Tuesday, June 3, 2025
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पागल कौन


गांव में एक फकीर घूमा करता था। चीथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढाला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। कंधे पर पैबंदों से भरा झोला लिए रहता था। वह बार-बार उस गठरी को खोलता, उसमें बड़े जतन से लपेटकर रखे रंगीन कागज की गड्डियों को निकालता, हाथ फेरता और पुन: थेले में रख देता। जिस गली से वह निकलता, जहां भी रंगीन कागज दिखता, बड़ी सावधानी से वह उसे उठा लेता, कोने सीधे करता, तह कर हाथ फेरता और उसकी गड्डी बना कर रख लेता।

फिर वह किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहा करता, ‘ये मेरे प्राण हैं।’ कभी कहता, ‘ये रुपये हैं। इनसे गांव के गिर रहे अपने किले का पुनर्निर्माण कराऊंगा। उस किले पर हमारा झंडा फहरेगा और मैं राजा बनूंगा।’ गांव के बालक उसे घेरकर खड़े हो जाते और हंसा करते। वयस्क और वृद्ध लोग उसकी खिल्ली उड़ाते। कहते, पागल है, तभी तो रंगीन रद्दी कागजों से किले बनवाने की बात कर रहा है। उस फकीर की तरह हम भी रंग बिरंगे कागज संग्रह करने में व्यस्त हैं।

जिन सुखों के पिछे बेतहाशा भाग रहे हैं, अंतत: हमें मिलता ही नहीं। फकीर जैसे हम संसार के प्राणियों से कहता है, ‘तुम सब पागल हो, जो माया में लिप्त, तरह-तरह के किले बनाते हो और सत्ता के सपने देखते रहते हो, इतना अपने पागलपन को बुद्धिमत्ता समझते हो’ ऐसे फकीर हर गांव- शहर में घूमते हैं, किंतु हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है और कान बंद कर लिए हैं। इसी से न हम यथार्थ को देख पाते हैं, न समझ पाते हैं। वास्तव में पागल वह नहीं, हम हैं।

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