दिवाली पर लक्ष्मी पूजन के साथ दीपक जलाने की परंपरा है। दीपक का प्रकाश अंधकार को दूर करता है। जीवन में किसी प्रकार का अंधकार नहीं होना चाहिए। दीपक जलाते समय कुछ बातों का ध्यान रखें। लक्ष्मी पूजन से जुड़ी चीजों में नियमों की जानकारी जरूरी है। कई बार जानकारी के अभाव में कुछ ऐसी चीजें हो जाती हैं, जिनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। भारत में दीपावली का त्योहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। यह तो हम सब जानते हैं कि भगवान राम जब माता सीता के साथ अयोध्या वापस आए थे तब पूरी अयोध्या नगरी में दीए जलाकर उनका स्वागत किया गया था। दिवाली पर सभी माता लक्ष्मी के साथ श्रीगणेश की पूजा करते हैं। लेकिन कुछ ही लोगों को पता है कि माता लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा क्यों की जाती है और रिद्धि सिद्धि कौन हैं। साथ ही दीपावली पूजन में शुभ-लाभ क्यों लिखा जाता है।
बता दें कि दिवाली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा के पीछे कई कहानियां हैं। ऐसे में स्पष्ट तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि आखिर इसके पीछे क्या वजह है लेकिन इन सभी कहानियों से इक ही तरफ इशारा होता है कि दिवाली समृद्धि, रोशनी, उमंग का त्यौहार है।लक्ष्मी को भी समृद्धि के तौर पर देखा जाता है और इस दिन से समृद्धि का आगमन होता है। इसलिए इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है, भले ही इसके पीछे कहानी कुछ भी हो।
दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन को लेकर एक कथा प्रचलित है। एक बार माता लक्ष्मी अपने महालक्ष्मी स्वरूप में इंद्रलोक में वास करने पहुंची। माता की शक्ति से देवताओं की भी शक्ति बढ़ गई। इससे देवताओं को अभिमान हो गया कि अब उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता।एक बार इंद्र अपने ऐरावत हाथी पर सवार होकर जा रहे थे, उसी मार्ग से ऋषि दुवार्सा भी माला पहनकर गुजर रहे थे। प्रसन्न होकर ऋषि दुवार्सा ने अपनी माला फेंककर इंद्र के गले में डाली, लेकिन इंद्र उसे संभाल नहीं पाए और वो माला ऐरावत हाथी के गले में पड़ गई। हाथी ने सिर को हिला दिया और वो माला जमीन पर गिर गई। इससे ऋषि दुवार्सा नाराज हो गए और उन्होंने श्राप दे दिया कि जिसके कारण तुम इतना अहंकार कर रहे हो, वो पाताल लोक में चली जाए।
इस श्राप के कारण माता लक्ष्मी पाताल लोक चली गर्इं। लक्ष्मी के चले जाने से इंद्र व अन्य देवता कमजोर हो गए और दानव मजबूत हो गए। तब जगत के पालनहार नारायण ने लक्ष्मी को वापस बुलाने के लिए समुद्र मंथन करवाया। देवताओं और राक्षसों के प्रयास से समुद्र मंथन हुआ तो इसमें कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि निकले। इसलिए इस दिन धनतेरस मनाई जाती है और अमावस्या के दिन लक्ष्मी बाहर आर्इं। इसलिए हर साल कार्तिक मास की अमावस्या पर माता लक्ष्मी की पूजा होती है।चूंकि इसी दिन श्रीराम वनवास से लौटकर अयोध्या वापस आए थे, और उनके आने की खुशी में लोगों ने घरों को दीपक से रोशन किया था, इसलिए कार्तिक मास की अमावस्या पर दिवाली मनाई जाने लगी। इस दिन पहले लक्ष्मी पूजन होता है, इसके बाद दिवाली की खुशी में घर को दीपक से रोशन किया जाता है।
