Friday, March 29, 2024
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परछाई और दौड़

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अमृतवाणी


हर मनुष्य अपने दैनिक जीवन में परछाई को पकड़ना चाहता है। सामान्यत: परछाई पकड़ में नहीं आती। हम कोशिश करते रहते हैं, हालांकि उसको पकड़ने के भी उपाय हैं। एक बालक धूप में खड़ा था। अपनी परछाई को देखकर उसके मन में कौतुहल जागा। वह परछाई में दिख रही अपनी चोटी को पकड़ने दौड़ पड़ा।

परछाई भी दौड़ने लगी। बालक भी दौड़ता रहा। यह सब उस बालक का पिता देख रहा था। वे आए। बालक बोला, मैं परछाई में दिख रही चोटी को पकड़ना चाहता हूं, पर वह पकड़ में आती ही नहीं। पिता ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, अभी पकड़ में आ जाएगी। तुम दौड़ो मत, ठहर जाओ। बालक ठहर गया।

पिता ने उसका हाथ पकड़ा, हाथ को सिर पर ले जाकर चोटी पकड़वा दी। अब परछाई की चोटी भी बालक के हाथ में थी। परछाई या प्रतिबिंब को नहीं पकड़ा जा सकता। जब मनुष्य की चेतना प्रतिबिंबों की चेतना बन जाती है, तब भ्रम उत्पन्न होते हैं, अनेक भ्रांतियां पनपती हैं। कहने का अर्थ यह है कि ध्यान की साधना यथार्थ की साधना है, प्रतिबिंब से परे जाने की साधना है।

हम प्रतिबिंबों में ही उलझते न रहें, मूल तक पहुंचने का भी प्रयास करें। वर्तमान जीवन की समस्याएं, फिर वे सामाजिक हों या आर्थिक, सामूहिक हों या वैयक्तिक, प्रतिबिंबों के आसपास चक्कर काटती हैं। यदि यथार्थ को पकड़ा जा सके, तो अनेक समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है।

आज की स्थिति यह है कि मूल निर्मूल्य हो रहा है और प्रतिबिंब मूल्यवान माना जा रहा है। अगर प्रतिबिंब यानी परछाई के पीछे भागते रहे, तो एक दिन थक जाएंगे हाथ कुछ नहीं आएगा। बहुत लोग अकारण परछाई के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन उनके हाथ खाली हैं।


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