संस्कृत साहित्य में एक कथा है। एक व्यक्ति ने पूछा, ‘मैं प्रसिद्ध कैसे बनूं’ उससे पूछा गया, ‘अच्छे तरीके से या बुरे तरीके से?’ उसने कहा, ‘कैसे भी? मुझे तो प्रसिद्ध होना है। तरीका जो भी हो।’ जबाव मिला, ‘तुम गांव में रहते हो। कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है। एक लाठी लो, और उसके सारे घड़ों को फोड़ डालो, एक दिन में प्रसिद्ध हो जाओगे।’
उसने ऐसा ही किया। लाठी लेकर गया। कुम्हार कुछ दूरी पर असावधान बैठा था। उसने लाठी घुमाकर सारे बर्तन फोड़ डाले। गांव में वह प्रसिद्ध हो गया। प्रसिद्धि तो उसे मिली, किंतु वह संतुष्ट नहीं हुआ। उसने कहा, ‘मैं इस गांव में ही नहीं, पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध होना चाहता हूं।’
उसे परामर्श दिया गया कि इसके लिए तुम अपने सारे कपड़े उतार फेंको और नग्न होकर बाजार में घूमो, इससे तुम प्रसिद्ध हो जाओगे। उसने यह तरीका भी आजमाया। इस काम से उसे कुछ ज्यादा प्रसिद्धि मिली। किंतु उसे संतुष्टि नहीं मिली। उसने कुछ और उपाय बताने को कहा।
लोगों ने कहा, ‘और ज्यादा प्रसिद्ध होने का तरीका यह है कि तुम गधे की सवारी करो और गांव-गांव में घूमो। बैठना इस तरह है कि मुंह गधे की पूंछ की ओर, पीठ उसके मुंह की ओर रहे।’ उसने यह भी आजमाया और प्रसिद्ध हो गया। उसे संतुष्टि भी मिली।
बोला, ‘मैं सचमुच प्रसिद्ध हूं।’ लोगों ने कहा, ‘कैसे?’ उसने कहा, ‘घटं भिद्यात्, पटं छिंद्यात् कुर्याद् रासभरोहणम। येन केन प्रकारेण प्रसिद्ध: पुरुषो भवेत।।’ वास्तव में प्रसिद्ध होने के लिए आज लोग तरह-तरह के उपक्रम करते हैं, लेकिन प्रसिद्ध होने का तरीका ठीक होना चाहिए, तभी सच्ची ख्याति मिलेगी।