मां लक्ष्मी के साथ गणेशजी की पूजा जरूरी है। माता लक्ष्मी श्री, अर्थात धन- संपदा की स्वामिनी हैं, वहीं श्रीगणेश बुद्धि-विवेक के। बिना बुद्धि-विवेक के धन-संपदा प्राप्त होना दुष्कर है। माता लक्ष्मी की कृपा से ही मनुष्य को धन-समृद्धि की प्राप्ति होती है। मां लक्ष्मी की उत्पत्ति जल से हुई थी और जल हमेशा चलायमान रहता है, उसी तरह लक्ष्मी भी एक स्थान पर नहीं ठहरतीं। लक्ष्मी के संभालने के लिए बुद्धि-विवेक की आवश्यकता पड़ती है। बिना बुद्धि-विवेक के लक्ष्मी को संभाल पाना मुश्किल है इसलिए दिवाली पूजन में लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा की जाती है ताकि लक्ष्मी के साथ बुद्धि भी प्राप्त हो। कहा जाता है कि जब लक्ष्मी मिलती है तब उसकी चकाचौंध में मनुष्य अपना विवेक खो देता है और बुद्धि से काम नहीं करता। इसलिए लक्ष्मीजी के साथ हमेशा गणेशजी की पूजा करनी चाहिए।
18 महापुराणों में से महापुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार, मंगल के दाता श्रीगणेश, श्री की दात्री माता लक्ष्मी के दत्तक पुत्र हैं। एकबार माता लक्ष्मी को स्वयं पर अभिमान हो गया था। तब भगवान विष्णु ने कहा कि भले ही पूरा संसार आपकी पूजा-पाठ करता है और आपके प्राप्त करने के लिए हमेशा व्याकुल रहता है लेकिन अभी तक आप अपूर्ण हैं। भगवान विष्णु के यह कहने के बाद माता लक्ष्मी ने कहा कि ऐसा क्या है कि मैं अभी तक अपूर्ण हूं। तब भगवान विष्णु ने कहा कि जब तक कोई स्त्री मां नहीं बन पाती तब तक वह पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाती। आप निसंतान होने के कारण ही अपूर्ण हैं। यह जानकर माता लक्ष्मी को बहुत दुख हुआ। माता लक्ष्मी का कोई भी पुत्र न होने पर उन्हें दुखी होता देख माता पार्वती ने अपने पुत्र गणेश को उनकी गोद में बैठा दिया। तभी से भगवान गणेश माता लक्ष्मी के दत्तक पुत्र कहे जाने लगे। माता लक्ष्मी दत्तक पुत्र के रूप में श्रीगणेश को पाकर बहुत खुश हुईं। माता लक्ष्मी ने गणेशजी को वरदान दिया कि जो भी मेरी पूजा के साथ तुम्हारी पूजा नहीं करेगा, लक्ष्मी उसके पास कभी नहीं रहेगी। इसलिए दिवाली पूजन में माता लक्ष्मी के साथ दत्तक पुत्र के रूप में भगवान गणेश की पूजा की जाती है।
विष्णु के बिना होती है लक्ष्मी की पूजा
देवशयनी एकादशी को भगवान विष्णु सो जाते हैं और दिवाली के 11 दिन बाद आने वाली देवउठनी एकादशी को उठते हैं। जिस दीपावली पर माता लक्ष्मी के साथ तमाम देवी-देवताओं की विशेष रूप से पूजा की जाती है, उसी रात आखिर श्रीहरि भगवान विष्णु की पूजा नहीं की जाती है, क्योंकि दीपावली का पावन पर्व चातुर्मास के बीच पड़ता है और इस समय भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन रहते हैं।ऐसे में किसी धार्मिक कार्य में उनकी अनुपस्थिति स्वाभाविक है।
यही कारण है कि दीपावली पर धन की देवी मां लक्ष्मी लोगों के घर में बगैर श्रीहरि भगवान विष्णु के बिना पधारती हैं। वहीं देवताओं में प्रथम पूजनीय माने जाने वाले गणपति उनके साथ अन्य देवताओं की तरफ से उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि दीपावली के बाद जब भगवान विष्णु कार्तिक पूर्णिमा के दिन योगनिद्रा से जागते हैं तो सभी देवता एक बार श्रीहरि के साथ मां लक्ष्मी का विशेष पूजन करके एक बार फिर दीपावली का पर्व मनाते हैं, जिसे देव दीपावली कहा जाता है।
क्यों गणेश जी के दाहिनी ओर विराजती हैं मां लक्ष्मी
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार लक्ष्मी जी को स्वयं पर अभिमान हो गया कि धन प्राप्ति के लिए सारा संसार उनकी पूजा करता है और उन्हें पाने के लिए लालायित रहता है। भगवान विष्णु उनकी यह भावना को ज्ञात हो गई। मां लक्ष्मी का अंहकार दूर करने हेतु भगवान विष्णु ने माता लक्ष्मी से कहा कि ‘देवी भले ही सारा संसार आपकी पूजन करता है और आपको पाने के लिए व्याकुल रहता है आप अभी तक अपूर्ण हैं।’
