एक संन्यासी राजमहल के दरवाजे पर पहुंचा और द्वारपाल से बोला, ‘मैं इस मकान में रहना चाहता हूं।’ द्वारपाल ने समझा कि कोई सिरफिरा साधु है।
उसने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और उससे बोला, ‘बाबा, यह मकान नहीं, राजमहल है।’ संन्यासी हंसा और व्यंग्य से कहा, ‘राजमहल कहां, यह तो धर्मशाला है। इतने सारे लोग रहते हैं इस बड़ी धर्मशाला में, तो मैं क्यों नहीं रह सकता? तुम इस धर्मशाला के मालिक तक मेरी बात पहुंचाओ।’
द्वारपाल ने उसे बहुत समझाया, लेकिन उसकी समझ में नहीं आया। विवाद के बाद भी संन्यासी वहां से नहीं हटा, तो द्वारपाल ने राजा को जिद्दी साधु के बारे में सूचना दी।
राजा ने सोचा, जरूर कुछ बात है और साधु को अंदर आने की इजाजत दे दी। संन्यासी राजा के पास पहुंचा तो बोला, ‘इस धर्मशाला की व्यवस्था ठीक नहीं है श्रीमानजी! मुझे यहां आने से रोका क्यों गया?
आपके द्वारपाल ने मुझे बहुत देर तक बहस की है।’ राजा ने कहा, ‘महात्माजी! आपको गलतफहमी हुई है। मैं राजा हूं और यह मेरा महल है। यहां जिस-तिस को आने की इजाजत नहीं है।’
साधु ने कहा, ‘महल होगा आपकी दृष्टि में। आप बताएं कि इसका निर्माता कौन है?’ राजा ने कहा, ‘मेरे पूर्वजों ने इस महल का निर्माण करवाया।’ ‘कहां हैं वे? आप उनसे हमें मिलवाएं।’
‘अब वे कहां हैं? मैं उनकी पांचवी पीढ़ी का वंशज हूं।’ ‘आपके पिताजी तो होंगे?’ ’वे भी नहीं हैं।’ ‘कहां गए?’ ‘वहां, जहां एक दिन सब जाते हैं।’
संन्यासी ने राजा से कहा, ‘आपकी पांच पीढियां इस मकान में कुछ दिन रहीं, फिर चली गई। स्पष्ट है कि यह भवन उनका नहीं था। इसमें वे कुछ दिन के लिए आए और फिर चले गए। तो धर्मशाला कह कर मैंने क्या अनुचित कहा?