Tuesday, April 16, 2024
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कब बदलेगी कांग्रेस?

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25 4देश की सबसे पुरानी और फिलहाल विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने, जो स्वाभाविक ही खुद को स्वतंत्रता संघर्ष व उसके मूल्यों की वारिस बताती आई है और अपने दुर्दिन में भी कई प्रदेशों में सरकारों का नेतृत्व कर रही या उनमें साझीदार है, गत दिनों अपना 137वां स्थापना दिवस मनाया तो उसकी अंतरिम अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने देश के सत्ताधीशों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि वे न सिर्फ स्वतंत्रता संघर्ष के मूल्यों व विरासतों के साथ हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति को मिटाने की कोशिश कर रहे बल्कि लोकतंत्र व संविधान को दरकिनार कर तानाशाही भी ला रहे हैं। इससे आम नागरिक असुरक्षित व भयभीत हंै, जिसके मद्देनजर कांग्रेस चुपचाप बैठी नहीं रह सकती।

सोनिया गांधी ने देश के हालात की भयावहता का जो चित्र खींचा, कई बार वह उससे भी चिंताजनक लगता है। भले ही कुछ लोग अभी भी जानबूझकर उसे उस रूप में देखने से इनकार करते आ रहे हैं। लेकिन जहां तक उनके कारण कांगे्रस के चुप न बैठने के एलान की बात है, कहा जा सकता है कि उसे लगता है कि देश की सरकार बदगुमानियों की शिकार होकर देशवासियों के हक छीनने पर आमादा है और अतीत की पुनर्प्रतिष्ठा के नाम पर पुराने जख्म कुरेदकर लोगों को बांटने व उनके भविष्य से खेलने से भी बाज नहीं आ रही, तो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के तौर पर उसका कर्तव्य ही है कि वह उसके खिलाफ देश को एकजुट कर उसके संघर्ष की अगुआई करे।

इस कर्तव्यनिर्वाह में उसका सबसे बड़ा सुभीता यह है कि उसके पराभव के दौर में भी अनेक देशवासी उससे नाउम्मीद नहीं हुए हैं। कारण यह कि वे उसे राजनीतिक पार्टी भर नहीं मानते, बल्कि ऐसे विचार व आंदोलन के रूप में देखते हैं, जो देश को उसकी असली पहचान देता है। लेकिन महज इस गौरवशाली अतीत के बूते वह भविष्य की लड़ाइयां नहीं जीत सकती, इसलिए अगर वह चुप न रहने के अपने एलान को लेकर गम्भीर है, तो उसे खुद को इस सवाल के सामने करना होगा कि क्या वह अपनी और देश की भविष्य की आंतरिक व बाह्य चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है?

अगर हां तो उसके ऐसे एलान भर क्यों रह जाते हैं और नहीं तो क्यों तैयार नहीं है? क्या तब उसे खुद को सक्षम बनाने के लिए गहरे आत्मावलोकन करने की जरूरत नहीं है? हां, आत्मावलोकन के सिलसिले में वह यह भी देख सकती है कि अपनी विरासत के उन मूल्यों से, जिनसे कट जाने के कारण ही उसके बुरे दिन आए हैं, नया जुड़ाव किस तरह उसकी मुश्किलें आसान कर सकता है?

18 मार्च, 1894 को ह्यूम ने भारत छोड़ा तो लिखा था, ‘भारत की दयालु संतानें कभी अपने स्नेही हृदयों पर मेरा मृत्योत्तर लेख लिखें तो बस यही लिखें कि ह्यूम हमें अनवरत प्यार करते रहे। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के वक्त वे इकलौते अंगे्रज अधिकारी थे, जिसने संग्राम के लिए मदांध गोरी हुकूमत द्वारा जनभावनाओं के तिरस्कार को दोषी ठहराया और कहा था कि भला इसी में है कि अंगे्रज भारतीयों को अपने देश पर अपनी हुकूमत के लिए तैयार करके वापस चले जायें। वरना बार-बार 1857 होगा और सभ्यता, संस्कृति, व्यापार व उद्योग सबको नष्ट कर डालेगा।’ गौरतलब है कि 1885 में मुंबई में कांगे्रस के स्थापना सम्मेलन में ह्यूम को छोड़कर सारे प्रतिनिधि भारतीय थे, जो भले ही एक दूजे से अपरिचित थे, ह्यूम उन सबको जानते थे। लेकिन विडम्बना देखिये: आज जब कांग्रेस के पास ह्यूम जैसा सबको जानने वाला एक भी नेता नहीं है, वह अपने इस विदेशी संस्थापक को उसकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर भी याद नहीं करती। न ही उन्हें अपने कार्यकर्ताओं का प्रेरणास्रोत बनाना चाहती है। संभवत: इस डर से कि उनके ‘विदेशी’ होने के कारण सोनिया के जिस विदेशी मूल को लेकर भाजपा ने कभी आसमान सिर पर उठा रखा था, वह नये सिरे से चस्पां हो जाएगा।