यह बात सुनने के बाद माता लक्ष्मी ने जिज्ञासावश विष्णु जी से अपनी कमी के बारे में पूछा, तब विष्णु जी ने उनसे कहा कि ‘जब तक कोई स्त्री मां नहीं बनती तब तक वह पूर्णता को प्राप्त नहीं करती। आप नि:सन्तान होने के कारण अपूर्ण है।’
माता लक्ष्मी कोल इस बात से अत्यंत दु:ख हुआ और उन्होंने अपनी सखी पार्वती को अपनी पीड़ा बताई। जिसके बाद माता लक्ष्मी का दु:ख दूर करने के उद्देश्य से पार्वती जी ने अपने पुत्र गणेश को उन्हें गोद दे दिया। तभी से भगवान गणेश माता लक्ष्मी के ‘दत्तक-पुत्र’ कहलाए। गणेश जी को पुत्र रूप में प्राप्त करके माता लक्ष्मी अतिप्रसन्न हुई और उन्होंने गणेश जी को यह वरदान दिया कि जो भी मेरी पूजा के साथ तुम्हारी पूजा करेगा मैं उसके यहां वास करूंगी, धार्मिक मान्यता के अनुसार, इसलिए सदैव लक्ष्मी जी के साथ उनके ‘दत्तक-पुत्र’ भगवान गणेश की पूजा की जाती है। क्योंकि माता सदैव अपने पुत्र के दाहिनी ओर विराजती है। यही कारण है कि मां लक्ष्मी गणेश जी के दाहिनी ओर विराजती हैं।
अयोध्या की दीपावली की तो बात ही कुछ और है!
दीपावली अपने मूल रूप में न सिर्फ किसानों के घर नई फसल आने के उल्लास का पर्याय बल्कि धनतेरस व भइया दूज आदि सिद्धि व समृद्धि के पांच पर्वों का अनूठा गुच्छा भी है। तिस पर अयोध्या की बात करें जिसके निवासियों ने कभी लंका पर विजय प्राप्त करके लौटे अपने आराध्य राम की अगवानी में घी के दीये जलाकर इसे मनाये जाने की परम्परा डाली तो जैसे उसकी होली के रंग वैसे ही दीपावली के उजाले भी निराले हैं। अलबत्ता, इस निरालेपन को देखने के लिए इस सत्य से साक्षात्कार जरूरी है कि अपने अब तक के ज्ञात इतिहास में अयोध्या देश के अन्य अंचलों के अलावा अवध, बिहार और झारखंड के सदियों से गरीबी व बैरबराबरी से अभिशापित तबकों के धर्म-कर्म की नगरी भी रही है।
इसीलिए उसकी परम्परागत दीपावली में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दीन-दुखियों की वंचनाओं का तिरस्कार करता या उन्हें चिढ़ाता और वैभव या भव्यता का अभिषेक करता नजर आये। उसकी दीपमालिकाओं का सौंदर्य भी उनकी जगर-मगर में कम सादगी में ज्यादा दिखाई देता और एलान-सा करता रहता है कि उसका दीपावली मनाकर भगवान राम की अगवानी करना प्रजा के तौर पर उनके सामने बिछ जाना भर नहीं है। अयोध्या के विधिवत राजा तो वे दरअस्ल, इस दीपावली के बाद बने थे।
लेकिन, यहां एक पेंच है। घी के दीयों वाले रूपकों में खोये कई महानुभाव चतुर्दिक भव्यता तलाशने लग जाते हैं तो इस सादगी के सौन्दर्य का दीदार ही नहीं कर पाते। यह समझने के लिए तो वैसे भी शौक-ए-दीदार चाहिए कि अयोध्या के हजारों मन्दिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाये जाते हैं और क्यों आम लोग ये दीये जलाने भी उनके गर्भगृहों में नहीं जा सकते।
दरअसल, गर्भगृहों में पहले मुख्य पुजारी अपने आराध्यों को नहला-धुलाकर दीपावली के अवसरविशेष के लिए बनी नई पोशाकें पहनाते, सजाते-धजाते और पूजा-अर्चना करके दीये जलाते हैं, फिर उनके बाहर साधु-संत। हां, मन्दिरों की दीपावली में पुजारियों और साधु-संतों द्वारा आरोपित बंदिश की परम्परा जैसे ही मन्दिरों के बाहर गृहस्थ समाजों में पहुंचती है, अपना अर्थ खो देती है। वहां दीये जलाये कम, दान ज्यादा किये जाते हैं और इस दीपदान में किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं बरता जाता। कोई न कोई दीया उस घूर गड्ढे के नाम भी किया जाता है, जिसमें यों साल भर घर गृहस्थी के उच्छिष्टों और ढोरों के गोबर आदि को सड़ाया जाता है। इससे प्रेरित एक कहावत भी है कि घूरे के दिन भी कभी न कभी बहुरते ही हैं।
