- आयुर्वेद के क्षेत्र में जड़ी बूटी की खेती को अपनाएं तो भैंसा-बुग्गी की जगह वह मर्सिडीज में आ सकता है
- 50 से 60 वर्ष पूर्व की खानपान एवं रहन सहन की पद्धति पर वापस लौटने लगी देश की जनता
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में आयोजित महासम्मेलन में देशभर से आये वैद्य एवं हकीम के साथ नई पीढ़ी के आयुर्वेद के आयुर्वेदाचार्य शामिल हुये। जहां एक तरफ उन्होंने एलोपैथिक एवं आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति के अंतर को बताया। वहीं, उन्होंने मनुष्य की दिनचर्या के बारे में बताया। वहीं उन्होंने देश के किसान को भी एक संदेश दिया। वह इस वैज्ञानिकता के युग में अन्नदाता के साथ जीवन रक्षकदाता भी बन सकते हैं।
जिसके लिये वैद्यों ने बताया कि यदि किसान खेतीबाड़ी के क्षेत्र में कुछ जरूरी बदलाव करें तो वह आयुर्वेद के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान एंव इतिहास रच सकता है और जो किसान आज गेहंू व गन्ने की खेतीबड़ी पर ज्यादा आश्रित है, वह यदि आयुर्वेद के क्षेत्र से जुड़कर नई तकनीक से खेतीबाड़ी करें तो वह निश्चित रूप से भैंसा-बुग्गी की जगह मर्सिडीज कार में सवार हो सकता है।
वैद्य ब्रजभूषण ने बताया कि जिस किसान को अन्नदाता कहा जाता है और ज्यादा रासायनिक उर्वरक आदि डालकर पैदावार बढ़ाकर आय का बढ़ाना चहाता है। उसकी यही चाहत धीरे-धीरे फसलों में जहर घोलने को बढ़ावा दे रही है। फसलों में ज्यादा उर्वरक डालने से गेहंू की फसल पर ज्यादा असर पड़ रहा है। जिसमें ज्यादा उर्वरक जिस खेत में डाला जाता है। उसमें पैदा होने वाले गेहूं की रोटी जो तैयार होती है।
उसमें अनेको बीमारी मनुष्य के शरीर में पनप सकती है। उसमें से एक मुख्य बीमारी, ग्लूटीन है जोकि मनुष्य के शरीर में एलर्जी आदि पैदा करती है। वहीं अन्य साग सब्जी की फसलों में ज्यादा रासायनिक उर्वरक डालने से भी असाध्य रोगों की बीमारी बढ़ती जा रही हैं। किसानों ने पुरानी खेतीबाड़ी जोकि जौं, मटर, बाजरा, मक्का आदि मोटे आनाज की खेती को करना बंद कर दिया है। केवल गेहंू की फसल पर ज्यादा आधारित हो गया है।
वहीं, अन्नदाता यदि आयुर्वेद के क्षेत्र से जुड़े। जिसमें अब भारत व प्रदेश की सरकार दोनों ही प्रोत्साहन दे रही है। जिसके चलते किसान अन्नदाता के साथ जीवन रक्षकदाता भी बन सकता है। वह यदि हल्दी, मिर्च, लहसुन, प्याज, अश्वगंधा, घीगंवार, एलोवीरा की खेती करे, वहीं नीम व जामुन के बाग लगाये, ज्वार एवं मक्का, एक बाजारा की खेती पर आये तो आयुर्वेद चिकित्सा नहीं बल्कि जो एलोपैथिक से जुड़ी कंपनी व मल्टीनेशन होटल आदि से जुडेÞ लोग इस तरह की खेतीबाड़ी करने वाले किसानों से सीधा संपर्क करती है।
जिसमें ऐसे किसान अच्छा मुनाफा गेहूं व गन्ने की खेती से ज्यादा प्राप्त कर सकते हैं। उधर, वैद्य ताराचंद शर्मा ने बताया कि अधिकतर जौंं एवं बाजारा की रोटी खाने वाले के खुर्दे खराब नहीं होते। चीनी की जगह गुड़ एवं शक्कर, खांड खाना, कोल्डिंग की जगह छाछ पीना, यह सब किसानों से ही जुड़े खाद्य पदार्थ हैं, यदि किसान इन्हे बढ़ावा दे तो वह अन्नदाता के साथ जीवन रक्षकदाता भी बन सकता है। आज लोग 50 से 60 वर्ष पूर्व की जो दिनचर्या एवं खानपान था। धीरे-धीरे उसी पर वापस लोट रहे हैं। ठीक वैसे ही अन्नदाता को अन्नदाता के साथ जीवन रक्षकदाता बनना है।