किसी भी चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियां सत्ताधारी दल को हटाकर सत्ता हासिल करने के इरादे से चुनाव लड़ती हैं लेकिन ऐसा लगता है कि मौजूदा दौर में भाजपा के खिलाफ खड़े नजर आ रहे प्रमुख सियासी दल 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान ‘प्रमुख विपक्ष दल’ के मुकाबले के लिए कमर कस रहे हैं। दरअसल साल 2014 में भाजपा के भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत के रूप में स्थापित हो जाने के बाद से इस बात का फैसला तो हो चुका है कि आने वाले कुछ दशकों के लिए भारतीय राजनीति में सत्तधारी दल का चरित्र कैसा होगा लेकिन अभी यह फैसला होना बाकी है कि इस दौरान विपक्षी पार्टियों का मूल चरित्र और उनके राजनीति का पिच कैसा रहने वाला है।
साल 2014 से पहले यह मामला सेटेल था। कांग्रेस आजादी के बाद से भारतीय राजनीति के केंद्र में थी और भारत में पक्ष और विपक्ष की चुनावी राजनीति कमोबेश नेहरु-गांधीवादी आदर्शों और कांग्रेस के मध्यमार्गी तौर-तरीकों से संचालित होती थी। लेकिन अब मामला पलट गया है, वर्तमान में भारत की राजनीति उस हिंदुत्व के पथ पर अग्रसर है, जिसकी प्रस्तावना सावरकर द्वारा दी गई थी। 2014 के बाद बने इस नए सेटेलमेंट में सबसे बड़ी रुकावट कांग्रेस पार्टी है,जो पुराने भारत (1947 से 2014 तक) के राजनीतिक विरासत की ‘स्वभाविक’ और ‘अनिच्छुक’ दावेदार है। इसी स्वभाविक दावेदारी की वजह से भाजपा और संघ परिवार कांग्रेस को अपने लिए एक वैचारिक चुनौती के तौर पर देखते हैं, जबकि अपने इस विरासत के प्रति कांग्रेस का अनिच्छुकपन दूसरी विपक्षी पार्टियों को उसकी जगह भरने के लिए प्रोत्साहन का काम कर रहा है लेकिन समस्या यह है कि दूसरी विपक्षी पार्टियों के पास यह विरासत नहीं है और लेफ्ट को छोड़ अधिकतर के पास अपनी कोई ठोस विचारधारा भी नहीं है।
संख्याबल के हिसाब से देखा जाए तो भारत के राजनीति में विपक्ष अधिकतर समय कमजोर रहा है, लेकिन इसके बावजूद इतना निष्प्रभावी कभी नहीं रहा। मौजूदा दौर में विपक्ष, विचारधारा के मामले में आत्मसमर्पण कर चुका है। अब वे या तो सत्ताधारी पार्टी के पिच ‘हिंदुत्व’ पर खेलने को मजबूर है या विचाराधारहीन है। इसी वजह से कई विपक्षी दलों की राजनीति भी प्रशांत किशोर जैसे लोगों के आउटसोर्सिंग पर निर्भर होती जा रही है।
वर्तमान में भाजपा विरोधी विपक्ष को हम दो हिस्सों में बांट सकते हैं जिसमें एक साईलेंट है और दूसरा मुखर है। सायलेंट
विपक्ष में नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी, के। चंद्रशेखर राव, मायावती की बहुजन समाज पार्टी और स्वर्गीय जयललिता की एआईएडीएमके जैसी पार्टियां शामिल हैं, जो जरूरत पड़ने पर कभी भी भगवा खेमे को मदद कर सकती हैं। मुखर विपक्ष में कांग्रेस पार्टी, वामपंथी दल, आम आदमी पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां शामिल हैं, इधर कुछ समय से शिवसेना जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी भी भाजपा के खिलाफ काफी मुखरता से सामने खड़ी दिखाई पड़ रही है। भाजपा के खिलाफ इस मुखर विपक्ष की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पिछले सात सालों के दौरान इनकी विश्वसनीयता पर लगातार हमला किया गया है और इस काम में सत्ताधारी खेमे और उसके समर्थक समूहों जिसमें मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी शामिल है की भूमिका साफ-तौर पर देखी जा सकती है जिनके द्वारा हर बात के लिए विपक्ष खासकर कांग्रेस को घेरने और इसका सारा ठीकरा उसके सत्तर सालों के कामकाज पर फोड़ने का काम बहुत सधे हुए तरीके से किया गया है। इसी प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार द्वारा किये गए कामों को किसी भी सवाल और जवाबदेही से परे स्थापित करने की कवायद भी की गयी है और इसपर विपक्ष के हर विरोध को ‘गंदी राजनीति’, ‘राष्ट्रहित में बाधक’ और कभी-कभी तो ‘देशद्रोही कदम’ के तौर पर पेश किया जाता है।