अयोध्या में इस मुकाम तक पहुंचकर दीपावली किसी को भी अंधेरे में न रहने देने और हर किसी को उजाले से नहलाने का नाम हो जाती रही है। इसलिए खेत खलिहानों, कोठारों, हलों-जुआठों के साथ गायों-बैलों के बांधे जाने की जगहों, खूंटों, सानी-पानी की नांदों और चरनियों पर भी दीपदान किये जाते रहे हैं। बुजर्गों की मानें तो इन सर्वसमावेशी दीपदानों में जगर-मगर की अति की कतई कोई जगह नहीं होती थी। तब बच्चे कुम्हारों के बनाये खिलौनों से खेलते थे-बाजार से लाई गयी ह्यहिंसा की प्रशिक्षकह्ण बन्दूकों या प्लास्टिक के खिलौनों से नहीं। बड़ों द्वारा अपने घरों के बाहर सुदर्शन घरौंदे बनाये जाते थे, जिनमें उनकी सुखद व सुन्दर घरों की कल्पना साकार होती दिखती थी।
दरअसल, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने वक्त की अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों के जिन जीविकाविहीन लोगों की बेबसी को ह्यबारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चार ही चनक कोह्ण जैसे शब्दों में अभिव्यक्त किया और तफसील से बताया है कि वे कैसे ह्यसीद्यमान सोच बस कहइं एक एकन सां कहां जाई का करीह्ण, वे अपनी दीपावली को भव्यता की गोद में ले ही नहीं जा सकते थे। इसलिए उन्होंने सादगी और समतल का वह रास्ता चुना था, जो बिना हर्रै और फिटकरी के उनकी दीपावली का रंग चोखा कर सके। न अमावस्या की रात को किसी की आंखों को अंधेरे से पीड़ित करने दे, न ही प्रकाश के अतिरेक को इतनी चौंधियाने दे कि वे अंधी-सी होकर रह जायें।
दीपावली पर भी वे मदांध होकर भूल नहीं जाते थे कि अयोध्या के मठों व मन्दिरों को आमतौर पर उसके आसपास के क्षेत्रों, बिहार और झारखंड की गरीबी ही आबाद करती रही है। कभी गरीबी की जाई यातनाओं तो कभी जमीनदारों व सामंतों के अत्याचारों के कारण अनेक लोग अपने रहने की जगहों से भागकर अयोध्या आते और साधु बन जाते रहे हैं। यह साधु बन जाना तब उनके निकट धर्मसत्ता द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक सुरक्षा का वायस हुआ करता था।
तब से अब तक अयोध्या में इस लिहाज से कुछ नहीं बदला है कि वह उन दिनों भी बिहार व झारखंड के दलित-पिछड़े, पीड़ित व वंचित धमार्नुयायियों का ही ठौर हुआ करती थी और आज भी है। अवध के उन गरीब धर्मप्राणजनों का भी, जो अपनी गरीबी के कारण गया-जगन्नाथ या गंगासागर की यात्रा के सपने पूरे नहीं कर सकते। भूख से विकल अनेक लोगों के निकट अयोध्या आकर साधु बन जाने पर पेट की आग बुझने से हासिल होने वाला संतोष अभी भी कुछ कम उजला नहीं होता। इतना उजला होता है कि मान्यता हो गई है कि भगवान राम की अनुकम्पा से अयोध्या में कोई भी भूखा नहीं सोता।
हां, अभी हाल के दशकों तक दीपावली आती तो खील-बताशों, लइया और गट्टों की बहार आ जाती। बाद में चीनी के बने हाथी-घोड़े और खाने के दूसरे मीठे खिलौने भी उसका आकर्षण बन गये। भोले-भाले ग्रामीणों के साथ ज्यादातर संभ्रांत नागरिकों की आकांक्षाएं भी तब इतनी ही हुआ करती थीं कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय। अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए उन्हें इससे आगे किसी महंगे भोग विलास की अभिलाषा आमतौर पर नहीं ही सताती थी। वे इतने भर से ही खुश हो लिया करते थे कि अयोध्या के जुड़वां शहर फैजाबाद में रामदाने की करारी लइया, गुड़ की पट्टी और गट्टे बनाने वालों की बाकायदा एक गली हुआ करती है, आसपास के जिलों के लोग भी जिसकी मिठास के दीवाने हैं और जब भी अयोध्या आते हैं, वहां से ये चीजें ले जाते हैं।
