कांग्रेस के संकट पर चर्चा अब उबाऊ हो चली है। यह बहुत लंबे समय से चला आ रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद उनका यह संकट गहराता ही गया है। 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद से तो यह संकट ही दिशाहीन सा लगने लगा है। लेकिन इधर कांग्रेस पार्टी में घटी दो घटनाएं ध्यान खीचने वाली हैं। एक, पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन और दूसरा कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी का पार्टी में शामिल होना। कांग्रेस पार्टी के लिए कैप्टेन अमरिंदर सिंह सरीखे नेता को मुख्यमंत्री पद से हटाना और कन्हैया, जिग्नेश जैसे ठोस विचारधारा वाले युवा नेताओं को पार्टी में शामिल करना कोई मामूली फैसला नहीं है। तो क्या इसे पार्टी पर राहुल और प्रियंका गांधी के नेतृत्व को स्थापित करने और उनके हिसाब के नयी कांग्रेस पार्टी गढ़ने की दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है? अगर ऐसा है तो कांग्रेस अपने इस अंतहीन से लगने वाले सकंट को एक मुकाम मिलने की उम्मीद कर सकती है। आज कांग्रेस पार्टी दोहरे संकट से गुजर रही है जो अंदरूनी और बाहरी दोनों हैं, लेकिन अंदरूनी संकट ज्यादा गहरा है, जिसके चलते पार्टी एक राजनीतिक संगठन के तौर पर काम नहीं कर पा रही है।
पार्टी में लंबे समय से चल रही पीढ़ीगत बदलाव की प्रक्रिया फंसी हुई है, जिससे पार्टी के बेचैन युवा नेताओं में भगदड़ मची हुई है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक 2014 से 2021 के दौरान कांग्रेस पार्टी के करीब 399 नेता पार्टी छोड़ चुके हैं जिसमें 177 सांसद और विधायक शामिल हैं। दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के नेता राहुल गांधी के रास्ते का रोड़ा बने हुए हैं, जिन्हें फिलहाल जी-23 समूह के रूप में जाना जा रहा है।
2019 की हार के बाद अपना इस्तीफा देते समय राहुल गांधी ने कांग्रेस नेताओं से जवाबदेही लेने, पार्टी के पुनर्गठन के लिए कठोर फैसले लेने और गैर गांधी अध्यक्ष चुनने की बात कही थी। लेकिन इनमें से कुछ नहीं हो सका उलटे सब कुछ पहले से अधिक पेचीदा हो गया है।
फिलहाल सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष हैं और राहुल गांधी बिना कोई जिम्मेदारी लिए हुए पार्टी के सबसे बड़े और प्रभावशाली नेता बने हुए हैं। पार्टी में विचारधारा को लेकर भी भ्रम की स्थिति है। पार्टी नर्म हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षता के बीच झूल रही है।
कांग्रेस के लिए बाहरी चुनौती के तौर पर मोदी-शाह की भाजपा और संघ परिवार तो पहले से ही हैं, लेकिन अब कई क्षेत्रीय पार्टियां भी कांग्रेस के इस कमजोरी को अपने लिए एक मौके के तौर पर देख रही हैं, खासकर ममता बनर्जी की टीएमसी यानी अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस और अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जो कांग्रेस की जमीन पर अपने अखिल भारतीय मंसूबों के साकार होने की उम्मीद कर रही है।
आम आदमी पार्टी तो पहले भी इस तरह के मंसूबे दिखाती रही है, लेकिन इस बार ममता बनर्जी योजनाबद्ध तरीके से इस दिशा में आगे बढ़ते हुए दिखाई पड़ रही हैं। इस काम में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उनके सारथी के रूप में दिखलाई पड़ रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में टीएमसी असम, गोवा और मेघालय के कई कांग्रेस नेताओं को अपने खेमे में शामिल करने में कामयाब रही हैं।
