बहुत वर्ष नहीं हुए हैं, जब राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और यह माना गया था कि उनकी नवीन और युवा दृष्टि कांग्रेस को फिर से उसकी खोयी जमीं वापस लौटाएगी और कार्यकर्ताओं में एक नयी ऊर्जा भरेगी। इसके लिए जरूरी था कि राहुल गांधी को बुढ़ाती कांग्रेस के बुढ़ाते नेताओं की घिसी-पिटी लाइन को दरकिनार करके एक नयी व्यवहारिक लाइन पकड़नी पड़ेगी और राज्यों में भी इंदिरा राजीव के जमाने से बैठे काकस को साइड लाइन करके नया तथा उत्साहित नेतृत्व लाना होगा।
राहुल इसमें पूर्णत: असफल सिद्ध हुये। उस दौर में कांग्रेस के जो स्ट्रांग क्षेत्र थे उनमें पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल, उत्तराखंड , असम थे जिनमें से कुछ में उनकी सरकारें थीं और बाकी में वह सशक्त विपक्ष की भूमिका में थीं। यहीं राहुल गांधी से चूक हुई। वो अहमद पटेल, जयराम रमेश, वेणुगोपाल , हरीश रावत, भूपेंद्र हुड्डा, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, तरुण गोगोई, सिद्धारमैया, सैम पित्रोदा जैसे पुराने घाघ नेताओं के चंगुल में फंस गए और उन्हीं को राज्यों में संगठन की और विधानसभा लोकसभा चुनावों की बागडोर सौंप दी। यहां माधवराव सिंधिया, सचिन पायलट, शिवकुमार, हेमंता विश्वास जैसे मतदाताओं एवं कार्यकर्ताओं पर जबरदस्त पकड़ रखने वाले युवा नेताओं को द्वितीय लाइन में पटक दिया गया।
इसी पुरानी लाबी के प्रभाव में आकर राहुल गांधी ने हिंदू मुस्लिम समीकरण में सीधे सीधे मुस्लिम समर्थक रुख अपना लिया चाहे वह मुस्लिम आरक्षण हो, अयोध्या मंदिर मामला हो या कुंभ हो, पुरातात्विक सर्वेक्षण हो, राहुल अपने हाव-भाव एवं वक्तव्यों से हिंदू विरोधी ही लगे जिसके कारण एक के बाद एक राज्यों एवं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस हारती रही। राहुल गांधी ने इन चुनावी हारों का ठीकरा बड़े नेताओं द्वारा गलत टिकट वितरण को तो दिया किंतु उन्हें जिम्मेदारी मुक्त करने की जगह स्वयं संगठन की जिम्मेदारी से मुक्त हो गए और एक लंबे अंतराल के बाद खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। इस दौरान भी हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली में कांग्रेस की जबरदस्त हार हुई और फिर से हार के लिए वही रिव्यू कमेटी का गठन कर लिया गया, जिन रिव्यू कमेटियों की रिपोर्ट भूतकाल में भी कभी सामने नहीं आयी और आयी तो भी कभी कोई एक्शन नहीं लिया गया।
अभी राहुल ने अपने गुजरात दौरे में फिर एक शिगुफा छोड़ा है कि गुजरात में उनके चालीस कार्यकर्ता भाजपा के लिए कार्य कर रहे हैं। राहुल को समझना चाहिए कि केवल गुजरात में ही नहीं बल्कि सभी राज्यों में और केंद्र में भी कांग्रेस के अंदर भाजपा के स्लीपर सैल के लोग उच्च पदों पर बैठे हैं। पहले उनसे तो मुक्ति प्राप्त करें। कांग्रेस की असली बीमारी उसके थोक में बनाये जाते रहे प्रदेश प्रभारी महासचिव हैं जो बगैर फील्ड में कार्यकर्ताओं के पास गए वहां वरिष्ठ नेताओं के साथ सांठगांठ करके टिकट वितरण करते हैं और संगठन में नियुक्तियां करवाते हैं। इन्हीं लोगों पर गाहे-बगाहे भाजपा प्रत्याशियों के अनुकूल रहने वाले लोगों को टिकट देने के आरोप लगते रहते हैं। कहीं कहीं टिकट बेचे जाने की भी चर्चा आती रहती है।