दरअसल, वह ऐसे संतोष-धनह् का वक्त था, जिसमें धर्मप्राण प्रजाजन अपनी सारी चिन्ताएं उन राम के हवाले करके चैन पा लेते थे, जिनके लिए कभी उनके पुरखों ने घी के दीये जताये थे। उनके निकट वे उन जैसे सारे निर्बलों के बल थे।
आइये, मनायें कि आगे भी वे निर्बलों का बल ही बने रहें।
दीपक में करें सही घी-तेल और बाती का प्रयोग
हिंदुओं के सबसे बड़ा त्योहार दिवाली की तैयारी के लिए सभी हिंदू कई दिन पहले से जुट जाते हैं। दिवाली पर लोग घर पर दीये जलाकर मां लक्ष्मी का स्वागत करते हैं। आपको इसकी जानकारी होनी चाहिए कि दिवाली के इन दीयों को जलाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला घी या तेल बहुत महत्व रखता है। दिवाली के मौके पर दीये जलाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है और शांति व समृद्धि आती है। ऐसे में यह ध्यान देना बहुत जरूरी है कि इस मौके पर हम किस घी या तेल का इस्तेमाल कर दीया जला रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि दिवाली पर देसी घी के अलावा कुछ तेलों का इस्तेमाल कर दीये जलाए जा सकते हैं। इनमें सरसों का तेल, तिल का तेल, पंचदीप तेल, अलसी का तेल और नारियल का तेल प्रमुख हैं।
असल में हिंदू धर्म और कई अन्य धर्मों में पूजा के लिए दीपक का इस्तेमाल किया जाता है। दीपक की रोशनी अंधकार, शोक और दुखों को दूर करने का प्रतीक है। घरों से अंधकार को दूर करने के लिए तेल का दीपक, दीया या दीप जलाया जाता है। इसके अलावा किसी भी शुभ अवसर को शुरू करने से पहले दीपक जलाने की प्रथा है और देश में हर घर में पूजा के लिए ऐसा निरंतर किया जाता है। कहा जाता है कि दीपक जलाने से सर्वशक्तिमान की चमक पूरे घर में फैल जाती है और देवताओं को हमारे घरों में आने का निमंत्रण मिलता है। साथ ही दीयों से निकलने वाली रोशनी सकारात्मक ऊर्जा, शांति और समृद्धि बढ़ाने का काम करती है। दिवाली के दिन तो खासतौर पर घर को रोशन करने के लिए दीये जलाए जाते हैं, ताकि घर को रोशनी से भरपूर करके मां लक्ष्मी का स्वागत किया जाए। वैसे तो दीपक जलाने के लिए किसी भी तेल का इस्तेमाल करना व्यक्तिगत पसंद है, लेकिन ज्ञात तथ्यों के आधार पर विशेष तेलों के इस्तेमाल से दीपक जलाने के कई फायदे होते हैं।
सबसे पहले बात करते हैं देसी घी से जलाए जाने वाले दीयों की। देसी घी में गाय के घी को सबसे शुद्ध माना जाता है। गाय के घी से दीपक जलाने से वातावरण में सकारात्मकता आती होती है। माना जाता है कि दिवाली पर देसी घी का दीया जलाने से दरिद्रता भी समाप्त होती है और घर में धन व स्वास्थ्य सुख बना रहता है। इसके साथ ही मां लक्ष्मी की कृपा भी परिवार पर होती है। वहीं तिल का तेल इस्तेमाल कर दीपक जलाना भी शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इसका इस्तेमाल कर दीपक जलाने से सभी दोष समाप्त हो जाते हैं और बुराइयां दूर हो जाती हैं। तिल का तेल दीर्घकालिक समस्याओं को दूर करने में मदद करता है और जीवन की बाधाओं को भी दूर करता है। वहीं दिवाली पर पंचदीप तेल का इस्तेमाल करके भी दीये जलाने चाहिए। मान्यता है कि पंचदीप तेल से दीपक जलाने से घर में सुख, स्वास्थ्य, धन, प्रसिद्धि और समृद्धि आती है। पंचदीप तेल सही और शुद्ध अनुपात में पांच तेलों का मिश्रण है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि आपकी प्रार्थनाओं की पवित्रता सुरक्षित है।
