Sunday, April 13, 2025
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अद्भुत, अनुपम और अबूझ हैं कृष्ण

Sanskar 6


54 1कृष्ण को देव कहें या मानव, ईश्वर कहें या मानव, सुधारक कहें या दंडाधिकारी हर रूप में वह लोक से जुड़े मिलते हैं। चाहे एक ग्वाले के रूप में देखें या माखनचोर के रूप में । बाल लीला में हो या द्वारिकाधीश के रूप में कृष्ण हर वक्त हर पल लोक कल्याण में रत मिलते हैं। वह श्री राम की तरह धीरोद्दात या मर्यार्दा पुरुषोत्तम न सही एक खिलंदड़ किस्म के ऐसे नायक हैं जिन पर लोक यानि जनसाधार मर मिटता है, अपना सब कुछ उन पर न्योछावर कर देता है और मानव होते हुए भी वह भगवान का दर्जा पा जाते हैं।

कृष्ण बखान है असंभव

कृष्ण के इतने विविध रूप हैं कि बखान करना असंभव प्राय: लगता है। उनका जन्म ही अपने आप में दिव्य है वह जन्मते ही चमत्कार करने लगते हैं। बाल्यावस्था में ही इतना कुछ कर जाते हैं कि विश्वास करना मुश्किल होता है। उनकी लीलाएं अपरंपार की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। मिथक उन्हें भगवान विष्णु के पूर्णावतार मानते हैं जो धरा पर धर्म की ग्लानि रोकने, अधर्म का अभ्युथान करने, धर्म की संस्थापना करने, दुष्टों का संहार करने के लिए अवतरित हुए। कृष्ण अपने गीता के उपदेश में स्वयं को ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ श्लोक के माध्यम खुद को भगवान स्थापित करते दिखते हैं।

भक्तो की मुक्ति के माध्यम

स्वयं को अपने ही मुंह से भगवान कहने वाले कृष्ण के भक्त मानते हैं वह राम, कृष्ण, नरसिंह, वराह, शूकर, परशुराम या दूसरे और रूपों में हर युग में अवतरित होते रहे हैं और भक्तों की रक्षा व खलों का नाश करते रहे हैं। द्वापर में यह कृष्ण के रूप में पूतना, शकटासुर वृषभासुर, कंस, शिशुपाल, जरासंघ व दुर्योधन आदि का वध करते हैं तो पांडवों , विदुर, सुदामा जैसे भक्तों की रक्षा भी करते हैं। इतना ही नहीं वह स्वयं ही नहीं दूसरों को माध्यम बनाकर भी यह नेक काम करते हैं उदाहरण के लिए वचनबद्ध होने के नाते भीष्म को अधर्मी दुर्योधन के पक्ष में खड़ा होना पड़ता है तो वह युक्तिपूर्वक उनके के लिए शिखंडी को उनकी मुक्ति का माध्यम बना लेते हैं।

अबूझ और अद्भुत हैं कृष्ण

कृष्ण अद्भुत है कभी वह स्वयं मोह का कारण बनते हैं तो कभी मोह के मोहजाल को काटने का माध्यम बनते हैं। गोकुल में रहकर वह जनसाधारण के प्रतिनिधि गोपियों व ग्वालों की ऐसे मोहपाश में बांध लेते हैं कि उनके बगैर यह जीने की कल्पना तक नहीं कर पाते और कृष्ण के मथुरा जाने पर या तो वहाँ जाकर बसने को उद्यत हो जाते या कृष्ण को वापस लाने का हर प्रयास करते हैं । जब उन्हें समझाने के लिए कृष्ण उद्धव को भेजते हैं तो वह “उधौ मन नहिं हुतो दस बीस, एक हुतो गयो स्याम सँग अब कोआराधै ईस।” कहकर निराकार ईश्वर को भजने से स्पष्ट मना कर देती हैं।

मोहें भी कृष्ण, मोह भंग भी करें

पर जब महाभारत के युद्ध में अर्जुन मोहग्रस्त होते हैं तो वह कृष्ण ही हैं जो एक दो नहीं पूरे अठारह दिन तक उनके मोह को भंग करने के लिए गीता का उपदेश देते हैं और तब तक देते हैं जब तक अर्जुन मोहपाश से बाहर नहीं आ जाते तो कह सकते हैं कि कृष्ण मोह जाल बुनते भी हैं और मोह भंग करने की कला में भी निष्णात है।

कर्म योगी कृष्ण

महाभारत के समय कृष्ण दुनिया को कर्म, अकर्म क विकर्म के भेद का पाठ पढ़ाते हुए फल की आसक्ति से दूर रहते हुए “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” द्वारा कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, अज्ञान व अकर्मण्यता से बचने की राह दिखाते हैं । अत: कह सकते हैं कि द्वापर में भी वह ऐसा उपदेश देते हैं जो कलिकाल में भी पूर्णतया उपयोगी होता है इस दृष्टि से कृष्ण युगदृष्टा कहे जा सकते हैं।

प्रेम से हों वश में

कृष्ण को जानना बड़े-बड़े ज्ञानियों के बस की बात भी नहीं रही, वह ज्ञानयोग की बजाय सरल प्रेम से समझ में आते है तभी तो अनपढ़ गोपियां उन्हें जान जाते हैं मगर योगी नहीं। सच कहा जाए तो कृष्ण प्रेम के ढाई अक्षर से हीबस में होते हैं। ज्ञानियों को छका देने वाले कृष्ण को अनपढ़ प्रेमासक्त गोपियां छछिया भरी छाछ पर नाच नचा देती हैं। कृष्ण कलुषित मन वालों के छप्पनभोग छोड़ कर साफ मन वालों के साग भात से खुश हो जाते हैं। द्वारिकापति होकर भी सुदामा को चरण प्रक्षालन करते है मित्र का मान रखते हैं। मगर दंभी, अहंकारी, अपशब्दों का प्रयोग करने वाले अपनी बुआ के बेटे शिशुपाल का सर काट लेते हैं।

मानव भी कृष्ण ईश भी कृष्ण

कृष्ण मानव व ईश्वर दोनों रूप में लुभाते हैं उनका हर कार्य जन कल्याण के लिए व वंचितों के हितार्थ ही होता है महाभारत के युद्ध में वह साम, दाम, दंड भेद सब अस्त्र शस्त्र अपने प्रियों की जीत के लिए आजमाते हैं। यहाँ वह न उचित देखते हैं और न अनुचित, न झूठ से कतराते हैं न अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने में पीछे हटते हैं, न प्रेम के लिए अपहरण करने से डरते हैं न ही अपनी स्वयं को बहन सुभद्रा का अपहरण करने की सलाह अर्जुन को देने से कतराते हैं।

महायोद्धा भी रणछोड़ भी

वह स्वयं महायोद्धा है पर परिस्थिति के अनुसार रण से भाग रणछोड़ बनने भी सकुचाते नहीं। कृष्ण का हर समय त्रस्तों के पक्ष में खड़े होना उनके लोकरक्षकहोने का प्रमाण है।


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