अब राहुल गांधी संगठन में किसी पद पर नहीं हैं। केवल संसद में विपक्ष के नेता हैं। संगठन के सारे फैसले खड़गे नहीं अपितु वेणुगोपाल और जयराम रमेश ले रहे हैं और राहुल गांधी से उनकी निकटता है। यानी कि सभी फैसले राहुल गांधी कर रहे हैं। खड़गे रबर स्टैम्प की तरह केवल राज्य सभा में विपक्ष के नेता के तौर पर सभापति धनखड़ जी से रोजाना तीखी बहस करने में व्यस्त रहते हैं।?धनखड़ को भी उन्हें छेड़ने में आनंद आता है। अब जब राहुल गांधी अनौपचारिक रूप से सर्वोपरि बन कर संगठन देख रहे हैं और इसमें आमूलचूल परिवर्तन करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उन्हें राज्य, जिले और मंडल स्तर तक संगठन में नियुक्तियां करनी पड़ेंगी जो लगभग एक दशक से रिक्त पड़ी हुई हैं। बहुत से राज्यों में तो प्रदेश कमेटी ही नहीं है। कांग्रेस को अपना सदस्यता अभियान नये सिरे से प्रारंभ करना होगा और भाजपा की तर्ज़ पर बूथ लेवल तक कमेटियां बनानी पड़ेंगी। इसके साथ ही कांग्रेस को अपनी बदनाम प्रभारी महासचिव प्रणाली को बदलना या बंद करना होगा जिसने दलाली प्रथा को जन्म दिया। अब यह दलाली चाहें पैसों और टिकटों में हो या फिर भाजपा से सांठगांठ में हो। केवल प्रदेश कमेटी और कांग्रेस संसदीय बोर्ड के मध्य सीधा संवाद होना चाहिए। अब कांग्रेस को चाहिए कि वह अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, भूपेंद्र हुड्डा, हरीश रावत जैसे जनता द्वारा धकिया दिए गए लोगों को प्रदेशों की राजनीति से अलग करके केंद्र में संगठन का कोई काम दे और नए तथा ऊर्जावान लोगों को प्रदेश का लीडिंग नेता सार्वजनिक रूप से घोषित करें।
राहुल गांधी अभी भी अपनी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सोच के बारे में भ्रमित हैं। उन्हें समाजवादियों तथा वामपंथी लोगों वाली धर्मनिरपेक्ष नीति जो वास्तव में हिंदू विरोधी और मुस्लिम-ईसाई समर्थक नीति है से दूर निकल जाना चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि देश के अस्सी प्रतिशत हिंदू मतदाताओं की उपेक्षा करके वे तथा उनका दल कभी कोई बड़ा चुनाव नहीं जीत पायेंगे। राहुल गांधी को कांग्रेस का मुस्लिम,सवर्ण, अनुसूचित जाति वाला भूतकाल का बड़ा जनाधार हासिल करने के लिए इन समुदायों के सर्वस्वीकृत नेतृत्व को अपनी तरफ आकर्षित करना होगा। यह जनाधार अब भाजपा और जेपी लोहियावादी समाजवादियों की तरफ चला गया है । कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना की मांग का भी अभी हाल के चुनावों में कोई असर नहीं हुआ है। कारण यह है कि ओबीसी जातियों का अभी कांग्रेस नेतृत्व में विश्वास नहीं जगा है। इसके लिए राहुल गांधी की कांग्रेस को नये सिरे से और बगैर स्थानीय दलों का साथ लिए एक सशक्त नीति बनानी होगी। कांग्रेस की मुसीबत यह रही है कि जब जब प्रांतों में उसने किसी बड़े प्रांतीय दल से गठबंधन करके चुनाव लड़ा तब तब उसका परंपरागत जनाधार उस सहयोगी दल की तरफ खिसक गया। इसका भी निराकरण करना होगा।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि आने वाले वर्षों में कांग्रेस की चुनावी संभावनाएं इस बात पर निर्भर रहेंगी कि राहुल गांधी कैसे हिम्मत करके कांग्रेस की गाड़ी को जर्जर होती पटरी से हटाकर किसी दूसरी नयी पटरी पर ले जाते हैं। इसके लिए उन्हें स्वयं औपचारिक रूप से संगठन की बागडोर संभालनी पड़ेगी। नेपथ्य में रह कर संगठन नहीं चलाया जा सकता।