वहीं दीपक जलाने के लिए सरसों का तेल सबसे लोकप्रिय विकल्प है। ज्योतिषियों का कहना है कि दीया जलाने के लिए सरसों के तेल का प्रयोग करने से शनि से संबंधित दोष दूर होते हैं और रोगों से भी बचाव होता है। हनुमान जी की तस्वीर या मूर्ति के आगे सरसों के तेल का दीपक जलाने से सारे दोष दूर हो जाते हैं और सोया हुआ भाग्य भी जागने लगता है। सरसों के तेल के अलावा देश में नारियल तेल भी काफी लोकप्रिय है। यह खाने के साथ शरीर पर लगाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। मान्यता है कि पूजा के दीयों में नारियल के तेल का प्रयोग करने से गणेश जी प्रसन्न होते हैं, इसलिए दिवाली के मौके पर नारियल तेल के दीये भी जलाए जा सकते हैं। हालांकि नीम, अरंडी, चमेली का तेल आदि दीयों को जलाने के लिए कम लोकप्रिय तेल हैं, लेकिन इनका उपयोग किया जा सकता है। अधिकतर बार इन्हें सुचारू उपयोग के लिए अन्य तेलों के साथ मिश्रित किया जाता है। दीयों को जलाने के लिए मूंगफली का तेल, सूरजमुखी का तेल, पाम आॅयल, वनस्पति तेल, राइस ब्रान तेल, सिंथेटिक तेल, कॉटन बीज का तेल आदि का उपयोग करने से बचें।
ऋग्वेद के अनुसार, दीपक में देवताओं का वास होता है, इसलिए पूजन से पहले दीपक जलाने की परंपरा है। इसके साथ ही किसी भी शुभ कार्य को करने से पूर्व दीप प्रज्ज्वलित करते हैं। शास्त्रों के अनुसार, दीपक को सदैव भगवान की मूर्ति या तस्वीर के सामने ही प्रज्ज्वलित करना चाहिए। घी का दीपक अपने बाएं हाथ की तरफ रखकर जलाएं और तेल का दीपक हमेशा दाईं ओर रखकर जलाना चाहिए। दीपक की बाती का भी विशेष महत्व है। घी की बाती जला रहे हैं तो दीपक में रुई की बाती का प्रयोग करना उत्तम माना गया है। वहीं जब तेल का दीपक जलाते हैं तो लाल धागे की बाती बनानी चाहिए। दीपक जलाने के बाद उसकी दिशा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस बात का ध्यान नहीं रखने पर नकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। दीपक को कभी कोने में नहीं रखना चाहिए। दीपक को पश्चिम दिशा में रखने से भी बचें। खंडित दीपक का प्रयोग करने से लक्ष्मी जी नाराज होती हैं। वहीं दीपक जलाते समय शुभ मुहूर्त का भी ध्यान रखें। शुभ मुहूर्त में दीपक जलाने से माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।
ज्योतिषियों का कहना है कि दिवाली पर पूजा में तेल और बाती का विशेष महत्व होता है। दिवाली पर माता लक्ष्मी की तस्वीर अथवा मूर्ति के सामने नौ या सात बत्ती का दीया जलाना शुभ माना जाता है। दिवाली पर मिट्टी के दीये ही जलाने चाहिए। लक्ष्मी प्राप्ति के लिए दीपक सामान्य और गहरा होना चाहिए। सात मुखी दीपक जलाने से धन संबंधी तंगी दूर होती है। अगर आप धन प्राप्ति के लिए पूजा करना चाहते हैं तो अलसी के तेल का दीपक जलाना भी शुभ माना गया है। अलसी के तेल से जहां राहु-केतु का बुरा प्रभाव समाप्त हो जाता है, वहीं सभी तरह के नजर दोष से भी मुक्ति मिलती है। इसके साथ ही माता लक्ष्मी धन की बरसात भी करती हैं, जिससे आर्थिक तंगी दूर होती है। हालांकि आपको इस बात का विशेष ध्यान रखना होता है कि आपकी पूजा या दीपक में डाला जाने वाला घी या तेल नकली और मिलावटी तो नहीं है। अगर आप इस तरह के घी या तेल का इस्तेमाल कर रहे हैं तो आपको पूजा का फल नहीं मिलेगा। साथ ही यह एक प्रकार का दोष भी है, जिससे आपको बचने का प्रयास करना चाहिए।