Sunday, September 24, 2023
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कृषि प्रधान देश में कृषि की दुर्दशा

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Samvad


davindraभारत एक कृषि प्रधान देश है। खेती-किसानी की दशा चौपट हो चुकी है। किसानों की हालत दिन ब दिन बदतर होती जा रही है। जहां एक ओर किसानों को खेती में प्रयोग की जाने वाली बीज, खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, डीजल उपकरण बिजली आदि महंगे दर पर उपलब्ध हो रही है, वहीं कृषि का उपज औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होता जा रहा है। जिसके चलते देश में हर आधे घण्टे में एक किसान कर्ज और सुद के चक्कर में आत्महत्या करने पर मजबूर हो गया है। इस समस्या का मुख्य कारण अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक शोषण है। नई आर्थिक नीतियां औपनिवेशिक शोषण को और मजबूत एवं गहरा कर रही हैं।

दरअसल कृषि, उद्योग व वाणिज्य के मातहत होने के कारण किसान शोषण का शिकार बने हुए हैं। जहां 1950-51 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर कृषि का हिस्सा 55.4 फीसदी था, जो 2013-14 आते-आते वहीं इसका हिस्सा 13.9 फीसदी रह गया। इसके विरुद्ध उद्योग का हिस्सा जहां- 1950-51 में 16.1 फीसदी था वह 2013-14 में बढ़कर 26.1 फीसदी हो गया।

वित्तीय वषर् 2021-22 में कृषि का हिस्सा 17.9 फीसदी हुआ है। 2013-14 के बाद जो थोड़ा सी वृद्धि हुई है, उसका कारण कोविड-19 का प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। एक तरफ जीडीपी में कृषि का हिस्सा घटता जा रहा है दूसरी तरफ कृषि में श्रमिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं कृषि पर आश्रित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।

भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया सुस्त रही है, 2011 में जनगणना के अनुसार शहरी आबादी कुल आबादी की 31.2 फीसदी थी। भारत की ग्रामीण आबादी कुल आबादी की अभी भी लगभग 69 बनी हुई है। ग्रामीण आबादी के मामले में भारत दुनिया का पहला देश बना हुआ है।

भारत में जो भी पूंजीवादी विकास हुआ है, उसमें सेवा क्षेत्र, कृषि और उद्योग के मुकाबले तेजी से अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा के बन गया है । सेवा क्षेत्र में 1950-51 में मात्र 28.5 फीसदी था, जो 2013-14 में बढ़कर 59.9 फीसदी सेवा हो गया, परंतु इस सेवा क्षेत्र का विस्तार राष्ट्रीय उद्योगों के कारण नहीं, बल्कि विदेशी उद्योगों के बल पर हो रहा है।

हमारे देश की पूंजी विदेशी आवारा पूंजी की सेवा कर रही है। इसी कारण उद्योगों के विकास के बावजूद कृषि संकट बना हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से एकीकरण बढ़ा है, जिसके चलते कृषि भी उसका हिस्सा बन गई। इसका असर भारतीय कृषि में कीमतों के उतार-चढ़ाव के रूप में अच्छा-खासा पड़ने लगा है।

साथ ही विश्व व्यापार संगठन का सदस्य-1995 में होने के नाते एक निश्चित मात्रा में कृषि उपज एवं पदार्थों का आयात करना पड़ता है। जब भारत में उन वस्तुओं का उस वर्ष में ज्यादा उत्पादन हुआ हो मतलब देश में गेहूं अगर पर्याप्त मात्रा में पैदा हुआ है, तब भी बाहर की दुनिया से गेहूं का आयात करना पड़ेगा।

भारत का कृषि आयात कुल राष्ट्रीय आयात का अधिकांश वर्षों में 5 फीसदी से कम बना हुआ है। जबकि कृषि निर्यात कुल राष्ट्रीय निर्यात का मोटे तौर पर 10 से 15 फीसदी बना हुआ है। निर्यात में कृषि मालों में चाय, कॉफी, चावल, मसाले, मोटे अनाज, तेल, फल, कच्चा सूत, सब्जियां, काजू, समुद्री उत्पाद, मीट, पोल्ट्री और दूध प्रमुख रूप से है।

आयात में वनस्पति तेल, कच्चा तेल, दालें एवं कच्चा सूत, फल-सब्जियां हैं। कृषि क्षेत्र के विभिन्न उपक्षेत्रों में भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013-14 से वर्ष 2016-17 तक अप्रैल-सितंबर में कुल विदेशी निवेश 250.48 मिलियन डॉलर हुआ था। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश मुख्य रूप से फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज व कृषि सेवाओं में हो रहा है।

विश्व बैंक जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं की मांग रही है-कृषि क्षेत्र को दी जा रही सब्सिडी को कम करे, सरकार कृषि क्षेत्र पर अपनी पकड़ ढीली करे, साथ ही सरकार श्रम, भूमि वितरण सेवाओं में हस्तक्षेप न करे, निर्यात शुल्कों ,भण्डारण और चीनी उत्पाद से संबन्धित नियम को और ढीला करे।

इस प्रकार साम्राज्यवादी संस्थाओं के मांगों के अनुरूप एक के बाद एक आने वाली सरकारें काम करती रही हैं। इसके बाद एक कारण के तौर पर कृषि की दुर्दशा के लिए विदेशी निवेश का रोना रोती रही है। भारत में ऐसी कई देशी-विदेशी कंपनियां हैं, जो विभिन्न तरीके से मुनाफा पीट रही हैं। और किसानों को लूट रही हैं।

इस तरह तमाम देशी-विदेशी कंपनियों को खेती किसानी को बे-लगाम लूटू-पाट करने के लिए मौजूदा सरकार तीनों काले को लागू करना चाह रही थी। इफ्को, कृभको राष्ट्रीय केमिकल एंड फर्टिलाइजर्स लिमिटेड जैसी कई कंपनियां किसानों के शोषण में लगी हुई हैं। तमाम भारतीय कम्पनियां देश ही नहीं, अपितु विदेशों में व्यापार कर रही हैं।

ये कंपनियां अफ्रीका, पूर्व सोवियत संघ के देशों सहित दुनिया में बड़े बड़े फार्म खरीदकर खेती कर रही हैं। इसके विरुद्ध ऋण माफी का खास लाभ छोटे और मझोले किसानों को नहीं मिल पाता, चूंकि संस्थागत ऋण तक उनकी पहुंच नाममात्र की होती है।

वे गैर संस्थागत स्रोतों जैसे माइक्रोफाइनेंस कंपनियों, सेठों, साहूकारों, व्यापारियों, पारिवारिक संबन्धों, मित्रों,धनी किसानों, फार्मरों पर निर्भर रहते हैं। मौजूदा सरकार भारतीय कृषि मंत्रालय के नाम बदलकर कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया है, जिससे किसान उम्मीद लगाए हैं कि अब हम किसानों का कल्याण हो जाएगा। मगर समाजवादी अर्थव्यवस्था कायम किए बगैर किसानों, मजदूरों को मुक्ति नहीं मिलेगी।


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