अपनी विरासत के चलते कांग्रेस पार्टी का आज भी भारतीय राजनीति में एक खास मुकाम है और इसी वजह से अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद कांग्रेस आज भी विपक्ष की राजनीति का केंद्र बनी हुई है। 2014 में सत्ता से हटने के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है, लेकिन 2019 में राहुल गांधी के के पार्टी अध्यक्ष पद से हटने के बाद से तो कांग्रेस आत्मविनाशी मुद्रा में नजर आ रही है। ऐसे में भाजपा के खिलाफ प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उसकी ‘जगह’ लगातार कमजोर होती गई है। आज की तारीख में कोई ठेठ कांग्रेसी भी यह दावा करने के स्थिति में नहीं है कि आने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस भाजपा को चुनौती देने में सक्षम है। इसलिये पिछले सात वर्षों के दौरान कुछ मजबूत सूबाई क्षत्रप विपक्ष के तौर पर कांग्रेस के इस स्पेस को भरने की कोशिश कर चुके हैं जिसमें नितीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल प्रमुख हैं। अब पश्चिम बंगाल में तीसरी बार चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी इस दिशा में बहुत गंभीरता से प्रयास करती हुई नजर आ रही हैं।
ममता बनर्जी का लक्ष्य आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी से अधिक सीटें जीतना है, जिसमें कम से कम पंद्रह से बीस सीटें पश्चिम बंगाल से बाहर की हों। अगर वे ऐसा करने में कामयाब हो जाती हैं तो कांग्रेस के मुकाबले प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उनकी दावेदारी बहुत मजबूत हो जाएगी। इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव तक उनकी कुल जमा रणनीति कांग्रेस पार्टी को और अधिक कमजोर बनाने की होगी। दरअसल ममता बनर्जी और प्रशांत किशोर यह स्थापित करना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा, कांग्रेस और गांधी परिवार के लीडरशिप की वजह से लगातार और अधिक मजबूत होते जा रहे हैं। इसी वजह से वे विपक्ष के लिए एक बोझ बन गए हैं, जिससे छुटकारा पाया जाना जरूरी है।
आज पूरे विपक्ष के राजनीति सत्ताधारी दल के विचारधारा और उसके एजेंडे से तय हो रही है। विपक्ष अपना खुद का कोई एजेंडा पेश करना तो दूर सत्ताधारी दल के किसी भी कोर एजेंडे का विरोध कर पाने की स्थिति में भी नहीं है। विपक्ष के पास भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति का कोई काट नहीं है और फिलहाल उनका ध्यान भी इस तरफ नजर नहीं आता है और वे हिंदुत्व की राजनीति के मुकाबले ‘हिन्दू’ ताबीज पर भरोसा कर रही हैं या फिर ऐसा करने को मजबूर हैं। दूसरी तरफ विपक्ष की राजनीति भाजपा से ज्यादा कांग्रेस को निपटा कर उसकी जगह हासिल करने पर केंद्र होती जा रही है। अगर भारत की राजनीति में विचारधारा की प्रतिस्पर्धा को कायम रखना है तो कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ समान्तर नैरेटिव के बारे में सोचना होगा नहीं तो उनकी स्थिति बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हो जाएगी।