लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन’ रणविजय राव का प्रथम व्यंग्य-संग्रह है जिसमें उनके उनत्तीस व्यंग्य संग्रहीत किए गए हैं। समस्त व्यंग्य औपचारिक और अनौपचारिक रूप से कोरोना से जुड़े हैं। यहां पर जो ध्यान देने वाली बात है वो यह कि एक ही पात्र रामखेलावन के इर्द-गिर्द बुना गया समस्त परिदृश्य हमारे जीवन से ही जुड़ा प्रतीत होता है। इस रामखेलावन के भीतर झांकने पर हमें अपना ही प्रतिबिंब नजर आता है। हम सबके घरों में किसी न किसी पारिवारिक सदस्य को, किसी न किसी दोस्त को हमने कोरोना से पीड़ित देखा और हम सब डर गए। एक सशक्त लेखनी ने हमें उन वास्तविकताओं से परिचित कराया जिसके भीतर से हम गुजर चुके हैं।
कोरोना से हम जिस तरह डरे वो सब हम दोबारा नहीं चाहते और इसलिए मुकाबला करना भी जरूरी है। सच ही तो कहा है, जो डर गया सो मर गया। एक शानदार पंक्ति मन को मोहती है,‘आज के जमाने में जीने के दो ही तरीके हैं, डरो या डराओ।’ पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य ‘लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन’ में वैसे तो रामखेलावन का मूड खराब है लेकिन उसकी चिंताओं ने उसे ज्यादा घेर रखा है। एक साधारण आदमी भी यह सोचने को मजबूर है कि नेताओं की कथनी और करनी में कितना अंतर होता है।
हमेशा जनकल्याण की बात करने वाले हमारे ये नेता हमें एक-एक रोटी के लिए कितना तरसाते हैं। रणविजय राव की एक व्यंग्य रचना ‘जिम्मेदारियों के बोझ से लदा रामखेलावन’ में वह एक समाचार वाचक बनता है। उसे पता है कि भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और मुंह लगे ठेकेदारों और बिचौलियों का किस तरह का गठजोड़ हावी है।
वह चाहता है कि सब सच-सच पढ़ दे कि लोगों को सच का पता चल सके कि भंडाफोड़ कर दे उनकी काली करतूतों का। पर तभी उसे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होता है, उसे कइयों की रोजी-रोटी का ख्याल आता है और मन मसोसकर ढक लेता है उनी झूठी-सच्ची लाज।
‘राम रोटी और रामखेलावन’ के अंतर्गत व्यंग्यकार हतप्रभ है कि कोरोनाकाल में भगवान के घर में ताला लग गया है।
पुस्तक : लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन, लेखक : रणविजय राव, प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य: 325 रुपये
मुकेश मोपली