सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण सुनवाई करते हुए राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर रोक लगा दी है। अदालत ने केंद्र एवं राज्यों को निर्देश दिया है कि जब तक सरकार औपनिवेशिक युग के इस कानून पर फिर से गौर नहीं कर लेती, तब तक राजद्रोह के इल्जाम में कोई नई एफआईआर दर्ज न की जाए। पीठ ने कहा, हम उम्मीद करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारें किसी भी एफआईआर को दर्ज करने, जांच जारी रखने या आईपीसी की धारा 124 ए के तहत जबरदस्ती कदम उठाने से तब तक परहेज करेंगी, जब तक कि यह पुनर्विचार के अधीन है। शीर्ष अदालत के इस फैसले का न देश की विपक्षी पार्टियों ने स्वागत किया है, बल्कि उन लोगों ने भी सराहना की है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों, संवैधानिक मूल्यों और कानून के राज में यकीन रखते हैं।
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पिछले कुछ सालों से यह लगातार देखने में आ रहा है कि नागरिकों द्वारा शासन व्यवस्था पर किसी भी आलोचना, असहमति, मतभेद, सवाल या असंतोष को शांत करने के लिए कमोबेश सभी सरकारें, इस औपनिवेशिक कानून का दुरुपयोग कर रही हैं। नागरिकों को चुप कराने, डराने-धमकाने और लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए राजद्रोह के मामले दर्ज किए जाते हैं। जो कोई भी सरकार की जनविरोधी नीतियों से असहमति दर्शाता है, उस पर राजद्रोह कानून का शिकंजा कस दिया जाता है। उन्हें जे़ल में डाल दिया जाता है।
लेखक, कलाकारों, सोशल एक्टिविस्टों, राजनीतिक पार्टियों के कार्यकतार्ओं और यहां तक कि विद्यार्थियों को भी नहीं बख़्शा जा रहा। जबकि लोकतंत्र में असहमति एक अनिवार्य तत्व है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 से 2019 के बीच यानी पिछले दस साल में 11 हजार लोगों के खिलाफ 816 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। जिसमें से 65 फीसदी मामले मोदी सरकार के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद दर्ज हुए हैं।
बीते तीन साल यानी साल 2016 से 2019 के बीच दर्ज हुए राजद्रोह के मामलों का ही यदि आंकलन करें, तो इनमें 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। जहां तक इन मामलों में दोषसिद्धि का सवाल है, तो साल 2019 में राजद्रोह के 30 मामलों में फै़सला हुआ, जिनमें 29 में आरोपी बरी हो गए। सिर्फ एक मामले में दोषसिद्धि साबित हुई। बाकी सब या तो बाइज्जत बरी हो गए, या फिर उन पर अदालतों में मुकदमे जारी हैं।
ऐसे ज्यादातर मामलों में इल्जाम साबित हो ही नहीं पाते, पर अदालती सुनवाई की लंबी प्रक्रिया से गुजरना अपने-आप में किसी सजा से कम नहीं होता। मामला दर्ज होते ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जो चरित्र हनन होता है, वह अलग। ज्यादातर मामलों में विरोधियों को परेशान करने की नीयत से सत्ताधारी पार्टी, अपने लोगों द्वारा ही इस तरह के मामले दर्ज करवाती है। पुलिस जिसका पहला काम, मामले की अच्छी तरह से जांच करना और फिर उसके बाद मामला दर्ज करने का होना चाहिए, वह बिना सोचे-समझे या सरकार के दवाब में देशद्रोह जैसे गंभीर इल्जाम में मामला दर्ज कर लेती है।
अदालत के सख़्त रुख के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने पहले तो राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून (आईपीसी की धारा 124 ए) और इसकी वैधता बरकरार रखने के संविधान पीठ के 1962 के एक निर्णय का यह कहते हुए बचाव किया कि लगभग छह दशकों से यह कानून बना हुआ है और इसके दुरुपयोग के उदाहरण कभी भी इसके पुनर्विचार का कारण नहीं हो सकते हैं।
केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि किसी भी नागरिक को सरकार के तौर तरीकों के बारे में कुछ भी बोलने और लिखने का पूरा अधिकार है|
जब तक कि वो लोगों को विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा करने के लिए नहीं उकसाता और सामान्य जन जीवन को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करता है। देशद्रोह की धाराएं तभी लगाई जा सकती हैं, जब किसी अभियुक्त ने हिंसा करने के लिए लोगों को उकसाया हो या फिर जनजीवन प्रभावित करने की कोशिश की हो। यही नहीं साल 1995 में एक दीगर मामले में जिसमें दो लोगों पर देश विरोधी और अलगाववादी नारे लगाये जाने के आरोप लगे थे, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। क्योंकि उससे सरकार को कोई खतरा पैदा नहीं होता।
ज्यादा पीछे नहीं जाएं, सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के मामले को खारिज करते हुए कहा था कि हर पत्रकार केदारनाथ सिंह फैसले के तहत सुरक्षा का हकदार है। किसान आंदोलन के समय टूलकिट केस से संबंधित दिशा ए रवि मामले में भी अदालत ने अपने जमानत आदेश में सरकार के कदम की आलोचना की थी। अदालत ने यहां तक कहा था कि सरकारों के गुरूर पर लगी ठेस के लिए किसी पर राजद्रोह का इल्जाम नहीं लगाया जा सकता।
देश में अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1860 में स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के लिए राजद्रोह कानून बनाया था। जिसे साल 1870 में बाकायदा आईपीसी में शामिल कर लिया गया। अब जबकि एक बार फिर शीर्ष अदालत ने इस औपनिवेशिक कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं और सरकार को राजद्रोह कानून निरस्त करने की सलाह दी है|
तो सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस जनविरोधी को निरस्त करने की दिशा में आगे बढ़े। धारा 124 (ए) को भारतीय दंड संहिता से हटा दिया जाए। क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के मूल अधिकार ही सर्वोपरि हैं। असहमति, आलोचना और मतभेद लोकतंत्र को मजबूत बनाते हैं।