सवाल है कि ऐसी पराजित मानसिकता से मूल्यों व नैतिकताओं के किसी संघर्ष को धार कैसे दी जा सकती है? क्या इसके लिए राहुल गांधी द्वारा अपने भाषणों में बार-बार ‘हिन्दू’ और ‘हिन्दुत्व’ का फर्क बताते ओर खुद को हिन्दू और सताधीशों को हिन्दुत्ववादी बताते रहना पर्याप्त है? वह भी ऐसे कठिन समय में, जब देश में असहिष्णुता व नफरत को चरम पर पहुंचाया जा रहा है? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को सार्वजनिक तौर पर अपशब्द कहे जा रहे हैं, फिर भी प्रधानमंत्री चुप हैं?

इसके आगे का सवाल यह है कि अगर कांग्रेस जनता से नए सिरे से जुड़े बगैर अपने अस्तित्व के लिए जूझने को ही अभिशप्त रहेगी और उसके पास उस पर लगाए जाने वाले एक परिवार के इर्द-गिर्द चलने वाली पार्टी के आरोप और उसके आंतरिक लोकतंत्र पर उठने वाले सवालों के भी जवाब नहीं होंगे तो वह चुप रहे या बोले, सत्ताधीशों की सेहत पर क्या फर्क पड़ने वाला है? वह फर्क तो उन्हें तभी पड़ेगा, जब उसके बोलने के साथ जनता भी बोल उठे। यह तभी हो सकेगा, जब कांग्रेस उन अनर्थों को पहचाने, जो उसके सुनहरे दिनों में देश पर आतंरिक सुरक्षा को खतरे के नाम पर आपातकाल थोप देने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी समेत उसके अनेक नेताओं द्वारा की गई सत्ता की राजनीति के हाथों संविधान के मूल्यों के तिरोहित होने से पैदा होकर लगातार विकराल होते गए?
कौन कह सकता है कि आज देश में अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और निचले तबके के लोगों के लिए हालात बेहद कठिन हो गए हैं, तो उनके मूल में उन दिनों के कांगे्रस के वे विचलन ही नहीं हैं? क्या उन विचलनों के ही कारण आज उसका संगठन में जनप्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का घोर अभाव है और आज के सत्ताधीश कांग्रेस के सारे हमलों को उसके उन्हीं नेताओं के गुनाहों को अपने कवच के तौर पर इस्तेमाल करके भोथरा नहीं कर देते।

साफ है कि कांग्रेस के यह समझने के लिए इससे बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता कि अपने सुनहरे दिनों में सत्ता के मद व मोह में मूल्यों से विचलन की कीमत जितनी उसने चुकाई है, उससे कहीं अधिक इस देश ने। कारण यह कि उसके द्वारा खाली की गई जगह भरने के लिए जो राजनीतिक पार्टियां आगे आई , उनमें से ज्यादातर की राजनीति संकुचित व स्वार्थपरक और जाति व धर्म पर आधारित ही रही। इसी के चलते देश को अपनी विडम्बनाओं से मुक्ति पाने के लिए एक ऐसी जनस्वीकार्य पार्टी की कमी अभी भी सालती रहती है, जिसका देश के संविधान में सच्चा यकीन हो और जो सत्ता में आते ही अपनी नैतिकताएं बदल न ले बल्कि सत्ताधीशों के वास्तविक विकल्प में ढलकर अपने विश्वासों को अमल में लाने का जज्बा प्रदर्शित करे। क्या वह इस कमी को पूरी करने के लिए एक बार फिर कांग्रेस की ओर देख सकता है?


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