कांग्रेस भी इन सबसे अनजान नहीं है, पिछले दिनों कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी पर हमला बोलते हुए कहा है कि वो कांग्रेस का स्थान लेकर खुद का ‘ममता’ कांग्रेस बनाना चाहती हैं, इसीलिए वे विभिन्न राज्यों के कांग्रेस नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर रही हैं।
अधीर रंजन चौधरी द्वारा इस काम के लिए प्रशांत किशोर की संस्था आईपीएसी और टीएमसी के बीच मिलीभगत का आरोप भी लगाया गया है। गौरतलब है कि पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी छोड़ कर तृणमूल में शामिल हुए गोवा कांग्रेस वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री लुइजिन्हो फेलेरो ने बयान दिया था कि वे प्रशांत किशोर की सलाह पर टीएमसी में शामिल हुए हैं।
भारतीय राजनीति में अधिकतर समय विपक्ष मजबूत नहीं रहा है, लेकिन मौजूदा समय की तरह कभी इतना निष्प्रभावी भी नहीं रहा है। इसमें कांग्रेस के कमजोरी की बड़ी भूमिका है।
वैसे भी आज के दौर में विचारधारा के तौर पर भाजपा और संघ परिवार को असली चुनौती कांग्रेस और लेफ्ट से ही है। इस मामले में अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को कोई चुनौती पेश नहीं करती हैं। इसलिए आज कांग्रेस का संकट भारतीय राजनीति के विपक्ष का संकट बन गया है।
आज विपक्ष के रूप में कांग्रेस का मुकाबला एक ऐसे दल से है, जो विचारधारा के आधार पर अपनी राजनीति करती है। भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार अपनी विचारधारा के आधार पर नया भारत गढ़ने में व्यस्त है। आजादी की विरासत और पिछले 75 वर्षों के दौरान प्रमुख सत्ताधारी दल होने के नाते कांग्रेस ने अपने हिसाब से भारत को गढ़ा था।
अब उसके पास भाजपा के हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के मुकाबले कोई कार्यक्रम या खाका नजर नहीं आ रहा है। इसलिए कांग्रेस को अगर मुकाबले में वापस आना है तो उसे संगठन और विचारधारा दोनों स्तर पर काम करना होगा।
उसे अपने जड़ों की तरफ लौटना होगा और आजादी के आंदोलन के दौरान जिन मूल्यों और विचारों की विरासत उसे मिली थी, उन्हें अपने एजेंडे में लाना होगा, उग्र और एकांकी राष्ट्रवाद के मुकाबले समावेशी और बहुलतावादी राष्ट्रवाद की अवधारणा को पेश करना होगा, तभी जाकर वह अपनी खोई हुई जमीन दोबारा हासिल कर सकती है।
दूसरा बड़ा संकट लीडरशिप का है। तमाम कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी पार्टी में अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाए हैं। पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद भी आज पार्टी के सारे फैसले वही ले रहे हैं। साथ ही वे देश के ‘इकलौते’ विपक्ष के नेता के तौर पर अकेले ही मोदी सरकार को घेरने की कोशिश करते रहते हैं।
उनके इस कवायद में उनका पार्टी संगठन नदारद नजर आता है। जी-23 समूह के नेता राहुल गांधी के बिना किसी पद के इसी आथोरिटी पर सवाल उठा रहे हैं, जिसे गैर-वाजिब भी नहीं कहा जा सकता है।
प्रशांत किशोर का इरादा भले ही कुछ भी रहा हो लेकिन पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी को लेकर उनके द्वारा किए गये ट्वीट से असहमत नहीं हुआ जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘जो लोग लखीमपुर खीरी की घटना को पुरानी पार्टी के पुनर्जीवित करने के तौर पर देख रहे हैं, उन्हें बड़ी निराशा ही हाथ लगनी है क्योंकि पार्टी की बड़ी समस्याओं और संरचनात्मक कमजोरियों का कोई तात्कालिक समाधान नहीं है।’ अगर कांग्रेस अपने संकट को एक मुकाम देना चाहती है तो सबसे पहले उसे अपने तीन अंदरूनी संकटों विचारधारा, लीडरशिप और सांगठनिक बिखराव को हल करना होगा।