राज्यों में कांग्रेस में जारी अंदरुनी कलह को लेकर तो मीडिया में यह प्रचार आम है कि कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर है और पार्टी पर उसकी पकड़ खत्म हो गई है। इस प्रचार को हवा देने में भारतीय जनता पार्टी भी पीछे नहीं रहती है और उसके शीर्ष नेतृत्व से लेकर नीचे तक के नेता कांग्रेस की स्थिति पर तरह-तरह के कटाक्ष करते रहते हैं। इसके बरअक्स भाजपा के बारे में यह प्रचारित है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पकड़ पार्टी पर बहुत मजबूत है। इतनी मजबूत कि जितनी अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की भी अपने जमाने में नहीं रही। अब तो आंखों के इशारे से काम होता है। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी स्थिति कुछ समय पहले तक ही थी। पिछले कुछ दिनों से हालत यह है कि कई राज्यों में भाजपा के क्षत्रप अपने मन की कर रहे हैं और पार्टी नेतृत्व के आंख के इशारे को तो दूर, उसके कहे हुए को भी नहीं मान रहे हैं। यह स्थिति सिर्फ उन राज्यों में ही नहीं है जहां भाजपा सत्ता में है, बल्कि जिन राज्यों में पार्टी सत्ता में नहीं है वहां भी नेताओं के बीच सिरफुटौवल खूब जोरों पर जारी है। हाल के दिनों में कई भाजपा शासित राज्यों में ऐसे वाकये सामने आए हैं, जिनसे जाहिर हुआ है कि भाजपा के सर्वशक्तिमान नेतृत्व की हनक फीकी पड़ी है। लेकिन मीडिया में इस स्थिति को लेकर कोई चर्चा नहीं है।
कांग्रेस में केरल से लेकर पंजाब तक मची अंदरुनी घमासान तो मीडिया में छाई हुई है, लेकिन छत्तीसगढ़ से लेकर त्रिपुरा और कर्नाटक से लेकर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में चल रही भाजपा नेताओं की सिरफुटौवल पर किसी की नजर नहीं है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा के अंदर जारी घमासान की चर्चा मीडिया में कहीं नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिह और पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के बीच ऐसी तनातनी है कि जगदलपुर में हुए पार्टी के चिंतन शिविर में दोनों खेमों ने अपनी ताकत दिखाई।
इस जोर आजमाइश में कुछ केंद्रीय नेताओं की मदद से अग्रवाल खेमे ने रमन सिंह खेमे को हाशिए पर डाल दिया। विवाद इतना साफ दिखने लगा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचारक दीपक विस्फुटे और प्रांत प्रचारक प्रेमशंकर सिदार चिंतन शिविर में गए ही नहीं, जबकि घोषित कार्यक्रम के मुताबिक उन्हें भी आना था।
उत्तर प्रदेश में भी पार्टी की अंदरुनी हालत ठीक नहीं है और वहां कुछ दिनों पहले के घटनाक्रम से जाहिर हुआ है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आगे भाजपा नेतृत्व की हनक फीकी पड़ी यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ पार्टी में कभी भी किसी की पसंद नहीं रहे हैं।
सूबे का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने और कुछ भले ही न किया हो मगर हिंदुत्व के अखिल भारतीय पोस्टर ब्वॉय के तौर पर अपना कद मोदी के बराबर जरूर कर लिया है। देश भर में भाजपा के समर्थकों के मोदी के बाद सबसे लोकप्रिय चेहरा योगी का ही है। योगी का यही कद मोदी को और उनसे भी ज्यादा गृह मंत्री अमित शाह को खटक रहा है।
पिछले दिनों केंद्रीय नेतृत्व ने उन पर लगाम कसने के इरादे से एक पूर्व आईएएस अफसर अरविंद शर्मा को उत्तर प्रदेश में पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर लखनऊ भेजा था। मोदी अपने इस विश्वस्त रहे अफसर को राज्य सरकार में उप मुख्यमत्री बनवाना चाहते थे। लेकिन योगी ने उप मुख्यमंत्री बनाना तो दूर, उन्हें मंत्री तक नहीं बनाया।
योगी ने केंद्रीय नेतृत्व के सामने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पार्टी उनके चेहरे पर ही चुनाव लड़ेगी और फिलहाल पार्टी उन्हीं के चेहरे और नाम पर चुनाव लड़ती दिख रही है। योगी भी सब कुछ अपने नाम और चेहरे को आगे रख कर ही कर रहे हैं।
