा 42-1996 में जमानत के बाद आरोप पत्र को उत्तराखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। कोर्ट ने अनंत कुमार सिंह की याचिका स्वीकार करते हुए सीबीआई कोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया।
22 अक्टूबर 2003 को आंदोलनकारियों पुनर्विचार याचिका दाखिल की तो जस्टिस पीसी वर्मा व जस्टिस एमसी घिल्डियाल की खंडपीठ ने पहले के आदेश को रिकॉल कर लिया। 28 मई 2005 को जस्टिस इरशाद हुसैन व जस्टिस राजेश टंडन की कोर्ट ने मामले को निरस्त कर दिया।
इस केस में कांस्टेबल एक संतोष गिरी हाजिर माफी गवाह था। उसकी बॉम्बे एक्सप्रेस में गाजियाबाद के समीप गोली मारकर हत्या कर दी गई। सीबीसीआइडी ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी। इसी बीच कोर्ट में आरक्षण का मामला चला। मानवाधिकार उल्लंघन होने को देखते हुए राज्य सरकार द्वारा दस फीसद क्षैतिज आरक्षण दिया गया।
आरक्षण पर बवाल
आंदोलनकारी करुणेश जोशी ने याचिका दायर कर शासनादेश का लाभ देने की मांग की। जस्टिस तरुण अग्रवाल की एकलपीठ ने 1269/2004 के शासनादेश को संविधान का उल्लंघन करार देते निरस्त कर दिया।
राज्य सरकार द्वारा 2010 आरक्षण नियमावली बनाई तो उस वक्त के चीफ जस्टिस बारिन घोष और जस्टिस सर्वेश गुप्ता ने मामले में सुनवाई के दौरान आंदोलनकारियों के लिए राउडी शब्द का प्रयोग करते हुए दोनों शासनादेशों के तहत नियुक्तियों पर रोक लगा दी।
जस्टिस आलोक सिंह व जस्टिस सर्वेश कुमार गुप्ता की खंडपीठ में अधिवक्ता रमन कुमार शाह आंदोलनकारियों की ओर से इन्टरवेंशन प्रार्थना पत्र दाखिल किया गया। कोर्ट से पूछा कि राउडी उत्तराखंडी हैं या आंदोलनकारी? तो कोर्ट ने मामला अग्रसारित कर दिया।
जस्टिस धूलिया व जस्टिस ध्यानी की खंडपीठ ने अलग-अलग फैसला दे दिया। जस्टिस ध्यानी ने आरक्षण को सही ठहराया तो जस्टिस धूलिया ने संविधान का उल्लंघन करार दिया। मामला फिर तीसरी बेंच को दे दिया गया तो वह जस्टिस धूलिया के पक्ष में चले गए।
राज्य आंदोलकारी रमन शाह ने इस मामले में पुनर्विचार याचिका दायर की गई। रमन शाह ने तीनों आदेशों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की गई है, जिसमें आन्दोलनकारियों को सरकारी नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण,पूरे मामले में दोषी आधिकारियों पर कार्रवाई और गवाह को मारने वालों के ख़िलाफ कार्रवाई की मांग की गई।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य आन्दोलनकारियों को 10 प्रतिशत आरक्षण के मामले में तो राज्य सभी 13 जिलाधिकारियों, प्रमुख सचिव गृह और उत्तराखंड आंदोलनकारी मंच को नोटिस जारी किए। लेकिन रामपुर तिराहे कांड के दोषियों को सजा के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को याचिका रेफर कर दी।
अस्मिता की लड़ाई
अधिवक्ता रमन साह कहते हैं कि आन्दोलनकारियों को 10 प्रतिशत आरक्षण वाले मामले पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है लेकिन मुजफ्फर नगर कांड़ के दोषियों पर कार्रवाई की मांग वाली याचिका को हाईकोर्ट भेजा गया है जिसके लिए वह पूरी ताकत से याचिका तैयार कर रहे हैं।
रमन शाह कहते हैं कि उनकी लड़ाई राजनीतिक नहीं बल्कि अस्मिता की लड़ाई है और इसमें वह हार नहीं मानेंगे। रमन शाह ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि जो सवाल हैं उन पर हाईकोर्ट का कोई आदेश अभी नहीं है लिहाजा इस पर वह सुनवाई नहीं कर सकते।
आज भी मांग रहे हैं न्याय
दो अक्टूबर में रामपुर तिराहा, एक सितंबर को खटीमा गोलीकांड और दो सितंबर को मसूरी गोलीकांड पर हर साल राज्य आन्दोलनकारी एकत्र होते हैं और राज्य सरकारों के खिलाफ नाराजगी व्यक्त करते हैं।
राज्य आन्दोलनकारी नारायण सिंह जंतवाल कहते हैं कि जो शहीदों के सपनों का उत्तराखण्ड था वो आज भी नहीं बन सका है। यही कारण है कि राज्य के लिए लड़ने वाले शहीदों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है। आन्दोलनकारियों ने साफ किया है कि जब तक राज्य के शहीदों को न्याय नहीं मिलेगा तक तक हर साल इसी तरीके से वह अपना विरोध जताते रहेंगे।