कभी उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा रहे उत्तराखंड में भी अंदरुनी कलह के चलते पार्टी चार साल में तीन मुख्यमंत्री बदल चुकी है, लेकिन फिर भी कलह थमने का नाम नहीं ले रही है। दो महीने पहले जब तीरथ सिंह रावत को हटा कर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब भी सूबे के वरिष्ठ नेता असंतोष जताते हुए उनके नेतृत्व में काम करने से इंकार कर दिया था।
उस समय तो केंद्रीय नेतृत्व ने मान-मनौवल कर जैसे तैसे नाराज विधायकों को मंत्री बनने के लिए राजी कर लिया था, लेकिन अभी भी स्थिति वहां सामान्य नहीं है और मुख्यमंत्री को अपने मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों के गुटों का सहयोग नहीं मिल पा रहा है।
कर्नाटक में भी पार्टी अंतर्कलह के दौर से गुजर रही है। लंबी जद्दोजहद के बाद पिछले दिनों हुए नेतृत्व परिवर्तन के बाद भी विधायकों का असंतोष थमा नहीं है। मंत्री बनने से रह गए भाजपा विधायकों ने सीधा मोर्चा खोला है और मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई व पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा उन्हें समझाने में लगे हैं। हालांकि येदियुरप्पा के बेटे को मंत्री नहीं बनाने से उनके समर्थक खुद ही नाराज हैं।
मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की अदावत तो पुरानी है ही और अब ज्योतिरादित्य सिंधिया का एक नया गुट अस्तित्व में आ गया है। शिवराज सिंह और विजयवर्गीय ने हालांकि कुछ दिनों पहले ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ गा तो दिया था लेकिन इससे अंदरुनी कलह थमी नहीं है।
इस कलह के चलते ही कुछ दिनों पहले शिवराज सिंह को हटा कर केंद्र में लाने की चर्चा जोरों पर थी। वैसे भी शिवराज केंद्रीय नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की पसंद नहीं हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद उन्हें दिल्ली बुलाया जा सकता है।
उधर त्रिपुरा में मुख्यमंत्री बिप्लव देब ने लंबी जद्दोजहद के बाद हाल ही में अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया। तीन नए मंत्रियों को शपथ दिलाई गई लेकिन भाजपा के पांच बागी विधायक शपथ समारोह में शामिल नहीं हुए। पूर्व मंत्री सुदीप रॉय बर्मन के नेतृत्व में उन्होंने अलग बैठक की।
झारखंड में कुछ समय पहले ही अपनी पार्टी का विलय करके भाजपा में लौटे पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी अपने कुछ समर्थकों के सहारे राज्य में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार गिराने की मुहिम में जुटे हैं। लेकिन पार्टी प्रदेश अध्यक्ष और तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के चार खेमों में बंटी हुई है।
महाराष्ट्र में कुछ समय पहले तक पार्टी पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल के गुटों में बंटी हुई थी, लेकिन नारायण राणे के केंद्र में मंत्री बनने के बाद अब पार्टी में तीन खेमे हो गए हैं और तीनों अलग अलग रास्ते चल रहे हैं। नारायण राणे ने पिछले दिनों अपनी गिरफ्तारी के बाद शिवसेना के खिलाफ हमले तेज कर दिए हैं, लेकिन इसमें पार्टी के अन्य गुट उनका साथ नहीं दे रहे हैं।
उनकी गिरफ्तारी को लेकर भी फड़नवीस, पाटिल अन्य वरिष्ठ नेताओं ने उनसे कुल मिलाकर भाजपा में मोदी और शाह के सामने तो कोई चुनौती नहीं है, लेकिन राज्यों में मची घमासान बताती है कि पिछले कुछ समय से पार्टी में निचले स्तर पर दोनों नेताओं की हनक फीकी पड़ी है। जेपी नड्डा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन उनकी स्थिति भी मोदी और शाह के रबर स्टैंप से ज्यादा नहीं है।